ऑश्वित्ज : मानव सभ्यता का कलंकित अध्याय

राकेश मित्तल
शुक्रवार, 23 दिसंबर 2016 (17:02 IST)
पिछले दिनों अपनी पोलैंड यात्रा के दौरान मुझे हिटलर की नाजी सेना के 'डेथ कैंप' ऑश्वित्ज-बिरकेनाऊ को देखने का अवसर मिला। यह एक रोंगटे खड़े कर देने वाला अनुभव था। यकीन मानिए उस यात्रा के 2 सप्ताह बाद आज भी मैं पूरी तरह सहज नहीं हो पाया हूं। हम सोच भी नहीं सकते कि आज से मात्र 70-75 साल पहले इसी आधुनिक समाज में किसी एक व्यक्ति की सनक के चलते 13 लाख से ज्यादा निर्दोष व्यक्तियों को जहरीली गैस के चैंबर में बंद करके मार डाला गया था जिनमें बड़ी संख्या में महिलाएं और छोटे बच्चे भी शामिल थे।
द्वितीय विश्वयुद्ध की प्रताड़नाएं, पीड़ाएं और उत्तर प्रभाव भले ही इतिहास के पन्नों में सिमट गए हों, पर वे आज भी लाखों लोगों के जेहन में जिंदा हैं। आधुनिक विश्व के निर्माण में लगी युवा पीढ़ी को भी मानव सभ्यता के इतिहास के इन सबसे स्याह पन्नों के बारे में जानना जरूरी है।
 
इस स्थान को पोलैंड सरकार ने एक स्थायी संग्रहालय का रूप दे दिया है। वर्ष 1979 में इसे यूनेस्को वर्ल्ड हेरिटेज सूची में शामिल कर लिया गया। प्रतिवर्ष लाखों लोग पूरी दुनिया से इसे देखने आते हैं। यह संभवत: विश्व में सबसे अधिक देखा जाने वाला म्यूजियम है|
 
पोलैंड मध्य यूरोप का एक बेहद खूबसूरत और सांस्कृतिक रूप से समृद्ध राष्ट्र है। इस छोटे से देश में 14 यूनेस्को वर्ल्ड हेरिटेज स्थल और 54 ऐतिहासिक महत्व के स्मारक हैं। यूरोपीय इतिहास पोलैंड के उल्लेख के बिना अधूरा है। अनेक आक्रमणकारियों के जुल्म और कत्लेआम के बावजूद यहां के लोगों की जिजीविषा और कड़ी मेहनत ने इसे आज एक आधुनिक संप्रभु राष्ट्र के रूप में स्थापित कर दिया है।
 
1 सितंबर 1939 को जर्मनी ने पोलैंड पर हमला करके द्वितीय विश्वयुद्ध की शुरुआत की थी। इसके कुछ ही समय बाद 17 सितंबर को सोवियत रूस की सेना ने दूसरे छोर से पोलैंड पर आक्रमण कर दिया। इन दोनों देशों की सेनाओं के जुल्म से पोलैंड के नागरिक कई वर्षों तक जूझते रहे। द्वितीय विश्वयुद्ध में पोलैंड के 60 लाख से अधिक सैनिक और आम नागरिक मारे गए थे।
 
हिटलर को यहूदियों से सख्त नफरत थी और वह उनकी नस्ल को जड़ से खत्म कर देना चाहता था। इस लक्ष्य को हासिल करने के लिए उसे एक ऐसे स्थान की जरूरत थी, जहां वह खामोशी और इत्मीनान से इस काम को अंजाम दे सके। पोलैंड पर उसका पूर्ण प्रभुत्व होने और इसके जर्मन सीमा से लगे होने कारण उसे यह सबसे मुफीद जगह लगी।
 
उसने पोलैंड के दक्षिणी छोर पर क्राकोव से 40 किलोमीटर दूर स्थित ओस्विसिम नामक गांव को खाली करवाकर शिविरों के एक संकुल का निर्माण किया जिसे नया नाम 'ऑश्वित्ज' दिया गया। 40 वर्ग किलोमीटर के दायरे में फैले इस संकुल में 3 मुख्य शिविर ऑश्वित्ज-1, ऑश्वित्ज-2 (बिरकेनाऊ) और ऑश्वित्ज-3 (मोनोवित्ज) के अलावा 44 अन्य छोटे शिविर थे।
 
यहां सुरक्षा की व्यवस्था इतनी चाक-चौबंद थी कि परिंदा भी पर नहीं मार सकता था। पूरा क्षेत्र हाई वोल्टेज बिजली के करंट वाले दोहरे कांटेदार तारों से घिरा था और अनेक ऊंचे वॉच टॉवरों के जरिए 24 घंटे जर्मन सैनिकों की सतत निगरानी में रहता था। एक बार अंदर आने के बाद वहां से बचकर निकल भागना लगभग नामुमकिन था। ऑश्वित्ज के मुख्य प्रवेश द्वार पर एक स्लोगन लिखा है जिसका हिन्दी अनुवाद है- 'काम आपको स्वतंत्रता दिलाता है', जो शायद उस समय की सबसे बड़ी व्यंग्योक्ति थी।
 
यूं तो आधिकारिक तौर पर ऑश्वित्ज में लगभग 13 लाख लोगों के मारे जाने के सबूत हैं किंतु ऐसा कहा जाता है कि वास्तविक संख्या इससे कई गुना ज्यादा है, क्योंकि जाते-जाते नाजी सेना अधिकांश सबूत पूरी तरह नष्ट कर गई थी और उन्होंने 95 प्रतिशत गैस चैंबर तथा शिविर डायनामाइट से उड़ा दिए थे। 
27 जनवरी 1945 को उन्हें खदेड़ने के बाद रशियन सेना को जो हाथ लगा, उनमें 7,500 जीवित कैदियों के अलावा 3 लाख 70 हजार जोड़ी पुरुषों के कपड़े, 8 लाख 37 हजार जोड़ी महिलाओं के कपड़े तथा साढ़े 8 टन सिर के बाल भी मिले। ये सारी चीजें अंतिम दिनों में रहने वाले कैदियों की थीं। कहते हैं कि 20 महिला-पुरुषों के सर के बाल शेव करने पर लगभग 1 किलो बाल निकलते हैं। सिर्फ इसी बात से आप कैदियों की संख्या का अंदाजा लगा सकते हैं।

ऑश्वित्ज संग्रहालय से गुजरते हुए मृत कैदियों के कपड़े, जूते, चश्मे, शैविंग ब्रश, खाने-पीने के बर्तन, सूटकेस, पोटेशियम सायनाइड के खाली डिब्बे देखकर सिरहन होने लगती है। दो जर्मन सैनिकों ने कैदियों और कैंप के कुछ फोटो लिए थे, जो नष्ट होने से बच गए। उन्हीं के आधार पर कैंप की कई जानकारियां सामने आईं। आखिरी में जो जिंदा कैदी छुड़ाए गए उन्होंने जर्मन सैनिकों के जुल्म की जो दास्तानें सुनाईं, उन्हें सुनकर रोंगटे खड़े हो जाते हैं।
पोलैंड की हाड़ कंपा देने वाली ठंड में (तापमान माइनस 20 डि.से. से भी कम) कैदियों को एक पतला-सा धारी वाला सूती पाजामा और आधी बांह का शर्ट पहनने को दिया जाता था। इसके अलावा कोई गर्म कपड़ा या कंबल नहीं। पूरी कैद के दौरान (जो मृत्यु के पूर्व कुछ दिन या कुछ माह या कुछ वर्ष भी हो सकती थी) सिर्फ एक जोड़ी ड्रेस ही दी जाती थी, जो बुरी तरह बदबू मारती थी, क्योंकि दिन में सिर्फ दो बार टॉयलेट जाने की इजाजत थी। इसके अलावा यदि उन्हें पाखाना या मूत्र विसर्जन करना हो तो कपड़ों में ही हो जाता था।
 
अक्सर कैदियों को डायरिया के कारण उल्टी-दस्त हो जाया करते थे। उस समय उनके पास बैठना या सोना दूभर हो जाता था। रात में 6 बाय 6 बाय 6 के बैरक में 8-8 कैदी एक-दूसरे के ऊपर हाथ-पैर रखकर सोते थे। ये बैरक 3 मंजिला होते थे जिनमें 1-1 सेंटीमीटर की दूरी पर लकड़ी के पटिए ठुके होते थे। ऐसे में किसी कैदी को डायरिया होने पर सारा मल दूसरों पर गिरता रहता था। 
 
प्रत्येक कैदी को कम से कम 12 घंटे रोज काम करना होता था जबकि उन्हें खाने के लिए सिर्फ 700 कैलोरी भोजन रोज दिया जाता था। एक छोटा बाउल सूप और ब्रेड का टुकड़ा सुबह- शाम। किसी भी तरह की ना-नुकुर पर बुरी तरह मारा जाता था। सबसे कॉमन सजा थी 'स्टैंडिंग सेल' में खड़ा रखना। उन्हें लगातार कई-कई घंटे दिन-रात खड़ा रखते थे और सोना तो दूर बैठने की भी इजाजत नहीं थी। थककर गिर जाने पर कोड़े मारकर फिर खड़ा कर दिया जाता था।
 
गैस चैंबर में मरने के अलावा हजारों कैदी ठंड, भूख, बीमारी और यातनाओं से मर जाते थे। ऑश्वित्ज में एक मेडिकल सेंटर भी था, जहां इन कैदियों पर नई-नई बीमारियों के वायरस के चिकित्सकीय प्रयोग किए जाते थे। हजारों कैदी इन प्रयोगों के दौरान तड़प-तड़पकर मर गए।
ऑश्वित्ज-1 से मात्र 3 किलोमीटर दूर ऑश्वित्ज-2, जिसे बिरकिनाऊ कहा जाता है, स्थित है। यह सीधे रेलवे लाइन से जुड़ा है। द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान पूरे यूरोप से यहूदियों और जिप्सियों को ट्रेनों में भर-भरकर यहां लाया जाता और फिर उन्हें कैंपस के अलग-अलग शिविरों में भेज दिया जाता।
 
ऑश्वित्ज कैंप मई 1940 में शुरू हुआ और जनवरी 1945 तक चलता रहा। शुरुआत में इसका उपयोग पोलैंड के राजनीतिक और युद्धबंदियों के कैदखाने के रूप में किया गया, पर जल्द ही यह कत्लगाह में परिवर्तित हो गया। सितंबर 41 में यहां पहली बार गैस चैंबर में सामूहिक हत्याएं की गईं और फिर दिसंबर 44 तक यह सिलसिला अनवरत चलता रहा।
 
ऑश्वित्ज कैंप को देखना जीवन का एक अविस्मरणीय किंतु दर्दनाक अनुभव है। यकीन नहीं होता कि इसी दुनिया के इसी तथाकथित सभ्य समाज में यह सब कुछ घटित हुआ था।
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