Biodata Maker

Select Your Language

Notifications

webdunia
webdunia
webdunia
webdunia

कैप्‍टन का इस्‍तीफा: पंजाब में जो हुआ तय था, आगे क्या होगा अनिश्चित है?

Advertiesment
हमें फॉलो करें Punjab politics
webdunia

ऋतुपर्ण दवे

पंजाब में लंबे समय से सब कुछ ठीक नहीं चल रहा था। सच तो यह है कि कांग्रेस में ही कुछ भी ठीक दिख नहीं रहा है। कभी राजस्थान तो कभी छत्तीसगढ़ में दिखने वाले विरोध के स्वर धीमें भी नहीं पड़ते हैं कि पंजाब का उफान जब-तब सामने आ जाता है।

आज तो एकाएक राजनीतिक विस्फोट सा हो गया। अभी पंजाब जरूर चर्चाओं में है लेकिन इस घटनाक्रम के पहले थोड़ा पीछे जाना होगा।

मध्यप्रदेश की भी चर्चा जरूरी है। वहां भी हाथ आई सत्ता अंर्तकलह का शिकार गई। न केवल कमलनाथ सरकार के मंत्रियों ने साथ छोड़ा बल्कि कई वरिष्ठ विधायकों ने भी साथ छोड़ दिया था। 2 विधायकों के निधन से और बांकी में इस्तीफों से खाली कुल 28 सीटों पर 11 नवंबर 2019 को आए उपचुनावों के नतीजों में भाजपा ने 19 सीटों पर अपना कब्जा जमाया और कांग्रेस महज 9 सीट ही जीत बैकफुट पर आ गई।

मप्र में सत्ता खो चुकी कांग्रेस ने कर्जमाफी के साथ राज्यसभा सदस्य ज्योतिरादित्य सिंधिया सहित कांग्रेस छोड़कर भाजपा में गए विधायकों की सौदेबाजी को मुख्य मुद्दा बनाया था जो काम नहीं आया। मध्यप्रदेश में फिर भाजपा काबिज हुई और शिवराज सिंह चौहान चौथी बार मुख्यमंत्री बने।  

पंजाब की स्थिति थोड़ी अलग है। यहां पर भाजपा और शिरोमणि अकाली दल का 20 साल पुराना गठबन्धन ठीक एक साल पहले 17 सितंबर 2020 को केन्द्रीय कृषि मंत्री हरसिमरत कौर बादल के इस्तीफे के बाद टूट गया। ऐसे में तमाम नए समीकरणों के कयास जरूर लगाए जा रहे हैं। सोशल मीडिया के इस दौर में पंजाब के हालिया हालातों पर लोगों के अपने-अपने अनुमान हैं। लेकिन कांग्रेस के दिग्गजों के ट्वीट वार को नजर अंदाज भी तो नहीं किया जा सकता।

पंजाब कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष सुनील जाखड़ का ट्वीट जिसमें सभी तरह की दिक्कतें खत्म होने का भरोसा जताया गया है। साफ है पंजाब में कांग्रेस गुटों में बंटी हुई है। पंजाब को लेकर शशि थरूर का ट्वीट भी काफी कुछ कहता है। अभी हालात कुछ भी हो लेकिन 2017 के विधानसभा चुनाव में कैप्टन अमरिंदर सिंह की अगुवाई में कांग्रेस ने पंजाब में कुल 117 सीटों में से 77 सीटों पर जीत हासिल कर सत्ता में 10 साल बाद वापसी की थी।

पंजाब में कांग्रेस ने वापसी कर जो कामियाबी हासिल की उसमें अमरिंदर सिंह ही भाजपा के विजय रथ को रोकने वाले नेताओं में शुमार थे। लेकिन पंजाब कांग्रेस में सत्ता और संगठन दोनों में ही विरोध की चिंगारी सुलगती रही। कैप्टेन के लाख न चाहने के बाद नवजोत सिंह सिध्दू का प्रदेश अध्यक्ष बनाया जाना राजनीति के नब्ज को टटोलने वालों के लिए कुछ और ही इशारा कर रहा था। जाहिर है चिंगारी अन्दर ही अन्दर ज्वाला बनती गई जिसको रोकने या बुझाने में कांग्रेस आलाकमान पूरी तरह विफल रहा और नतीजा आज के हालात के रूप में हैं। 

पंजाब के आज के घटनाक्रम के बाद यह तो साफ समझ आ रहा है कि कांग्रेस में शीर्ष स्तर पर भी धड़ेबाजी साफ दिख रही है। सुनील जाखड़ का एक बयान राजनीतिक गलियारे में बेहद चर्चाओं में है जिसमें उनका कहना ‘पंजाब कांग्रेस में जटिल हो रही समस्या के बीच राहुल गांधी के रवैये की प्रशंसा करता हूं। आश्चर्यजनक रूप से पार्टी नेतृत्व की तरफ से लिए गए फैसले से पंजाब कांग्रेस के कार्यकर्ताओं में जोश आया है और साथ ही अकाली दल को भी स्पष्ट संदेश गया है।'

साफ है पार्टी शुरू से ही बंटी हुई थी और ऐसा नहीं होता तो 10 जून 2019 का लिखा सिध्दू का इस्तीफा 14 जुलाई 2019 को ट्वीट क्यों किया जाता। 16 मार्च 2017 को कैप्टन अमरिन्दर सिंह के मुख्यमंत्री की शपथ लेने के बाद तीसरे क्रम पर शपथ लेने वाले सिध्दू महज दो बरस में इतने बगावती कैसे हो गए? जबकि वह तेरह साल तक भारतीय जनता पार्टी में रहने के बाद साल 2017 में ही कांग्रेस में आए थे। लेकिन बहुत ही जल्दी राजनीतिक वनवास जैसे हालातों का सामना करने लगे।

एक बार तो यह भी लगने लगा था कि सिध्दू फिर उसी तिराहे पर खड़े दिख रहे हैं जहां से एक तरफ कांग्रेस, दूसरी तरफ आम आदमी पार्टी और तीसरी ओर भाजपा थी। लेकिन यह सब कयास ही रह गए। इस बार बाजी सिध्दू के पक्ष में जाती दिख रही है। वह मुख्यमंत्री बनेंगे या नहीं यह तो वक्त बताएगा लेकिन उनके पक्ष में हाईकमान विशेषकर राहुल-प्रियंका के विश्वास पात्र होने का ईनाम मिलते ही कैप्टन अमरिन्दर सिंह के भविष्य पर अनिश्चितता जरूर दिखने लगी थी जो आज सच साबित हुई।

इतना तो तय है कि सोनिया गांधी से बात कर नाराजगी जताने के बाद अमरिन्दर सिंह चुप बैठने वालों में नहीं है। कांग्रेस आलाकमान के तमाम सुलह के प्रयासों के बाद भी सुलझ न पाना बताता है कि खुद कांग्रेस के अन्दर भी अभी काफी कुछ ठीक नहीं चल रहा है।

पंजाब में कल मुख्यमंत्री कौन होगा यह अहम नहीं है, अहम यह है कि संगठनात्मक तरीके से कौन कितना अनुशासित रह पाएगा। वैसे भी पंजाब की राजनीति की तासीर देश में अलग ही तरह की है। जिस तरह पहले सिध्दू और भाजपा का 13 साल पुराना साथ छूटा, फिर 20 साल पुराने  शिरोमणि अकाली दल और भाजपा का गठबन्धन टूटा और अब राजीव गांधी के स्कूल के दौर से दोस्त रहे अमरिन्दर सिंह का कांग्रेस से दोबारा बगावत यह बताती है पंजाबी सियासत में उठापटक नई नहीं है।

41 साल के अपने राजनीतिक सफर में कैप्टन कई मुश्किल दौर से गुजर चुके हैं। कई पार्टी अध्यक्षों से कैप्टन का पंगा ही रहा है। इन सबके बाद भी पार्टी आलाकमान का कैप्टन पर ही विश्वास बना रहा जिसे उन्होंने 2002 और 2017 दिखाया भी। पंजाब कांग्रेस की धुरी माने जाने वाले कैप्टन 1980 में राजीव गांधी के द्वारा कांग्रेस में लाए गए थे और उसी साल पहली बार लोकसभा का चुनाव लड़ा और जीता। 1984 में मतभेदों के चलते उन्होंने केवल 4 साल में संसद और कांग्रेस की प्राथमिक सदस्यता से इस्तीफा दे दिया।

1985 में शिरोमणि अकाली दल में शामिल हुए, विधान सभा चुनाव जीते और सुरजीत सिंह बरनाला का सरकार में मंत्री बने। 1987 में बरनाला सरकार के आतंकवाद के दौर में बर्खास्त होने के बाद 1992 में वो फिर अलग हुए और अकाली दल (पंथिक) का गठन किया। 1998 में इसका कांग्रेस में विलय हुआ और पंजाब कांग्रेस की कमान सम्हाली। 2002 में कांग्रेस की फिर पंजाब में सत्ता वापसी हुई जो 2007 रही। 2014 के लोकसभा चुनाव में उन्होंने अमृतसर से भाजपा नेता अरुण जेटली को एक लाख से अधिक वोटों से हराया। इसके बाद कांग्रेस ने कैप्टन को लोकसभा में पार्टी के संसदीय दल का उपनेता नियुक्त किया, लेकिन अमरिंदर का मन पंजाब में ही रहा। अंततः आलाकमान ने 2017 में फिर उन्हीं पर दांव खेला और बाजी अपने पक्ष में कर ली।

माना जा रहा है कि दिल्ली में कैप्टन अमरिन्दर की कमजोर पैरवी के चलते उनका रसूख घटता गया। उनके मजबूती साथी और सोनिया गांधी के राजनीतिक सलाहकार अहमद पटेल और मौतीलाल वोरा के निधन के बाद से दिल्ली में उनकी लॉबिंग करने वाला कोई नहीं था। बस यहीं से पंजाब के नए चेहरों को एंट्री मिली। राजनीति में कब कौन सा समीकरण बदल जाए कोई नहीं जानता। लेकिन कांग्रेस के हाथ पंजाब में मजबूत होंगे या कमजोर यह बड़ा, अबूझ और भविष्य की गर्त में छुपा सवाल है।

इस कड़े फैसले को गुजरात से जोड़कर देखना भी कांग्रेस के लिए भूल होगी। लेकिन बड़ा सवाल यह है जो सोचना ही होगा कि पंजाब में कांग्रेस संगठन में बदलाव के साथ सत्ता में बदलाव जरूरी लगता है तो क्या पूरे देश में लोगों यह नहीं लगता होगा? वाकई नए दौर में काँग्रेस को जोखिम भरे फैसले लेते देखना कितना फायदेमंद होगा नहीं पता पर इतना जरूर पता है कि 65 प्रतिशत आबादी वाली नई पीढ़ी नए चेहरों को पढ़ना, देखना, समझना जरूर चाहती है।

(आलेख में व्‍यक्‍त विचार लेखक के निजी अनुभव हैं, वेबदुनिया का इससे कोई संबंध नहीं है।)

Share this Story:

Follow Webdunia Hindi

अगला लेख

इरफान हबीब, रोमिला थापर के बाद अब हरबंस मुखिया के लेक्चर पर सवाल