अथर्व पंवार
मातृ दिवस : भारतीय इतिहास के 5 श्रेष्ठतम मातृ चरित्र
भारतीय इतिहास बलिदान और त्याग की गाथाओं से भरा पड़ा है। राष्ट्रहित के लिए ऐसी कितनी ही माताएं थी जिन्होंने जगत जननी ,हम सभी की माता, भारत माता के लिए अपने वंशजों की बलिदानी दे दी। साथ ही ऐसी भी माताएं रही जिन्होंने उस समय की विषम परिस्थितियों में अपनी परवरिश और उच्च स्तर की संस्कारवान नैतिक और मौलिक शिक्षा से सिंह के समान वीर वंशज दिए जिन्होंने अपनी विजयी पताकाओं से सम्पूर्ण भारत में परचम लहरा दिया और उनका स्मरण करके आज भी गर्व से मस्तक ऊंचा हो जाता है और स्वाभिमान से रीढ़ की हड्डी सीधी हो जाती है।
चलिए जानते हैं ऐसे ही कुछ मातृ चरित्रों के बारे में –
जीजामाता
जितना भारत में छत्रपति शिवाजी महाराज का आदर होता है, उतना ही उन्हें एक शिवाजी से हिन्दवी स्वराज की स्थापना करने वाले छत्रपति शिवाजी महाराज बनाने वाली जीजामाता का होता है। शिवाजी के साथ बचपन से ही परिस्थितियां प्रतिकूल रही। उन्हें अपने पिता का साया नहीं मिल पाया। उनके पिता बीजापुर दरबार में अपनी उपस्थिति देने के कारण अपने परिवार से दूर रहे। ऐसे में जीजामाता ने ही शिवाजी का माता और पिता दोनों के रूप में पालनपोषण किया। उन्हें बचपन से ही मातृभूमि से प्रेम करने, लोककल्याण की नीति अपनाने और स्वाधीनता प्राप्ति के लिए हिन्दवी स्वराज्य की स्थापना के संस्कार दिए। वह जीजामाता की ही शिक्षा और प्रोत्साहन था जिससे एक सोलह वर्ष के वीर बालक ने तोरणा दुर्ग विजयी किया और बाल्यकाल में ही शिवलिंग पर अपने अंगूठे से रक्त चढ़ाकर स्वाधीनता और हिन्दवी स्वराज्य का संकल्प लिया।
माता गुजरी
माता गुजरी एक ऐसा चरित्र है जिनका नाम उनके त्याग के लिए स्वर्णाक्षरों से लिखा जाना चाहिए। कहते हैं कि भारत की माताओं की कोख से सिंह पैदा होते हैं। माता गुजरी का विवाह बचपन में ही गुरु तेगबहादुर जी से हो गया था। उन्होंने गुरु तेग्बहादुर जी की वीरता को युद्ध में सराहा और कश्मीरी हिन्दुओं की सहायता के लिए उन्होंने ही तेगबहादुर जी को बलिदान देने के लिए भेजने की वीरता दिखाई थी। यह वह वीर माता थी जिन्होंने गुरु गोबिंद सिंह जी को वीरता, धर्मरक्षा, मातृभूमि प्रेम, बलिदान इत्यादि के समान वह निवाले खिलाए जिससे वह आज भी एक महाप्रतापी के नाम से जाने जाते हैं। आनंदपुर के मुगलों के हमले में माता गुजरी अपने पौत्रों साहिबजादे जोरावरसिंह (7 वर्ष) और फतहसिंह (5 वर्ष) के साथ परिवार से बिछड़ गई थी और बाद में मुगलों द्वारा बंदी बना ली गई थी । उन्हें अनेक प्रकार की मानसिक प्रताड़ना और धर्म परिवर्तन के प्रलोभन दिए गए। साहिबजादों ने भी अपनी दादी से वीरता के संस्कार पाए। साहिबजादों को दीवार में चुनवाकर मारा गया, इसके बाद माता गुजरी ने भगवान को शुक्रिया कहा कि उनका पति, उनका पुत्र और उनके पौते सभी धर्मरक्षा हेतु बलिदान हुए। बाद में उनका भी स्वर्गवास हो गया।
पन्ना धाय
यह वह माता है, जो अगर अपने पुत्र का बलिदान न देती तो आज मेवाड़ का दीपक न जल रहा होता। पन्ना धाय का पूरा नाम पन्ना गुजरी था। धाय उस महिला को कहते हैं जो राजपुत्र को रानी के स्थान पर स्वयं का दूध पिलाती है और एक दासी के रूप में उसकी सेवा और परवरिश करती है। महाराणा संग्राम सिंह जिन्हें महाराणा सांगा के नाम से जाना जाता है, का स्वर्गवास होने के बाद मेवाड़ के दरबार में राजनीतिक उथलपुथल चल रही थी। बनवीर जो महाराणा सांगा का रिश्ते से भाई लगता था, अपने स्वार्थ और राजा बनने की लालसा से कुछ भी करने को तैयार था। उस समय महाराणा सांगा के पुत्र उदयसिंह मात्र 12 वर्ष के थे। वह ही मेवाड़ के भावी राणा बनाए जाने वाले थे। बनवीर मेवाड़ के वंश जो समाप्त करने की इच्छा से उस बालक उदयसिंह को मारने के लिए निकल पड़ा। जब यह बात पन्ना धाय को पता लगी तो उन्हें अपने राष्ट्र मेवाड़ और उसके भविष्य की चिंता हुई। उन्होंने अपने पुत्र चन्दन को उदयसिंह के स्थान पर लेटा दिया। जब बनवीर आया और उसने पूछा कि उदयसिंह कहां है तो उन्होंने अपने लेते हुए पुत्र की ओर इशारा कर दिया। बनवीर ने उस वीर मां के सामने ही उसके बेटे का गला काट दिया पर वह साहसी माँ इसलिए नही रोई कि कहीं बनवीर को संदेह नहीं हो जाए। इसके बाद पन्ना धाय उदयसिंह को सभी की आंखों से छुपाते हुए कुम्भलगढ़ ले गयी और यहां उदयसिंह आरम्भ में अपनी पहचान छुपाते हुए बड़े हुए। बाद में सभी दूसरे दरबारों ने उदयसिंह को अपना नया राणा मान लिया और वह गद्दी पर बैठे। सोचिए, अगर वह माता अपने पुत्र का अपने राजवंश की रक्षा के खातिर बलिदान नहीं करती तो न ही महाराणा प्रताप होते और न ही मेवाड़।
गौरा धाय
इन्होने भी पन्ना धाय की ही तरह अपने वंश का बलिदान देकर मारवाड़ का वंश बचाया था। इनका पूरा नाम गौरा टांक था। जोधपुर के राजा जसवंतसिंह की मृत्यु के बाद उनके पुत्र अजीतसिंह का जन्म हुआ। औरंगजेब की नज़र हमेशा से राजपुताना के साथ साथ दूसरी सभी रियासतों पर थी जिन्होंने अपने स्वाभिमान से अपना ध्वज बुलंद कर रखा था। उसने एक साजिश रची। उसने मारवाड़ के संरक्षक दुर्गादास राठौड़ को पत्र भेजा कि वह अजीतसिंह के जन्म का उत्सव दिल्ली में मानना चाहते हैं। उस समय की स्थितियां इतनी नाजुक मोड़ पर थी कि मारवाड़ औरंगजेब का विरोध नहीं कर सकता था, न चाहते हुए भी मारवाड़ से एक दल दिल्ली गया। औरंगजेब ने आए हुए सरदारों को अनेक प्रलोभन दिए कि अगर वह उससे मिल जाएंगे तो वह उन्हें आधा राज्य दे देगा, पर राष्ट्रभक्त राजपूत उसकी चालों में नहीं फंसे। दुर्गादास राठौड़ इस चाल को समझ गए उन्होंने सभी को एकत्रित कर के बताया कि उनके कक्षों को घेर लिया गया है और हमारे नवजात राजकुमार के प्राण संकट में हैं। यहां से अगर युद्ध करते हुए निकलते हैं तो एक आघात भी मारवाड़ का वंश समाप्त कर सकता है। ऐसी तनावपूर्ण परिस्थिति में गौरा धाय ने कहा कि उनका पुत्र भी राजकुमार की उम्र का है। अगर उनके पुत्र को राजकुमार के स्थान पर उनके वेश में रख देंगे और वह मेहतरानी के भेष में राजकुमार को टोकरी में रख कर ले जाएंगी तो मारवाड़ का भविष्य सुरक्षित यहां से निकल जाएगा। एक धाय से यह सुनकर दुर्गादास भावुक हो गए उन्होंने कहा कि तुमने साक्षात् जगदम्बा बन हमें संकट से निकाला है। मेवाड़ की पन्नाधाय के समान तुम्हारा बलिदान भी मारवाड़ के इतिहास में सदा अमर रहेगा। गोरा धाय अजीतसिंह को टोकरी में लेकर भेष बदल कर बाहर निकल गई और दुर्गादास राठौड़ जो स्वयं सपेरे के भेष में बाहर थे उन्हें अजीतसिंह को सौंप दिया और मारवाड़ का वंश सकुशल पुनः मारवाड़ आ गया। औरंगजेब ने अपने सैनिकों को कक्ष से अजीतसिंह को लाने को कहा, ,लेकिन अजीतसिंह के भेष में गौरा धाय को पकड़ लिया गया, उसे अजीतसिंह मान कर उनका धर्मान्तरण किया गया और मुग़ल दरबार में ही एक गुलाम के रूप में रख कर प्रताड़ित किया गया। कुछ वर्षों बाद उनकी प्लेग से मृत्यु हो गई। औरंगजेब को जब यह ज्ञात हुआ कि मेवाड़ का वंश सकुशल है और जोधपुर में है तो वह बौखला उठा। वह अचंभित भी हुआ कि भारत की माताएं अपने राष्ट्रप्रेम के भाव के कारण अपने पुत्र का बलिदान देने में तनिक भी नहीं सोचती।
मातोश्री देवी अहिल्याबाई होल्कर
अहिल्याबाई होल्कर को उनके न होने के इतने वर्ष बाद भी 'मातोश्री' की उपाधि से सम्मानित किया जाता है। वह प्रजा का अपनी संतान की तरह पालन पोषण करती थी। उनके न्याय की तुलना राजा भोज के न्याय से की जाती है। उन्हें आज भी न्याय की देवी कहा जाता है। आज भी इंदौरवासी उन्हें माता मानते हैं और उनके चित्र अपने घरों में लगाते हैं, उनका प्रातः स्मरण करते हैं, भगवान के बाद उनकी जयकार करते हैं।
उनके बारे में एक प्रसंग पढ़ने को मिलता है जो इंदौरवासियों की जिव्हा पर है। उनके पुत्र मालेराव होल्कर उद्दंड थे। उनकी हरकतों से प्रजा परेशान रहती थी। एक बार वह रथ से जा रहे थे तो मार्ग के बीच में गाय का बछड़ा आ गया। मालेराव ने उसपर रथ चढ़ा दिया और उसकी ओर ध्यान ना देते हुए आगे प्रस्थान किया। इस कारण वह तड़प तड़प कर मर गया और उसकी मां उसी के पास आकर उसे चाटती रही। अहिल्याबाई जब उस मार्ग से निकली तो उन्हें पूरा प्रकरण ज्ञात हुआ। उन्होंने अपनी वधु से पूछा कि अगर कोई तुम्हारे सामने तुम्हारे पुत्र को कुचल दे तो उसका क्या करना चाहिए, उनकी वधु ने कुछ सोचकर कहा कि उसे मृत्युदंड मिलना चाहिए।
अहिल्याबाई ने मालेराव को भी मृत्युदंड का आव्हान किया। उनके हाथ पैर बांध कर उन्हें हाथी से कुचलने की सजा सुनाई। जब वहां कोई भी हाथी को चलाने के लिए तैयार नहीं हुआ तो स्वयं अहिल्याबाई उस पर चढ़कर आगे बढ़ने लगी। तभी वह गाय उनके सामने आ गयी और हटाए जाने के बाद भी बार बार सामने आने लगी। मंत्रियों ने अहल्यामाता को कहा कि आप उस गाय का संकेत समझिए। वह नहीं चाहती कि कोई और मां पुत्रविहीन हो, मालेराव को अपनी भूल ज्ञात हो गई है और वह पश्चाताप भी करेंगे। यह वह माता थी जिन्हें उनकी प्रजा के साथ साथ पशु भी स्नेह और आदर करते थे। वह अपनी प्रजा के हित के लिए अपना सर्वस्व त्याग सकती थी।