भारत के प्रसुप्त दिव्यत्व

को जगाया था स्वामी विवेकानंद ने

Webdunia
- डॉ. राजाराम गुप्त ा

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स्वामी विवेकानंद के दिव्य जीवन संदेशों एवं प्रखर राष्ट्रवादी विचारों की देश एवं देशवासियो ं, विशेषकर युवा पीढ़ी को जितनी महती आवश्यकता आज ह ै, उतनी इसके पूर्व कभी नहीं रही। यहाँ तक कि परतंत्र भारत में भी नहीं। पिछले पचपन वर्षों में देश में अनुशास न, ईमानदार ी, नैतिकत ा, मानवीय चरित्र एवं मूल्यों में जो भारी गिरावट आई ह ै, उससे हर संवेदनशील भारतवासी अत्यधिक दुःखी है।

राष्ट्र को इस विकट स्थिति से उबारने में केवल विवेकानंद के दिव्य संदेश ही सहायक हो सकते हैं। युवाशक्ति को इस चुनौती को स्वीकारना होग ा, तभी भारत माता के उस सपूत का आदर्श राष्ट्र का सपना पूरा हो सकेगा।

इस महाअभियान में विवेकानंद के आदर्श विचार उनके पथ को आलोकित करेंगे। इस पीढ़ी के लिए वे एक दिव्य प्रेरणास्त्रोत हैं। उनकी दिव्य अमृतवाणी आज भी संपूर्ण वायुमंडल में गूँज रही है और राष्ट्रोत्थान हेतु हमारा आह्वान कर रही है।

आज देश के अधिकांश लोग वैयक्तिक संपति जुटान े, वैभ व, पद-प्रतिष्ठ ा, मान-सम्मान के अर्जन की जुगाड़ में ही लगे हैं। इसके लिए वे अपने मूल् य, ईमानदारी और राष्ट्रनिष्ठा को भी दाँव पर लगाने में नहीं हिचकिचा रहे हैं। ऐसे विषम समय में केवल विवेकानंद के व्यक्तित्व और कृतित्व का प्रकाश ही देश को दिशा दे सकता है। इस धरा से महाप्रयाण करने के ठीक पूर्व स्वामीजी ने अपने शिष्यों से राष्ट्र के उत्थान-पतन पर विस्तृत चर्चा की थी।

उन्होंने कहा थ ा, ' भारत को राजनीतिक तथा सामाजिक संघर्षों के पचड़े में न पड़कर अपने आध्यात्मिक दर्शन एवं सांस्कृतिक मूल्यों की ओर ध्यान देना चाहिए क्योंकि केवल अध्यात्म और वेदांत ही मनुष्य का चारित्रिक उत्थान कर शांति और आनंद दे पाएँगे। भौतिक संपदा तो अधःपतन की ओर ही ले जाएगी ।' स्वामीजी के अंतिम शब्द थे- 'यदि भारत अपने ईश्वर की खोज में लगा रह ा, तो वह अमर रहेगा। परंतु यदि वह राजनीति या सामाजिक संघर्ष में लिप्त हु आ, तो विनाश को प्राप्त होगा ।'

विवेकानंद ने अनुभव किया कि धर्म ही राष्ट्र का मेरूदंड है। भारत की आध्यात्मिक चेतना ने ही इसे विश्व में वंदनीय बनाया था। स्वामीजी ने भारत के प्रसुप्त दिव्यत्व को जगाने का महान कार्य किया। उन्होंने पूरी दुनिया को यह संदेश दिया कि केवल भारत का अध्यात्म और वेदांत दर्शन ही भौतिकवादी दैत्य के तीक्ष्ण पंजों में फँसे हुए अन्य राष्ट्रों को मुक्ति दिला सकेग ा, अन्य कोई मार्ग नहीं है। विवेकानंद का आह्वान था कि हर भारतीय को आत्म एवं परिवार केंद्रित चिंतन को त्याग कर राष्ट्र केंद्रित चिंतन अपनाना चाहिए।

राष्ट्र ही परमात्मा का स्वरूप ह ै, राष्ट्र ही हमारा आराध्य हो। केवल 'भारत माता की ज य' बोलने से काम नहीं चलेगा। हमें एक आदर्श राष्ट्र के निर्माण पथ पर सक्रिय रूप से अग्रसर होना पड़ेगा। राष्ट्र तभी समृद् ध, समुन्न त, शक्तिशाली और विश्व वंदनीय बन सकेग ा, जब लोगों के चरित्र उच्च हों। वे भारत को पुनः विश्व गुरु के पद पर प्रतिष्ठित देखना चाहते थे। इसी उद्देश्य को लेकर स्वामी विवेकानंद 'शिकागो विश्व धर्म सम्मेल न' में भाग लेने गए थे और वे अपने मिशन में पूरी तरह सफल भी हुए।

पश्चिम के लोग भारतीय दर्श न, अध्यात्म एवं वेदांत के ज्ञान से अत्यधिक प्रभावित हुए और उन्होंने सनातन धर्म की श्रेष्ठता को स्वीकारा। इसमें उदारत ा, सहिष्णुत ा, प्रे म, सद्भा व, भाईचार ा, दय ा, करुण ा, अहिंसा आदि सभी मानवीय गुणों का समावेश है।

विवेकानंद को यह अनुभूति हो गई थी कि सभी मनुष्य एक ही परम पिता की संतान हैं और सबके हृदय में एक ही आत्मा विराजमान है। इसीलिए धर्मसभा में दिए गए अपने उद्बोधन में उन्होंने सभी उपस्थित श्रोताओं को 'हे अमृत- पुत्रों!' कहकर संबोधित किया था। और संपूर्ण विश्व को उस परम गुह्य ज्ञान को प्राप्त करने का आह्वान करते हुए कहा-

' उत्तिष्ठत्‌, जागृ त, प्राप्य वरान्निबोधत्‌...' (कठोपनिषद्)

अर्थात्‌ उठ ो, जागो और प्राप्त करो उस श्रेष्ठतम ज्ञान को जिसे जानकर जीवन में और कुछ जानना शेष नहीं रह जात ा, जो संपूर्ण मानवता को एक सूत्र में पिरोक र, ' विश्व बंधुत् व' एवं 'वसुधैव कुटुंबकम्‌' का संदेश देता है। आज इसी दिव्य संदेश की दुनिया को आवश्यकता ह ै, क्योंकि यही मूलमंत्र इस धरती से अन्या य, अत्याचा र, अनाचा र, सांप्रदायिक विद्वे ष, धर्मांधत ा, धार्मिक संकीर्णत ा, ऊँच-नी च, जात-पाँत जैसे समस्त दुर्गुणों को समाप्त कर सकता है।

भोगवादी संस्कृति में लिप्त मनुष्यों को सुसंस्कारित कर अध्यात्म की ओर उन्मुख करने हेतु आज स्वामीजी के साहित्य का प्रचार-प्रसार अधिक से अधिक करने की आवश्यकता है। इससे मनुष्य की आंतरिक दिव्य शक्तियाँ प्रकट होंगी। ऐसे महान युगपुरुष हजारों वर्षों में कभी-कभी इस धरा पर अवतरित होते हैं। ऐसे महामनीषी महामानव को शत्‌ शत्‌ नमन।

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