निर्मल राजनीति के प्रणेता अटलजी के चरणों में सादर

Atal Bihari Vajpayee
शरद सिंगी
स्वतंत्रता दिवस के जोश, उमंग और उल्लास में राष्ट्र अभी आनंद में सराबोर ही था कि अटलजी के देहावसान की खबर से समूचा राष्ट्र स्तब्ध हुआ, शोक में डूब गया। स्‍वतंत्रता संग्राम के यज्ञ में अनगिनत आहुतियों के पश्चात मिली स्वतंत्रता का मूल्य उनसे बेहतर कौन जानता था?


उन्हीं के शब्दों में अगणित बलिदानों से अर्जित यह स्वतंत्रता, अश्रु स्वेद शोणित से सिंचित यह स्‍वतंत्रता। त्याग, तेज, तप बल से रक्षित यह स्वतंत्रता, दु:खी मनुजता के हित अर्पित यह स्‍वतंत्रता। प्रजातंत्र को परिपक्व करने और स्वतंत्रता की मशाल को अगली पीढ़ी तक ले जाने में अटलजी का योगदान किसी भी आकलन के परे है। किंतु यह कम क्षोभ की बात नहीं है कि हममें से कुछ ऐसे लोग भी हैं, जो अटलजी जैसे महान नेताओं द्वारा सिंचित और पल्लवित इस स्वतंत्रता को अपनी जागीर समझ बैठे हैं।

जब ये लोग भीड़ बनाकर सड़कों पर स्वतंत्रता का चीरहरण करते हैं, तब समूचे राष्ट्र की जनता पुनः अपने आपको बेबस और पराधीन समझने लगती है। अनेक बार हमने पक्षियों को आकाश में एक विशेष आकृति बनाते हुए झुंड में उड़ते देखा है। भेड़ों की रेवड़ को एक दिशा में चलते देखा है। हाथियों को समूह में घूमते देखा है। झुंड में तैरने वाली मछलियों का अनुशासन कई बार एक दर्शनीय अजूबा और पहेली बन जाता है। ऐसे अनेक उदाहरण हैं जिनको देखकर मन में विचार आता है कि एक पक्षी जिसके पास पूरा आसमान है या एक मछली जिसके पास पूरा समुद्र है उसको झुंड के अनुशासन में चलने की क्या आवश्यकता है? उसे किसी के नेतृत्व के पीछे ही क्यों चलना है? ये कौनसा आत्मसंयम है?

जाहिर है प्रकृति ने अधिकांश प्राणियों में कुछ ऐसे सामाजिक गुण डाले हैं जो उन्हें अपने समाज में साथ रहने का सलीका बताते हैं और सामाजिक व्यवस्था को सुरक्षित करते हैं। ये गुण प्राणियों में नैसर्गिक रूप से आते हैं। मनुष्य का बच्चा मनुष्य के बच्चों के साथ ही खेलना पसंद करता है और शेर का बच्चा शेर के बच्चे के साथ। यही समझ प्रकृति की देन भी है और धरोहर भी। जानवरों ने तो इस धरोहर को संभाला, किंतु क्या यह मनुष्य इस धरोहर को सहेज पाया?

विज्ञान कहता है कि मनुष्य और जानवर में मात्र तर्कशक्ति का भेद होता है। देख और सुन तो वे भी सकते हैं, किंतु ज्ञानेन्द्रियों द्वारा संचित सूचनाओं का विश्लेषण करने की क्षमता जो मनुष्य के पास है वो जानवरों के पास नहीं है। अब यहां प्रश्न उठता है कि यदि जानवरों की भीड़ में अनुशासन है जिनमें तर्कशक्ति नहीं होती तो मनुष्यों की भीड़ में अनुशासन क्यों नहीं होता? विशेषज्ञ कहते हैं कि आदमी भीड़ में जानवरों की तरह व्यवहार करता है, किंतु हमने तो जानवरों की भीड़ में जानवरों को कभी जानवरों जैसा व्यवहार करते नहीं देखा।

अतः यह उक्ति हमारी समझ से परे है। इतिहास के कई पृष्ठों पर हमने देखा है कि मनुष्यों की यही भीड़ कभी तो पटरी से उतरे प्रजातंत्र को पटरी पर ला देती है, उपनिवेशवादियों को देश से बाहर धकेल देती है, तो कहीं तानाशाहों को महलों से उतारकर सड़कों पर रगड़ देती है किंतु विडंबना तब होती है जब वही भीड़ स्वतंत्रता को शर्मसार भी कर देती है। ऐसा ही कुछ तमाशा पिछले वर्ष हमने भारत की सड़कों पर देखा है। किसी की हत्या हो, पुलिस की पिटाई हो, सैनिकों का वध हो या संपत्तियों का नुकसान।

क्या ये लोग उस पूर्ण स्वतंत्रता के अधिकारी हैं, जिसकी गारंटी संविधान ने इन्हें दे रखी है। कुछ परिवार तो निश्चित ही इसे स्वीकार नहीं करेंगे, जिनके किसी परिजन की क्षति हुई है। इस स्वतंत्रता दिवस को हम में से अधिकांश लोग शायद सोचने को मज़बूर हों कि क्या स्वतंत्रता की सीमा तय नहीं की जानी चाहिए? या फिर स्वतंत्रता के नाम पर भारत की जनता, हिंसक उपद्रवों को झेलने के लिए मजबूर है? टेलीविज़न की बहसों में राष्ट्र की अस्मिता को चुनौती देने वालों के शब्दों पर लगाम लगाने का कोई तरीका क्यों न हो?

राजनीतिक और धार्मिक मंचों से अन्य समाज, जाति, धर्म अथवा पक्ष पर अपशब्दों के घोष करने वाले देश के तथाकथित कर्णधारों को कलंकित क्यों नहीं किया जाना चाहिए? इस स्वतंत्रता दिवस पर क्यों न हम उस भारत की कल्पना करें जहां भीड़ में जोश तो हो, किंतु उन्माद नहीं। राष्ट्र की विजय हो, व्यक्तिगत जय नहीं। धर्म की जय के लिए अधर्म का सहारा न हो। स्वतंत्रता का खुमार हो, मदहोशी नहीं। व्यवहार में चंचलता हो, उच्छृंखलता नहीं। आचरण मोहक हो, किंतु अभद्र नहीं। इरादे दृढ़ हों किंतु लक्ष्य भी पवित्र हो।

स्वतंत्रता, स्वतंत्रता ही हो स्वच्छंदता नहीं अन्यथा कुछ वहशियों के दुष्कर्मों की वजह से हर बार अग्नि परीक्षा में से भारत माता को गुजरना पड़ता है। स्वतंत्रता पर प्रहार करने वाले ऐसे दुष्कर्मियों को स्वयं अटलजी ने कभी चेतावनी देते हुए कहा था इसे मिटाने की साजिश करने वालों से कह दो, चिंगारी का खेल बुरा होता है। औरों के घर आग लगाने का जो सपना, वो अपने ही घर में सदा खरा होता है। अटलजी के इन अमर शब्दों को स्मरण करना आज स्‍वतंत्रता दिवस के उत्सव का सही समापन और अटलजी को सच्ची श्रद्धांजलि होगी।

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