एक बात, जो प्रायः मुझे उलझन में डालती है, वह है हम हिन्दी ब्लॉगरों के बीच स्वयं को साहित्य-सर्जक कहलाने की आकांक्षा। यह आकांक्षा अन्य भाषाओं के ब्लॉगरों में दिखाई नहीं देती। हां, वे इस माध्यम को साहित्य तथा पत्रकारिता में 'योगदान' देने वाला, उसकी विविधता में हाथ बंटाने वाला माध्यम अवश्य मानते हैं। हिन्दी में इस मुद्दे पर एक अनावश्यक छटपटाहट दिखाई देती है। उदाहरण के लिए इन टिप्पणियों को देखिए-
• अत्यंत दुःख के साथ यह लिखना पड़ रहा है कि ब्लॉग पर उपलब्ध साहित्य की सुधबुध लेने वाला कोई नहीं है। इस पर उपलब्ध साहित्य को हिन्दी में कोई तवज्जो भी नहीं दी जाती है। पत्र- पत्रिकाओं में उपलब्ध साहित्य की अपेक्षा इसे उपेक्षा भाव से ही देखा जाता है। इसे हल्का-फुल्का, चलताऊ व दोयम दर्जे का मानकर इस पर कोई ध्यान नहीं दिया जाता है। ब्लॉग के साहित्य लेखक को तो कोई साहित्यकार मानने को भी तैयार ही नहीं है जबकि वह बिना किसी विवाद, गुट या विमर्श में पड़े लगातार सृजन कर रहा है।
• ब्लॉग पर अन्य विधाओं में जितनी भी रचनाएं हैं भले ही वह कम हों, पर उच्च कोटि की हैं। इन्हें किसी भी तरह से दोयम दर्जे की रचनाएं नहीं सिद्ध किया जा सकता। आवश्यकता इस बात की है कि ब्लॉग पर उपलब्ध साहित्य को भी गंभीर व विचारयोग्य साहित्य माना जाए। आलोचक, समीक्षक इन विभिन्न ब्लॉग पर उपलब्ध साहित्य पर विचार कर अपनी महत्वपूर्ण राय दें।
• अगर देखा जाए तो सभी पत्रिकाएं भी तो श्रेष्ठ साहित्य लिए हुए नहीं होती फिर ब्लॉग तो बहुत विस्तारित मंच है। आज नहीं तो कल साहित्य के पुरोधा इसे जान लेंगे। अभी शायद उन्हें कम्प्यूटर का ज्ञान नहीं है।
मुझे लगता है कि हमारे ब्लॉगर मित्र सही बिंदु को पकड़ने में चूक गए हैं। वास्तव में ब्लॉग है क्या? लॉरेल ने क्या खूब कहा है- Your blog is your unedited version of yourself. हम न जाने क्यों उसे यह या वह बना देने पर आमादा हैं। सिमोन ड्यूमेंको लिखते हैं- Blogging is just writing- writing using a particularly efficient type of publishing technology. यह तो एक माध्यम है, विविधतापूर्ण माध्यम जिसका जो चाहे, जैसे चाहे, जिस उद्देश्य के लिए चाहे इस्तेमाल कर सकता है। हिन्दी के सबसे सफल ब्लॉगों में से एक यशवंत सिंह का 'भड़ास' है जिसे आप साहित्य की श्रेणी में गिनना नहीं चाहेंगे। भारत में अंग्रेजी का सबसे सफल ब्लॉग अमित अग्रवाल का 'डिजिटल इंस्पिरेशन' माना जाता है, जो पुन: साहित्य से दूर-दूर का भी रिश्ता नहीं रखता। वे इस माध्यम का सकारात्मक दोहन करने में सफल रहे हैं, साहित्यिकता की बहस में उलझते तो शायद वे यहां तक नहीं पहुंचते।
कुछ समय पहले वरिष्ठ साहित्यकार और संपादक स्व. राजेन्द्र यादव ने कहीं टिप्पणी की थी कि ब्लॉग पर उपलब्ध साहित्य दोयम दर्जे का है। इसने ब्लॉग विश्व में उबाल ला दिया। हर टिप्पणी पर भावनात्मक प्रतिक्रिया की आवश्यकता नहीं है। ब्लॉग तो एक लोकतांत्रिक दुनिया है, जिसमें हर विचार का स्वागत होना चाहिए, उसे समझने का प्रयास होना चाहिए। जरा सोचिए, भले ही ब्लॉगिंग का एक हिस्सा साहित्यिक रचनाओं के प्रति समर्पित है, लेकिन क्या उस पर श्रेष्ठ हिन्दी साहित्य उपलब्ध है? ब्लॉग विश्व में सक्रिय साहित्यकारों की संख्या आज भी बहुत सीमित है (यहां कविता कोष, अभिव्यक्ति-अनुभूति जैसी वेबसाइटों पर प्रकाशित सामग्री को न गिना जाए क्योंकि वे 'ब्लॉग' नहीं हैं)। इस लिहाज से, ब्लॉगिंग हिन्दी साहित्य की एक छोटी-सी बानगी मात्र उपलब्ध करा सकती है। जो साहित्यकार यहां सक्रिय हैं, वे भी कौन-से अपनी सभी रचनाओं या उत्कृष्ट रचनाओं को ब्लॉग पर उपलब्ध कराते हैं? नहीं, क्योंकि इस माध्यम पर जिस तरह की 'कॉपी-पेस्ट' अराजकता व्याप्त है, वह अपनी बौद्धिक संपदा की रक्षा के साहित्यकार के अधिकार तथा चिंता में फिट नहीं बैठती। प्राय: उन्हीं रचनाओं को ब्लॉग पर उपलब्ध कराया जाता है, जो या तो पारंपरिक माध्यमों में इस्तेमाल की जा चुकी हैं, या फिर जिनके छपने की संभावना नहीं है। सिर्फ यही वे रचनाएं हैं जिन्हें 'उठा' लिए जाने और धृष्टता के साथ अपने नाम के साथ या बिना नाम किसी अन्य ब्लॉग या प्रकाशन में शामिल कर लिए जाने पर उन्हें अफसोस नहीं होगा। ब्लॉग पर सक्रिय बने रहने की आकांक्षा सबकी है, किंतु अपने साहित्यिक तथा कारोबारी सरोकारों के साथ समझौता किए बिना। परिणाम? हिन्दी का सर्वश्रेष्ठ साहित्य ब्लॉग पर नहीं आता, आती है तो बस उसकी छोटी-सी बानगी। बाकी साहित्य आज भी किताबों और पत्रिकाओं तक सीमित है और काफी समय तक रहने वाला है।
माध्यम और भी हैं : पत्रकारिता को देखिए। उसका इतिहास कई सौ साल पुराना है। पत्र-पत्रिकाओं में भी साहित्यिक सामग्री- कहानी, कविता, उपन्यास अंश, समीक्षा, व्यंग्य, साक्षात्कार, निबंध आदि- बहुतायत से प्रकाशित होती है किंतु पत्रकारिता की मूल प्रकृति साहित्य नहीं है। कहा भी गया है कि यह जल्दी में लिखा गया साहित्य है। पत्रकारिता को 'साहित्य' का दर्जा कभी नहीं मिला और न ही कभी मिलने की संभावना है। किंतु पत्रकारिता वह दर्जा पाने के लिए बेचैन भी नहीं है, न ही ऐसा दर्जा न मिलने पर व्यथित या निराश है। वह ऐसा दावा ही नहीं करती। तब ब्लॉगिंग स्वयं के 'साहित्य' होने या न होने को लेकर इतनी उत्कट क्यों हो? वह क्यों अपनी निजी, अद्वितीय पहचान खोकर दूसरी पहचान ओढ़ लेने को आतुर है जिसकी कोई आवश्यकता ही नहीं है? ब्लॉगिंग साहित्य नहीं है और न ही उसे 'साहित्य' कहलाने की जरूरत है, क्योंकि ब्लॉगिंग अपने आप में कोई कमजोर या महत्वहीन चीज नहीं है। वह हमारी सामूहिक अभिव्यक्ति, सामाजिकता, घटनाओं, संवेदनाओं और रचनाओं का वैश्विक समुच्चय है। साहित्य के पास यह सब कहां? लेकिन जो साहित्य के पास है, वह ब्लॉगिंग के पास नहीं है।
ब्लॉगिंग को साहित्य बनने की जरूरत भी नहीं है। अगर वह 'साहित्य' में घुसी तो एक 'अनवांटेड मेहमान' से ज्यादा कुछ नहीं बन पाएगी, क्योंकि साहित्य की दुनिया तो पहले ही खेमेबंदियों, विवादों, गुरु-शिष्य परंपराओं, ईगो-क्लेशेज और किस्म-किस्म की अनिर्धारित बहसों जैसे विभाजनों में बंटी हुई है। उस कोलाहल को कुछ और बढ़ाने की आवश्यकता ही क्या है! ब्लॉग को ब्लॉग ही रहने दो कोई नाम न दो!
हम ब्लॉगर अपने इस माध्यम का भरपूर इस्तेमाल हिन्दी की समग्र संपदा के विकास और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के लिए करें, यही क्या कम है? अपने दैनिक जीवन से एक मिसाल देखिए- विज्ञान में गेहूं को घास की श्रेणी में गिना जाता है। रोजेट के मशहूर थिसॉरस में वह घास की सूची में ही आता है। उसका वैज्ञानिक आधार है। अब गेहूं उत्पादक इस बात को लेकर भिड़ जाएं कि हमें अनाज की श्रेणी में क्यों नहीं डाला गया, तो वह अनावश्यक है। बेहतर हो कि वे इस बात को लेकर अधिक चिंतित तथा उत्सुक हों कि गेहूं का उत्पादन कैसे बढ़े, उसकी गुणवत्ता में कैसे सुधार हो या दूसरे इलाकों में गेहूं को लेकर किस-किस तरह के प्रयोग हो रहे हैं। हम ब्लॉगर भी कुछ-कुछ इसी तरह से क्यों नहीं सोचते? हिन्दी ब्लॉगिंग में यह आम प्रवृत्ति है कि हम उसे बढ़ा-चढ़ाकर देखते तथा पेश करते हैं। उसकी मौजूदा दशा को लेकर प्रमुदित हैं।