Select Your Language

Notifications

webdunia
webdunia
webdunia
webdunia
Advertiesment

क्या ट्रम्प के हार जाने से हम वाक़ई परेशान हैं?

हमें फॉलो करें क्या ट्रम्प के हार जाने से हम वाक़ई परेशान हैं?
webdunia

श्रवण गर्ग

, रविवार, 31 जनवरी 2021 (19:46 IST)
अमेरिका में हुए उलट-फेर पर भारत के सत्ता प्रतिष्ठान का पूरी तरह से सहज होना अभी बाक़ी है। किसान आंदोलन के हो-हल्ले में इस ओर ध्यान ही नहीं दिया गया कि बाइडेन की उपलब्धि पर भाजपा और संघ सहित राष्ट्रवादी संगठनों की तरफ़ से कोई उत्साहपूर्ण प्रतिक्रिया नहीं हुई है। संदेश ऐसा गया जैसे अमेरिका में वोटों की गिनती अभी पूरी ही नहीं हुई है। ऐसे मौक़ों पर मुखर रहने वाले लोगों के एक बड़े तबके ने भी, जिसमें विदेशी मामलों पर सबसे पहले प्रतिक्रिया देने वाले बुद्धिजीवी शामिल हैं, सन्नाटे का मास्क ताने रखा। माहौल कुछ ऐसा है जैसे तमाम पूजा-पाठों और हवन-यज्ञों के बावजूद अमेरिका में कोई अनहोनी घट गई जिसके कारण आने वाले सालों के लिए पहले से तय खेलों के मंडप बिगड़ गए हैं।
क्या आश्चर्यजनक नहीं लगता कि महिला सशक्तिकरण के क्षेत्र में घटी एक ऐसी अंतरराष्ट्रीय घटना, जिसकी जड़ें ‘भारत माता’ के चरणों की मिट्टी से सनी हैं, को लेकर भी न तो अयोध्या में दीये जलाए गए और न ही नागपुर में कोई आतिशबाजी की गई? दो सौ से अधिक वर्षों के अमेरिकी संसदीय इतिहास में पहली बार एक महिला और भारतीय मूल की विद्वान मां की प्रतिभावान अश्वेत बेटी कमला हैरिस के उप-राष्ट्रपति पद की शपथ लेने को भी किसी अन्य मुल्क का अंदरूनी मामला होने जैसा मानकर निपटा दिया गया।

बाइडेन के व्हाइट हाउस में प्रवेश को लेकर भारत का सत्ता प्रतिष्ठान अंतरराष्ट्रीय राजनीति की ज़रूरतों के मान से कुछ ज़्यादा ही चौकन्ना हो गया लगता है। ’अबकी बार, ट्रम्प सरकार’ के दूध से जली नई दिल्ली की कूटनीति अब ठंडी छाछ को भी फूंक-फूंककर पी रही है। संदेश ऐसा जा रहा है कि अमेरिकी प्रजातंत्र के जीवन में उपस्थित हुए महान क्षण का भारतीय गणतंत्र के लिए भी बड़ा अवसर बनना न सिर्फ़ शेष है बल्कि वह और दूर खिसक गया है। जिस तरह अमेरिकी नागरिक दो भागों में बंटकर ट्रम्प की वापसी की आशंकाओं से डरे-सहमे हुए हैं, शायद उसी तरह नई दिल्ली का साउथ ब्लॉक (विदेश मंत्रालय) भी चौकन्ना नज़र आ रहा है!
ALSO READ: त्वरित टिप्पणी : इस आंदोलन का महात्मा गांधी कौन है?
संयोग कुछ ऐसा रहा कि जनसंघ-भाजपा के नेताओं को डेमोक्रेटिक राष्ट्रपतियों के साथ काम करने के अवसर रिपब्लिकन ट्रम्प के मुक़ाबले कम अवधि के मिले और उनकी स्मृतियां भी मधुर नहीं रहीं। अटलजी के जनता पार्टी शासन (1977-1979) में विदेश मंत्री बनने के केवल दो माह पूर्व ही जिम्मी कार्टर (डेमोक्रेटिक) राष्ट्रपति बने थे। जनता पार्टी सरकार ही लम्बी नहीं चल पाई और अपने अंतर्विरोधों के चलते 28  महीनों में ही गिर गई। अटलजी के प्रधानमंत्रित्व (1998-2004) में पहले क्लिंटन (डेमोक्रेटिक) और फिर बुश (रिपब्लिकन) वहां राष्ट्रपति रहे।

क्लिंटन की मार्च 2000 में भारत यात्रा की पूर्व संध्या पर कश्मीर में अनंतनाग ज़िले के छत्तीसिंहपुरा गांव में जघन्य सिख हत्याकांड हो गया। बुश के कार्यकाल के दौरान फ़रवरी 2002 में गुजरात में गोधरा कांड हो गया। तब नरेंद्र मोदी गुजरात में मुख्यमंत्री थे। भाजपा के किसी राष्ट्रीय नायक का सबसे लम्बा सफ़र मोदी के रूप मे रिपब्लिकन पार्टी के ट्रम्प के साथ ही गुज़रा है और अधिकांश मुद्दों पर दोनों नेताओं के बीच कमोबेश सहमति भी रही।
ALSO READ: ‘तानाशाह’ अपनी हार अंत तक स्वीकार नहीं करते!
बराक ओबामा (डेमोक्रेटिक) के कार्यकाल में मोदी ने दो साल से कुछ अधिक तक उनसे मित्रता निभाई पर उस दौरान उल्लेखनीय कुछ भी नहीं हुआ। जब जनवरी, 2015 में ओबामा भारत यात्रा पर आए तब मोदी को दिल्ली पहुंचे साल भर भी नहीं हुआ था। अपनी यात्रा की समाप्ति के बाद सऊदी अरब रवाना होते समय ओबामा ने अपनी इस अपील से सनसनी पैदा कर दी कि- ‘एक ऐसे देश में, जहां हिंदुओं और अल्पसंख्यकों में संघर्ष का इतिहास रहा हो, धार्मिक स्वतंत्रता की रक्षा की जानी चाहिए।’

ओबामा ने इसे भारत का संवैधानिक दायित्व भी निरूपित किया। राष्ट्रपति पद छोड़ने के दो वर्ष बाद (2017) जब ओबामा एक मीडिया हाउस के कार्यक्रम में भाग लेने भारत आए तो फिर कह गए- ‘भारत के लिए ज़रूरी है कि वह अपनी मुस्लिम आबादी का ठीक से ख़याल रखे। यह आबादी भारत में एकाकार हो चुकी है और अपने आपको भारतीय ही मानती है।’
 
आश्चर्य नहीं अगर बाइडेन के पदारोहण को नई दिल्ली में ओबामा की ही वैचारिक वापसी के रूप में देखा जा रहा हो। याद रहे कि ओबामा ने बाइडेन के चुनाव प्रचार में पूरा ज़ोर लगा दिया था और बाइडेन ने भी ओबामा के कई सहयोगियों को अपनी टीम में शामिल किया है। दूसरी ओर, कमला हैरिस को भी मानवाधिकारों के मामलों में वामपंथी विचारों की पोषक और पाकिस्तान के प्रति सहानुभूतिपूर्ण रुख़ रखने वाली नेता समझा जाता है। सब कुछ ठीक चले तो यह भी मुमकिन है कि बाइडेन राष्ट्रपति पद के दूसरे कार्यकाल की अपनी दावेदारी छोड़ दें और हैरिस को ही राष्ट्रपति पद का चुनाव लड़ने का मौका दे दें।
ALSO READ: कोरोना की वैक्सीन ही नहीं, लोकतंत्र का टीका भी ज़रूरी है!
बाइडेन ने राष्ट्रपति का पद सम्भालने के बाद पहले फ़ोन कॉल्स अपने उन दो पड़ौसी देशों (कनाडा और मेक्सिको) के प्रमुखों को किए जिनके साथ ट्रम्प के रिश्ते ज़्यादा मधुर नहीं थे। भारत समेत दुनिया के बाक़ी राष्ट्र भी प्रतीक्षा में होंगे। ओबामा ने 2009 में राष्ट्रपति बनने के बाद डॉ. मनमोहन सिंह को अपने पहले राजकीय अतिथि के रूप में वॉशिंगटन आमंत्रित किया था। देखना दिलचस्प होगा कि कोरोना पर क़ाबू पा लेने के बाद अमेरिका और भारत दोनों ही देशों में पहला विदेशी मेहमान कौन बनता है!

डोनाल्ड ट्रम्प भारत की राजनीति को एक ऐसे स्वप्नलोक की यात्रा पर ले जा रहे थे जिसमें केवल स्वर्ग की सम्पन्नता के ही नज़ारे थे; ख़ाली जगहें सिर्फ़ देशों, समाजों और नागरिकों के बीच दीवारें खड़ी करने के उपयोग के लिए सुरक्षित थीं। इसीलिए ट्रम्प ने वॉशिंगटन छोड़ने के पहले आख़िरी यात्रा उस दीवार को देखने के लिए टेक्सास राज्य की की जिसे वे मेक्सिको के नागरिकों को अमेरिका में प्रवेश से रोकने के लिए बनवा रहे थे। बाइडन ने अपना काम सम्भालने के पहले ही दिन ट्रम्प प्रशासन के जिन तमाम बड़े फ़ैसलों को उलटा उनमें उक्त दीवार का काम रोकना भी शामिल है। बाइडेन ने दीवारों को गिराने का काम अभी अमेरिका में ही शुरू किया है और आश्चर्य है कि उसके मलबे के कतरे इतनी दूर भी आंखों में चुभ रहे हैं। (इस लेख में व्यक्त विचार/विश्लेषण लेखक के निजी हैं। 'वेबदुनिया' इसकी कोई ज़िम्मेदारी नहीं लेती है।)

Share this Story:

Follow Webdunia Hindi

अगला लेख

हिंदी कहानी: तलवार की धार