पेड न्यूज पत्रकारिता का कलंक है- राजेश बादल

वर्तिका नंदा
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पत्रकारिता के क्षेत्र में राजेश बादल किसी परिचय के मोहताज नहीं हैं। वे मानते हैं कि पेड न्यूज पत्रकारिता का कलंक है। बादल ने अपनी पत्रकारिता यात्रा से लेकर मूल्य आधारित पत्रकारिता से जुड़े प्रश्नों के खुलकर जवाब दिए। प्रस्तुत हैं राजेश बादल से बातचीत के मुख्य अंश...

प्रश्न : पत्रकारिता की आपकी यात्रा में सबसे यादगार पल कौन से रहे हैं। बतौर पत्रकार आज आप खुद को किस मुकाम पर पाते हैं?

उत्तर : यादगार पल तो हमेशा ही यादों में बसे होते हैं और अपनी नजर में तो मेरे पत्रकारिता जीवन के पूरे छत्तीस साल यादगार हैं। इस दौरान हिन्दी पत्रकारिता ने अपना स्वर्णकाल देखा है, लेकिन अगर आपका आशय मेरे पत्रकारिता जीवन के महत्वपूर्ण दौर से है, तो एकदम तुरंत मुझे उन्नीस सौ उन्यासी-अस्सी याद आता है। चार-पांच साल पत्रकारिता करते हो गए थे। नौजवान थे। उन दिनों एक घटना घटी। एक पुलिस अधिकारी पर गांव की एक लड़की से बलात्कार का आरोप लगा। विरोध में जुलूस निकला। प्रदर्शन के दौरान पुलिस को गोलियां चलानी पड़ीं। कुछ लोग मरे और कुछ घायल हुए।

मजिस्ट्रेटी जांच हुई। जांच रिपोर्ट गोपनीय थी। प्रशासन उसे दबाना चाहता था, क्योंकि उसमें पुलिस की ग़लती पाई गई थी। रिपोर्ट हम लोगों के हाथ लग गई। हम तीन-चार नौजवान पत्रकारों का एक समूह था, जो उस छोटे से ज़िले में हर ग़लत बात का विरोध करता था इसलिए हम लोग हमेशा प्रशासन के निशाने पर रहते थे। हमारे एक साथी शिव अनुराग ने वह रिपोर्ट एक स्थानीय अखब़ार शुभ भारत में छाप दी। इसके बाद तो प्रशासन ने हम सारे पत्रकारों का घर से निकलना मुश्किल कर दिया।

परिवार के लोगों को धमकियां, कलेक्टर की जान से मारने की धमकी मिली। प्रसंग के तौर पर बताना ज़रूरी है कि हमारा बुन्देलखंड इलाक़ा उन दिनों डाकू समस्या से जूझ रहा था। डाकुओं से पत्रकारों और प्रशासन के संपर्क होते थे। जंगलों में आए दिन डाकुओं और ख़तरनाक मुज़रिमों से मुलाक़ातें आम थीं इसलिए कलेक्टर ने मुकदमे वापस लेने का लालच देकर कुछ फरार डाकुओं को हमारे पीछे लगा दिया था। हमारा शहर में रहना असंभव-सा हो गया तो हम करीब एक दर्ज़न पत्रकार सारी जमा-पूंजी लेकर भोपाल भागे। वहां धरना दिया।

विधानसभा में छह-सात घंटे धुआंधार बहस हुई। आखिरकार सरकार ने मामले की ज्यूडीशियल इन्क्वायरी का ऐलान किया। भारत में आज़ादी के बाद यह पहला मामला था जिसमें पत्रकारों के उत्पीड़न पर न्यायिक जांच आयोग बनाया गया था। हम लोगों ने पूरी ताक़त से ये लड़ाई लड़ी और जीते। यही नहीं, प्रेस कौंसिल ने भी अपनी ओर से जांच कराई। जांच दल वहां गया और प्रेस कौंसिल ने भी हमारे पक्ष में फैसला सुनाया। आप यक़ीन नहीं करेंगी- आयोग की सुनवाई में हम लोग अपनी सुरक्षा के लिए निजी सुरक्षाकर्मी किराए पर लेकर जाते थे, क्योंकि प्रशासन हमें और हमारे गवाहों को धमका रहा था।

देश की आज़ादी के बाद पत्रकारों से संबंधित अब तक इस तरह का दूसरा मामला सामने नहीं आया कि एक ही मामले की जांच दो अर्ध न्यायिक संस्थाओं ने की हो। अफ़सोस कि इसके बाद भी सरकार ने कलेक्टर के खिलाफ कोई कड़ी कार्रवाई नहीं की। हां... इस मामले में देश के बड़े पत्रकारों और संपादकों ने बड़ी मदद की। इस कांड पर मेरी रिपोर्टिंग रविवार, नईदुनिया और देश के तमाम अखबारों में छपी। दोनों के संपादकों- एसपी सिंह और राजेन्द्र माथुर ने हमारी भरपूर सहायता की। दरअसल यही मामला था, जिसने मेरी पत्रकारिता का एक नया अध्याय लिखा। मुझे दोनों संस्थानों से ऑफर मिले। मैंने नईदुनिया में सह-संपादक के पद पर काम शुरू कर दिया।

दूसरी घटना उन्नीस सौ इक्यानवे की है। मैं नईदुनिया, भोपाल में विशेष संवाददाता/ समाचार संपादक था। मेरे एक मित्र थे- जाने-माने मजदूर नेता- शंकर गुहा नियोगी। उनकी हत्या सितंबर के आख़िरी हफ्ते मैं हुई। मैंने अखबार के पहले पन्ने पर मय सबूतों के रिपोर्ट छापी। रिपोर्ट में कहा गया था कि हत्या के पीछे पूंजीपतियों का हाथ था। छपने के बाद पूंजीपतियों ने मुझे लालच दिया कि मैं खंडन छापूं। जब वे कामयाब नहीं हुए तो फिर मुझे धमकियां मिलीं।

दाल नहीं गली तो उन्होंने अखबार के संपादक को खरीद लिया। इसके बाद संपादक मेरे पीछे पड़ गए। उन्होंने कहा कि मैंने गलत रिपोर्ट छापी है इसलिए खंडन छापूं और माफी भी मांगूं। मैंने मना कर दिया तो आए दिन परेशान किया जाने लगा। मैंने माफी नहीं मांगी और इस्तीफ़ा देना बेहतर समझा। बाद में संपादक ने पूंजीपतियों के पक्ष में खबरें प्रकाशित कीं, लेकिन कई बरस बाद जब कोर्ट से इस मामले का फैसला हुआ तो मेरी बात सही साबित हुई।

मैं सड़क पर था और हालत यह थी कि मैं अपने फोन का पांच-छह सौ रुपए का बिल न भर सका। कनेक्शन काट दिया गया। मैंने किस तरह वो दौर काटा, आज भी याद करके कांप जाता हूं। तब एक बार फिर मेरा टेलीविजन का अनुभव काम आया। दरअसल, मैं जयपुर में नवभारत टाइम्स में 1985 से 1991 तक पहले वरिष्ठ उपसंपादक और फिर मुख्य उपसंपादक के तौर पर काम कर चुका था। जिस टीम ने नवभारत टाइम्स शुरू किया था, मैं उस टीम का एक प्रमुख हिस्सा था। इसी दौरान जयपुर में दूरदर्शन का नया केंद्र शुरू हुआ।

उन दिनों देश में टेलीविजन पत्रकार होते ही कहां थे? प्रिंट मीडिया से जुड़े लोग ही इस नए माध्यम के साथ काम करते थे। मैं पहले कई साल रेडियो के साथ भी काम कर चुका था इसलिए आवाज़ के उतार-चढ़ाव, उच्चारण और रेडियो की भाषा की बुनियादी समझ थी। इस कारण टेलीविजन पत्रकारिता में मेरी पारी उन्नीस सौ सत्तासी या अठासी में शुरू हो चुकी थी। जयपुर दूरदर्शन के शुरुआती समाचार प्रस्तुतकर्ताओं की टीम का मैं सदस्य था। बड़ी खुशी होती है, जब जयपुर जाता हूं तो लोग आज भी मुझे पहचान लेते हैं और मेरे काम को याद करते हैं।

बहरहाल... मैं बता रहा था कि मैं बेरोज़गार था और तब मैंने किसी तरह पाई-पाई जोड़कर अपनी फर्म बनाई, जो सिर्फ टेलीविजन के समाचार और सम-सामयिक कार्यक्रमों के लिए काम करती थी। ज़ल्द ही यह काफी लोकप्रिय हो गई। अनेक राज्यों से हम लोग टेलीविजन समाचारों का काम करने लगे। अपनी कैमरा यूनिटें भी खरीद लीं। भोपाल दूरदर्शन का पहला समाचार बुलेटिन मैंने ही पढ़ा था। संघर्षभरी यह पूरी पारी यादों में, सांसों में बसी है।

तीसरी घटना रेडियो से जुड़ी है। उन दिनों रेडियो में काम करने वाले एक स्टार से कम नहीं होते थे। दूरदर्शन नहीं था। जैसे ही गाड़ी गांव या क़स्बे में रुकती, रेडियो के लोग अपना रिकॉर्डर लेकर उतरते, लोगों से बात करते और लोग आवाज़ सुनकर समझ जाते कि सामने वाला कौन है। तुरंत ऑटोग्राफ लेने वालों की भीड़ लग जाती। लोग और नौजवान हम रेडियो के लोगों को हाथ से छूना चाहते थे। मैंने आकाशवाणी के साथ पहले कार्यक्रमों में हिस्सा लेना शुरू किया। यह उन्नीस सौ छियत्तर की बात है।

उसके बाद युववाणी में कम्पीयर के तौर पर काम किया, फिर उद्घोषक, ड्रामा आर्टिस्ट, संगीत रूपक प्रस्तुतकर्ता जैसे काम भी किए। हमारे इलाक़े में 'स' और 'श' का कोई अंतर नहीं होता था न ही उर्दू के शब्दों में नुक्ता लगाने की समझ थी। हमारे केंद्र पर एक कार्यक्रम अधिकारी थी- मीनाक्षी मिश्रा। उन्होंने जब एक ड्रामे में मेरा डायलॉग सुना कि मैं ज़ंजीर को जंजीर बोल रहा था। बस उस दिन से मेरी क्लास शुरू हो गई। एक निपट देहाती राजेश बादल जो खड़ी हिन्दी न बोल पाता था वो छह महीने में हिन्दी और उर्दू के शब्दों का सही उच्चारण करने लगा था। अफ़सोस... मीनाक्षी मिश्रा अब इस दुनिया में नहीं हैं। उन्हें मेरा नमन... तो मैं बता रहा था कि मुझ पर रेडियो का भूत सवार था। जब राजेन्द्र माथुरजी ने मुझे नईदुनिया में सह-संपादक के पद पर काम करने का प्रस्ताव किया तो मैंने हां कर दी और इंदौर में ज्वॉइन कर लिया। मगर मेरे सपनों में रेडियो का कामकाज आता रहा। मैं सदमे में रहा और कई महीने तक काग़ज़ पर फेडर ऑपरेशन तथा टर्न टेबल और स्पूल प्लेयर का नक्शा बनाकर याद रखने की कोशिश करता रहा। हमेशा डर लगा रहता था कि कहीं फेडर ऑपरेशन भूल न जाऊं।

टेलीविजन में इस साल मुझे पच्चीस साल हो गए। टेलीविजन के सफ़र की अनगिनत यादें हैं, जो कभी न भूलने वाली हैं। एक के बाद एक सुनाना शुरू करूंगा तो शायद खत्म होने का नाम ही न लें इसलिए आपके सवाल के अगले हिस्से पर। बतौर पत्रकार मैं छत्तीस बरस पूरे कर चुका हूं। जब करियर शुरू किया था तो कॉलेज में पढ़ता था। कहीं न कहीं सामाजिक सरोकारों, राजनीतिक मूल्यों और राष्ट्रीय हितों को लेकर संवेदनशीलता अपने अंदर महसूस करता था और अपनी बात अपने ढंग से संप्रेषित करना चाहता था। शायद नियति ने मेरी दिशा इसी वजह से माध्यमों के साथ जोड़ दी। थिएटर भी अपनी बात सैकड़ों लोगों तक पहुंचाने का ज़रिया था, पढ़ाई के दरम्यान ही रेडियो से जुड़ गया। यह हजारों लोगों तक अपनी बात कहने का उपकरण था।

पढ़ाई के बाद कॉलेज में ही थोड़े समय के लिए अध्यापन का अवसर मिला- संप्रेषण का एक और अवसर। इसके बाद नईदुनिया और नवभारत टाइम्स जैसे समाचार पत्रों ने फिर लाखों लोगों के सामने अपना सोच-विचार रखने का अवसर दिया। वेब और टेलीविजन से करोड़ों दिलों तक जगह बनाने का मौका मिला। कहने का अर्थ यह कि नियति ने मुझे सिर्फ माध्यम से जुड़ने का अवसर दिया। अवसर देने की बात मैं इसलिए कह रहा हूं कि कहीं भी मैंने आवेदन नहीं किया। हर संस्थान से मुझे प्रस्ताव मिला। हां, राज्यसभा टेलीविजन अपवाद है। दूसरी ओर परिवार या तात्कालिक मानसिकता के चलते जहां भी मैंने आवेदन किया, वहां चुनाव नहीं हुआ। इसीलिए मैं कह रहा हूं कि क़ुदरत ने, ईश्वर ने या भाग्य ने मेरे जीवन की दिशा तय की। मैं तो सिर्फ मिले अवसरों को एन्जॉय करते हुए आगे बढ़ता रहा। आज भी कर रहा हूं। आगे भी करता रहूंगा। आनंद के झरने को आप मुक़ाम या मंज़िल जैसे शब्दों में बांध नहीं सकते।

अगले पन्ने पर जार ी..

प्रश्न : अक्सर लोग मीडिया के किसी एक ही क्षेत्र में महारत हासिल करना उचित मानते है, लेकिन आपने इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के साथ-साथ प्रिंट, वेब, प्रसारण, थिएटर, प्रकाशन, इन अलग-अलग क्षेत्रों में काम करने के लिए कैसे सोचा?

उत्तर : मेरा ख़्याल है पहले उत्तर में इस प्रश्न का उत्तर आ चुका है। फिर भी मैं यही कहूंगा कि आज मीडिया का हर हिस्सा अपने आप में अलग इंडस्ट्री बन गया है। यानी अगर आप प्रिंट में जाना चाहते हैं तो उसके लिए अलग पाठ्यक्रम है, डिग्री है, टेलीविजन में जाना चाहते हैं तो उसके लिए अलग और रेडियो के लिए अलग। हमारे समय में ऐसा नहीं था। अव्वल तो टेलीविजन था ही नहीं और प्रिंट में इसे रोज़गार का जरिया नहीं मानते थे। जो मुझे पत्रकारिता में लाए, वो काकोरी केस के स्वतंत्रता सेनानी थे- राम सेवक रावत। वो कहते थे- पत्रकारिता में पैसे की बात मत करो। तो मेरे लिए तो पत्रकारिता का अर्थ सिर्फ रोज़गार आज भी नहीं है।

प्रश्न : ऐसा माना जाता है कि आप सामाजिक सरोकारों और मूल्यों को लेकर बेहद गंभीर हैं, लेकिन देखा जाए तो आज के दौर में शायद ऐसा कोई पत्रकार नहीं है जिस पर जनता को पूरा भरोसा हो, इसके क्या कारण है?

उत्तर : जनता को भरोसा कैसे हो जब हम प्रोडक्ट निकाल रहे हैं- प्रोडक्ट बिकता है, जिसे लोग पैसा देकर खरीदते हैं और जिसकी मार्क़ेटिंग की जाती है। एक प्रोडक्ट पर लोग उतना ही भरोसा करते हैं। लेकिन मेरा ख्याल है कि जिस भरोसे की बात आप कर रही हैं, वह तब पैदा होता है जब अवाम को लगता है कि पत्रकार उसके दिल की बात करता है, उसके हित की बात करता है, उसके लिए व्यवस्था से लड़ता है और उस लड़ाई के वक़्त वो अपनी नौकरी, पैकेज या पद की चिंता नहीं करता।

प्रश्न : जिस समय आपने पत्रकारिता की शुरुआत की, उस समय से लेकर आज तक आपने पत्रकारिता के मूल्यों में क्या-क्या बदलाव देखे हैं?

उत्तर : जब मैंने पत्रकारिता की शुरुआत की, वो भारत की पत्रकारिता का एक नाज़ुक दौर था। कह सकती हैं कि संक्रमण काल था। साख़ वाले पत्रकार-संपादक कम होते जा रहे थे, राजनेता कम होते जा रहे थे, ज़िम्मेदार अफ़सरशाही अपना नमूना पेश नहीं कर रही थी। आधुनिक तकनीक आ रही थी। बाज़ार पत्रकारिता पर हावी होने लगा था। इसी दौरान अस्सी से नब्बे के दशक में राजेन्द्र माथुर और एसपी सिंह जैसे महान पत्रकारों ने संपादकीय रीढ़ के साथ पत्रकारिता के मूल्यों की रक्षा करते हुए काम किया। आज़ादी के बाद भारतीय हिन्दी पत्रकारिता ने इन्हीं दो शानदार पत्रकारों की बदौलत अपना स्वर्णकाल देखा। अफ़सोस दोनों ही असमय हमसे बिछड़ गए। उनके बाद धीरे-धीरे पत्रकारिता एक अंधी सुरंग में चली गई। इसके बाहर निकलने का आज भी इंतज़ार है। हो सकता है- कुछ लोग इससे असहमत हों, पर ये मेरी अपनी राय है और मैंने इन दोनों बड़े संपादकों के साथ बरसों तक काम किया है- तीन दशकों में पत्रकारिता के सारे उतार-चढ़ाव देखे हैं इसलिए अपनी बात को विश्वास के साथ कह सकता हूं। आज तो पत्रकारिता के मूल्यों की बात करने और उनके साथ काम करने वाले हैं ही कितने लोग?

प्रश्न : कई ऐसे मौके आते हैं, जब सामने लोग मर रहे होते हैं लेकिन पत्रकार को मसाला चाहिए इसलिए वे अपने कैमरे घुमाने में लगे रहते हैं, ऐसे में पत्रकारिता और सरोकार एक-दूसरे के दुश्मन बन जाते हैं, तो फिर सरोकार करने वाला पत्रकार कैसे बन सकता है?

उत्तर : मैं आपसे सहमत हूं। मेरा साफ मानना है कि बिना सरोकारों के पत्रकारिता नहीं हो सकती। वह तो धंधा है। जिन्हें पत्रकारिता को धंधे की तरह लेना है वो इसमें न ही आएं तो बेहतर।

प्रश्न : आपने इतने लंबे करियर में बड़े गंभीर कामों को अंजाम दिया है, काफी लड़ाइयां लड़ी हैं, संभव हो तो किसी एक घटना का वर्णन करें?

उत्तर : जैसा कि मैंने आपसे अभी बताया कि मुझे पत्रकारिता में लाने वाले काकोरी केस से जुड़े एक स्वतंत्रता सेनानी रामसेवक रावत थे, जो कहते थे कि पत्रकारिता आज़ादी के बाद भी मिशन है। मैं तब उनसे पूरी विनम्रता से आंशिक तौर पर असहमत होते हुए अपनी बात रखता था। मैं कहता था, पत्रकारिता के सरोकारों और सेवा भाव से मैं इंकार नहीं करता, लेकिन अगर अखबार के मालिक अखबार को कमाई का ज़रिया बना रहे हैं, उसकी आड़ में अपने धंधे चला रहे हैं, अनाप-शनाप कमाई कर रहे हैं और पत्रकारों का शोषण कर रहे हैं तो इसकी आवाज़ क्यों नहीं उठाना चाहिए? पत्रकार समाज के तमाम वर्गों के शोषण के खिलाफ आवाज़ उठाता है और अपने शोषण पर चुप्पी साध लेता है तो यह अनुचित है। मुझे खुशी है कि मेरी इस बात से रावतजी सहमत हो गए थे। इसके बाद जब मैं उन्नीस सौ इक्यानवे में एक प्रतिष्ठित समाचार पत्र में विशेष संवाददाता/ समाचार संपादक था तो वहां पत्रकारों को नियुक्ति पत्र नहीं मिलता था। जब मैंने वहां काम शुरू किया तो इसका पता चला।

मैंने इसके विरोध में आवाज़ उठाई और मैनेजमेंट की आंख की किरकिरी बन गया। मैं आवाज़ उठाता रहा। इसी साक्षात्कार में मैंने अपने इस्तीफे का ज़िक्र किया है। इस्तीफे के बाद मैंने कर्मचारियों को एकजुट किया और श्रमजीवी पत्रकार संघ की मदद से आंदोलन छेड़ा। एक दिन के लिए अखबार बंद रखने और हड़ताल का ऐलान किया। मैनेजमेंट ने दमन चक्र चलाया, पुलिस बुलाई और बाहर से कर्मचारियों को लाकर चुपचाप अखबार निकालने की तैयारी शुरू कर दी। इससे हमारे साथी भड़क गए और तब अनिश्चितकाल के लिए अखबार बंद रखने का ऐलान किया गया। सबके सहयोग से आंदोलन क़ामयाब रहा और जब तक हम लोगों ने नहीं चाहा तब तक अखबार नहीं निकला।

मैनेजमेंट की कमर टूट गई और अखबार मालिक राज्य सरकार की शरण में गए। चीफ सेक्रेटरी थीं श्रीमती निर्मला बुच। उन्होंने भी समझौता वार्ता में हम लोगों का पक्ष लिया और पत्रकारों- गैर पत्रकारों को नियुक्ति पत्र देने और अन्य सुविधाएं देने पर ज़ोर डाला। हारकर मैनेजमेंट ने वही किया, जो हम लोगों ने अपने अधिकारों के लिए चाहा। तब कहीं अखबार का प्रकाशन शुरू हो पाया। मुझे खेद है कि आज के पत्रकार और पत्रकार संगठन बुनियादी सुविधाओं को लेकर उतने संवेदनशील नहीं हैं। आज भी यह लड़ाई मेरे जीवन की संघर्ष गाथा में खास अहमियत रखती है।

प्रश्न : पेड न्यूज का जो दौर चला है इससे मीडिया की साख गिर चुकी है। पत्रकार मालिक को, मालिक पत्रकार को दोषी ठहरा रहे है, तो क्या इसके खिलाफ संपादकों और मालिकों का एकजुट विरोधी अभियान छेड़ना संभव है?

उत्तर : पेड न्यूज पत्रकारिता का कलंक है। दुर्भाग्य यह है कि एक-दूसरे को दोषी ठहराने वाले अंदर से इसका ख़ात्मा नहीं चाहते। मालिक को ज्यादा पैसा मिलता है और उसमें से वो पत्रकार को वेतन के अलावा कमीशन देता है, तो दोनों को फायदा होता है। कोई इसका बंद होना चाहेगा क्यों? और अगर चाह लें तो क्या नहीं हो सकता- दुष्यंत के शब्दों में : कौन कहता है कि आसमान में सुराख हो नहीं सकता/ एक पत्थर तो तबीयत से उछालो यारो। लेकिन मैं जानता हूं कि बाज़ार के दबाव और रीढ़विहीन पत्रकारों के कारण यह बीमारी आसानी से नहीं खत्म होगी चाहे सरकार कुछ भी कर ले।

प्रश्न : पाकिस्तान में सरबजीत पर हमला और भारत में सनाउल्लाह रंजय पर हमले की घटना को जिस तरह मीडिया दिखा रहा है, क्या यह मानवता के लिए खतरा नहीं है?

उत्तर : यह मानवता पर ख़तरे का प्रश्न नहीं है। अव्वल तो इस तरह के हमले होने ही नहीं चाहिए। सरकारों को और ज़िम्मेदार तथा संवेदनशील होना चाहिए। खेद है कि भारत और पाकिस्तान में ही नहीं, दुनिया के अनेक देशों में इस तरह की प्रवृत्ति बढ़ रही है। मीडिया की गाड़ी तो पटरी से पहले ही उतरी हुई है। हम लगातार अज्ञान और अधकचरे सोच से अपनी साख़ गिराते जा रहे हैं।

प्रश्न : सुप्रीम कोर्ट ने जिस तरह सीबीआई को 'सरकार का तोता' करार दिया है इससे पहले भी यह मुद्दा उठता रहा है लेकिन मीडिया ने कभी इस पर ध्यान नहीं दिया, इसके क्या कारण है?

उत्तर : पहले भी मीडिया में यह उठता रहा है। अब लोकसभा चुनाव के लिए आख़िरी साल चल रहा है इसलिए हर घटना और टिप्पणी को मुद्दा बनाया जा रहा है। दस-बारह साल पहले टेलीविजन पत्रकारिता इतनी विकसित नहीं थी। अब चैनलों को आपसी होड़ में कुछ न कुछ नया करने का जुनून है तो मुद्दा हो या न हो, मीडिया तो बना ही देता है। मुझे याद है पिछले पच्चीस-तीस बरस में कई बार सुप्रीम कोर्ट ने तल्ख़ टिप्पणियां की हैं। हमारे लोकतंत्र की यही ख़ास बात है कि प्रमुख स्तंभों ने अपनी एक संतुलन रेखा और ज़िम्मेदारी वाला भाव विकसित किया है, जो अपनी लक्ष्मण रेखा पार नहीं करता। ज़रा दूसरे मुल्कों की तरफ भी देखिए। दूर न जाना चाहें तो पड़ोसियों की तरफ ही देख लें- नेपाल, बांग्लादेश, पाकिस्तान और श्रीलंका का इतिहास भी तो सामने है।

प्रश्न : जिस तरह के सरोकार के लिए आपने नौकरी भी बलिदान कर दी थी, क्या आज आप ऐसे सरोकार करने में समर्थ हैं?

उत्तर : इसमें समर्थ या असमर्थ होने जैसा कोई सवाल ही नहीं है। मैंने इसे कभी सिर्फ रोज़गार का ज़रिया नहीं माना। सरोकारों के बिना मेरा क्या अस्तित्व है। मैं दावे के साथ कह सकता हूं कि पत्रकारिता को जितना मैंने एन्जॉय किया है, शायद ही किसी ने किया होगा। मैंने हर पल को शानदार ढंग से जिया है। हां, अब तकलीफ़ होती है कि नई पीढ़ी इस आनंद से वंचित है। पर इसमें कोई कुछ कर भी नहीं सकता, क्योंकि नए लोग इस प्रोफेशन में ग्लैमर या सिर्फ रोज़गार के कारण आ रहे हैं। उनका मकसद पत्रकारिता को जीना नहीं है।

मैं आज भी अपने आपको मारकर नौकरी नहीं कर सकता। मेरे दो सिद्धांत हैं कि सिर्फ पेट भरने के लिए जीने का कोई मतलब नहीं है। जियो वैसे, जैसे जीना चाहते हो। ऊपर वाला आपके मुताबिक़ चलेगा। दूसरा यह कि मारने वाले से बचाने वाला हमेशा बड़ा होता है तो जब कोई आपको नुकसान पहुंचाना चाहता है तो उसकी भरपाई का उपकरण पहले ही तैयार हो जाता है। इसलिए चिंता किस बात की। मैंने अभी आपको बताया कि मैंने अब तक जहां भी काम किया, एक जगह को छोड़कर कहीं भी मुझे आवेदन नहीं करना पड़ा।

प्रश्न : राज्यपाल महोदय से लेकर कविता को लेकर नए प्रयोग तक की जो शुरुआत आपने राज्यसभा टीवी पर की है, उसके नतीजे कैसे रहे?

उत्तर : अदभुत। मैंने सपने में भी कल्पना नहीं की थी कि ये शो इतने लोकप्रिय हो जाएंगे। जो फीडबैक मिल रहा है, उससे अभिभूत हूं। दरअसल, तीस-बत्तीस बरस की पत्रकारिता के बाद मैंने सोचा कि उमर और टेलीविजन की ज़रूरतों को देखते हुए अब मुझे परदे के पीछे की भूमिका निभानी चाहिए। अब यह मौका मिला तो इसे भी एन्जॉय कर रहा हूं।

उनकी नज़र उनका शहर के बहाने देश के उन महान लोगों की ज़िन्दगी और काम एक नए अंदाज़ में सामने आ रहा है। लोग एक घंटे का शो अगर बिना पलक झपकाए देखें तो इसे आप क्या कहेंगी? आज किसे फ़ुर्सत है कि अपने पूर्वज लेखक, कवि या शायर की एक-एक किताब पढ़े। अगर एक घंटे के शो में उसे हर ज़रूरी जानकारी मिल रही है तो इससे अच्छा और क्या हो सकता है? यू-टयूब पर जाइए। आप पाएंगी- एक-एक शो के हज़ारों हिट हैं। जब शो आता है तो उसके बाद घंटों तक फ़ोन कॉल्स की झड़ी लगी रहती है।

इतना ही नहीं, वो शो जितनी बार भी रिपीट होता है, उतनी बार ऐसा ही होता है। कई बार मुझे लगता है कि कॉल करने वाले का गला रुंधा हुआ है और आवाज़ भीगी हुई है। भारत की टीवी पत्रकारिता में शायद ही कभी ऐसा हुआ हो। इसी तरह राज्यपालों वाले शो का हाल है। वास्तव में मीडिया ने कभी हमारे राज्यपालों को लेकर गंभीर रवैया नहीं अपनाया। अब जब दर्शकों को महामहिम राज्यपाल देखने को मिल रहा है तो उनकी प्यास बुझ रही है।

प्रश्न : आने वाले समय की पत्रकारिता कैसी होगी और कैसी होनी चाहिए?

उत्तर : मैं आशावान हूं। बाज़ार और तकनीक दोनों हमारे बनाए हुए हैं इसलिए इनके दबाव से मुक्ति का रास्ता भी हम खोज ही लेंगे। सवाल वक़्त का है। मूल्यों और सरोकार वाली पत्रकारिता होती है। मैं और कोई पत्रकारिता मानता ही नहीं। हमारे सोच की खिड़कियां खुली हैं। गुलाम नहीं हैं इसलिए आगे ही जाएंगे। वक़्त ने कुछ समय के लिए एक अंधेरी सुरंग में धकेला है, मगर सुरंग का दूसरा सिरा भी मिलेगा। बस आगे बढ़ते रहिए।

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