शब्दों में कहाँ समाती है माँ

कविता

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दीपाली पाटील
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भोर के सूरज की उजास लिए
जीवनभर रोशनी-सी बिखेरती है माँ,
दुःख के कंकर बीनती रहती
सुख थाली में परोसती है माँ,
स्नेह की बौछारों से सींचकर
सहेजती है जीवन का अंकुर
राम क्षा के श्लोकों की शक्ति
आँचल में समेटती है माँ,

अपनी आँख के तारों के लिए
स्वप्न बुनती जागती उसकी आँखे
स्वयं के लिए कोई प्राथना नहीं करती माँ,
निष्काम भक्ति है या कोई तपस्या
बस घर की धूरी पर अनवरत घुमती है माँ,
उसकी चूडियों की खनखनाहट में
गूँजता जीवन का अद्भुत संगीत।

उसकी लोरी में है गुँथे
वेद ऋचाओं के गीत
आँगन में उसके विश्व समाया
अमृत से भी मधुर होता है
माँ के हाथ का हर निवाला

जीवन अर्पण कर देती है बिना मूल्य के
साँझ दीये-सी जलती रहती है माँ,
उसके ऋणों से कैसी मुक्ति,
खुली किताब पर अनजानी-सी
शब्दों में कहाँ समाती है माँ।
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