1856 में ब्रिटिश इंडिया द्वारा किए गए सर्वे में एवरेस्ट की ऊँचाई 29002 फुट (8840 मीटर) बताई गई थी। इसे पीक-15 नाम भी दिया गया था। ब्रिटिश सर्वेयर एंड्रयू वॉ ने सर जॉर्ज एवरेस्ट के नाम पर इस चोटी का नाम एवरेस्ट रखने की पेशकश की थी। सदियों से तिब्बती चोमोलुंग्मा पर्वत चोटी का उपयोग करते थे लेकिन वॉ के लिए कोई स्थानीय नाम रखना संभव नहीं था।
यह पर्वत चोटी पर्वतारोहियों के लिए सदैव आकर्षण का केंद्र रही है। चाहे अनुभवी पर्वतारोही हों या नौसिखिए, सभी यहाँ आना चाहते हैं। इसकी चढ़ाई भी बहुत कठिन है। यहाँ के-2 यानी नंगा पर्वत तक पहुँचना बहुत मुश्किल काम है। यहाँ प्राकृतिक खतरे, ऊँचाई पर होने वाली कमजोरी, मौसम और हवा ऊपर चढ़ने में मुश्किलें पैदा करते हैं।
नेपाल पर्यटन के लिए पर्वतारोही कमाई का एक महत्वपूर्ण जरिया है। माउंट एवरेस्ट पर चढ़ने के लिए नेपाल सरकार द्वारा अनुमति लेनी पड़ती है जिसके लिए 25 हजार अमेरिकी डॉलर प्रति व्यक्ति चुकाना पड़ते हैं। 2009 अंत तक माउंट एवरेस्ट से 216 लोग जीवित बचकर आए हैं जबकि 8 लोग 1996 में आए तूफान में मारे गए।
8000 मीटर ऊपर जाने के बाद डेथ जोन में परिस्थितियाँ काफी खतरनाक होती हैं, जहाँ यदि पर्वतारोही की मृत्यु हो जाती है उसे वहीं छोड़ दिया जाता है। इनमें से कुछ तो चढ़ाई वाले रास्ते पर दिखाई भी देते हैं।
सबसे पहली चढ़ाई 1953 में जॉन हंट के नेतृत्व में ब्रिटिश अभियान की शुरुआत हुई। उन्होंने दो पर्वतारोहियों टॉम बर्डिलन और चार्ल्स इवान्स के दल को सबसे पहले माउंट एवरेस्ट पर चढ़ने के लिए भेजा, लेकिन वे दोनों 300 फुट की ऊँचाई तक जाकर 26 मई 1953 को थके-माँदे वापस लौट आए, क्योंकि उन्हें ऑक्सीजन की कमी महसूस होने लगी थी।
दो दिन बाद दूसरे दल को तैयार किया गया। इस दल में न्यूजीलैंड के एडमंड हिलेरी और नेपाली शेरपा तेनजिंग नोर्गे थे। वे 29 मई 1953 को सुबह 11.30 बजे चोटी पर पहुँचे। सबसे पहले हिलेरी ने शिखर पर कदम रखा। उन्होंने वहाँ फोटो खींचे और एक-दूसरे को मिठाई खिलाई।
1996
की त्रासदी 1996 में सर्वाधिक 15 लोग एवरेस्ट की चढ़ाई के दौरान मारे गए थे। इस घटना ने व्यावसायिक पर्वतारोहण पर प्रश्नचिह्न लगा दिया था।