न्यूज चैनलों का 'धर्म'

-मीडियामैन

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साईं बड़े या शंकराचार्य। आस्था बड़ी या शास्त्र। भक्त बड़े या गुरु। कई सवाल आजकल न्यूज चैनलों, खासकर हिंदी, पर जमकर बहसों के जरिए पूछे जा रहे हैं। बड़ा सवाल ये है कि चैनल को धर्म के विवाद इतने प्यारे क्यों हैं। क्या दर्शक उनसे एसएमएस करके, पत्र लिखकर या मिलकर आग्रह करते हैं कि धर्म पर कुछ करते रहा करिए। तभी तो महीने दो महीने में हिंदी न्यूज चैनलों को कोई न कोई मुद्दा इतना भा जाता है कि वे हफ्ते-हफ्ते भर इस पर जोरशोर से बहस करते रहते हैं। जनता कितना देखती है, ये उन्हें चिंता भी नहीं है।

धर्म एक निंतात निजी विषय है, सेक्स की तरह। धर्म की बुनियाद समाज को नैतिक आधार देने और लोगों को सही रास्ते पर मानव कल्याण के लिए प्रेरित करने से ज्यादा जुड़ी है। शायद इसी आस्था से पत्रकारिता को भी देखा जाता है कि वो समाज में नैतिकता, सत्य और हक की लड़ाई में सबके साथ रहेगा। लेकिन धर्म की बात आते ही चैनल अतिरेकी हो जाते हैं। वे कभी तार्किकता के तराजू पर संत और आस्था को तौलते दिखते है, तो कभी परंपरा की दुहाई देते नजर आते है। बीते सालों में धर्म के ईर्द-गिर्द बहुत कुछ ऐसा हुआ है जिसे व्यावसायीकरण की तरह देखा जा सकता है। टीवी चैनलों पर दिन भर प्रवचन, सत्संग, धार्मिक आयोजन देखे जा सकते हैं, क्या इससे लोगों में धर्म को लेकर अभिरुचि जगी है। शोध का विषय हो सकता है।

न्यूज चैनलों की सुविधा में बहस करना सबसे सरल काम है। धर्म विषय की महत्ता केवल इससे समझी जा सकती है कि अनाथालयों, अस्पतालों और गरीबों के लिए रहवासों से ज्यादा मंदिर किसी भी शहर में हो सकते हैं और यहां फरियादों की फेहरिस्त गिनने लगा जाए तो विश्व की जनसंख्या कम पड़ जाएगी। टीवी पर समाचार देखने वालों को हर दिन की बोरियत से निजात देने के लिए धर्म की बातें और बहसें काफी अच्छा आइडिया हैं, लेकिन इससे धर्म का कहीं से भी भला होता नहीं दिखता।

न्यूज चैनल चलाना एक खर्चीला काम है, और इसके लिए आपको प्रचार की जरूरत होती है, प्रचार वही चैनल पाते हैं, जिनकी टीआरपी या ब्रांड वैल्यू होती है। दर्शकों की संख्या को कई तकनीकों और गणितों से बताने वाली टीआरपी की रेटिंग अब किसी न्यूज चैनल के लिए प्रचार पाने का पहला माध्यम है। जानकार लोग बताते हैं कि विजुअल वैल्यू ही परम सत्य है और इसी को ब्रह्मवाक्य मानकर हर तरह के चौंकाने वाले वीडियो चलाने में आज भी चैनल आगे रहते हैं। धर्म के जुड़े विजुअल्स में निजी आस्था के कारण फैविकोल का गुण होता है। इसी कारण धर्म की बहसों में बाबाओं को देखना और देखते रहना लाखों दर्शकों के लिए आस्था का विषय माना जा सकता है।

न्यूज चैनलों की धर्म मुद्दों पर तहकीकात सतही ही रहती है। वे पक्ष और विपक्ष में ही दर्शकों को फँसाकर रखना चाहते हैं। और रोचक ये कि जो संत रोजाना आपको टीवी चैनलों पर दिखते हैं वो कौन हैं, ये पता करना बड़ा मुश्किल है। जिन नामी संतों को देश जानता है, वे अमूमन धर्म के उठे विवादों से दूर ही रहते हैं। दिल्ली के न्यूज चैनलों को स्टूडियो में सजाने के लिए बाबाओं की जरूरत होती है और दिल्ली में जो संत मौजूद हैं, उनका धार्मिक वजूद जलकुंभी जैसा ही है। पर भगवा पहने शख्स की बात को धर्म की बात मान लिया जाता है।

धर्म बहस से ज्यादा समझने की चीज है। टीवी को समझाने में ज्यादा वक्त देना चाहिए। किसी बहस का कोई सिला आज तक निकला नहीं है। न ही किसी बहस से दो पक्षों को शांत किया जा सकता है। टीवी पर दिखना और दिखाया जाना दोनों ही दर्शक की क्षुधा पूरी करने के लिए पर्याप्त नहीं है। रही बात बाबाओं की, तो वे बहस में पड़ते तो रहते हैं, लेकिन धर्म की जरूरतों को भूलकर।

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