सुधा अरोड़ा की कविता : क्या इसीलिए होती हैं मांएं धरती से बड़ी !

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आखिर मैं कब आई होऊंगी तुम्हारे भीतर 
गर्भ में धरने से पहले 
क्या तुमने धरा होगा अपनी आत्मा में मुझे
जैसे धरा होगा तुम्हारी मां ने तुम्हें 
उनकी मां ने उन्हें 
और एक अटूट परंपरा स्त्रियों की 
वहां तक जहां बनी होगी दुनिया की पहली स्त्री 
तुमने मुझे क्यों जना मां 
क्या एक चली आ रही परंपरा का निर्वाह करना था तुम्हें 
या फैलना था एक नए संसार तक 
और फिर देखना था अपने आप को मुझमें 
 
तुम्हें देखती हूं, अब भी वैसे ही संवारते हुए घर 
सुबह-सुबह हाथ में लिए एक डस्‍टर  
अपनी कमर की मोच में भी 
पिता को चाय का कप थमाते हुए देखती हूं तुम्हें 
आंखों की उदासी में देखती हूं 
और अपने दांतों के बीच 
विचरती हवा में महसूस करती हूं तुम्हें 
लिखना चाहती हूं ढेर सारा जीवन लगातार 
लेकिन अपनी खामोशी में देखती हूं तुम्हें 
 
तुम इतनी खामोश क्यों थी मां ?
क्‍या इसीलिए इतना बोलती थीं तुम्हारी आंखें?
किस भाषा में कहना चाहती थी तुम अपना दुख  
जिसे कभी हम समझ ही न पाए?
 
क्या इसीलिए इतना पसंद था तुम्हें मेरा लिखना 
तुम्हें उम्मीद थी कि लिखूंगी मैं तुम्हें भी एक दिन 
खोजूंगी तुम्‍हारी पीडा के रेशे
मुझे आजमाना चाहती थीं 
क्‍या इसीलिए नहीं छोड़ा कोई भी सिरा अपने दुख का 
जिसे थाम कर मैं आगे की पंक्ति लिखती 
बिना कुछ कहे चले गए अनंत यात्री की तरह 
 
एक बहुत छोटी चौहद्दी में घटी हुई अंतहीन घटनाएं  
लगती हैं इतनी बेतरतीब और बिखरी हुई 
कि लगता है बंध ही नहीं पाएगी कुछ शब्‍दों में 
एक महाआख्‍यान भी कम पड़ेगा 
क्यों मुझे लगता है कि शायद तुम यह कहना चाह रही थी
शायद यह .... शायद यह ....... 
 
हर बार जितना तुम्‍हें देखती हूं 
लगता है, जितना दीखता है
उससे ज्‍यादा छूट गया है 
न उस छूटे हुए को पकड़ पाई कभी 
न लिख पाई तुम्‍हें!
 
क्या इसीलिए होती हैं मांएं धरती से बड़ी 
कि हर कहीं उपस्थित रहें और बोलती रहें बेलफ़्ज़ 
सहस्राब्दियों से अनपढ़े आख्यान की तरह 
जब भी उन्हें देखो तो झरने लगें ऐसी कथाएं 
जो कहने की बाट जोहती रहीं हमेशा 
लेकिन जिन्‍हें कभी कहा नहीं गया…..

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