इस बारिश जरा मन का आकाश बरसाइए...

प्रज्ञा पाठक
बारिश का सुहावना मौसम है। प्रकृति अति संपन्न दिखाई दे रही है। थोड़ा धार्मिक हो जाएं, तो कह सकते हैं कि आकाश अर्थात परमात्मा की कृपा स्वरूप बरसने वाले जल को पाकर धरती भी प्रतिदान स्वरूप अन्न, फल, फूल देती है। 
 
तनिक चारों ओर फैले इस अद्भुत नजारे को दिल की गहराई में अनुभूत कर देखिए। देन-लेन का यह महान दृश्य, जिस पर हमारी सृष्टि का जीवन अवलंबित है। देने में जो कल्याणमयी उदारता है, लेने और लेकर पुनः देने में भी वही सर्वजनहिताय का सुंदर भाव है।

 
मार्ग में दूर दूर तक फैली हुई फसलों की हरियाली और वृक्षों की संपन्नता इसी उच्च भाव की मनोरम व सुखद अभिव्यक्ति है। मन में सहज ही विचार आया कि इससे मनुष्य भी तो ऐसा कुछ सार्थक ग्रहण कर सकता है ,जो उसका और उससे जुड़े लोगों का जीवन पहले से अधिक बेहतर बना सके। 

 
बारिश की ही तरह हम भी अपने भीतर के स्नेह, दया, क्षमा, समंवय ,सहयोग और परोपकार को अपने परिजनों, मित्रों व परिचितों पर बरसाएं। मनुष्य होने के नाते ये भाव हमारे अपने हैं, बल्कि इनके होने के कारण ही हम मनुष्य कहलाते हैं। फिर इन्हें देने में कंजूसी या संकोच कैसा ?

 
सभी के साथ सद्भाव रखें। यथासंभव नकारात्मक भावों से दूर रहें। आप अपने व्यक्तित्व को नवनीत की भांति बना लें, जो असत् की छाछ को बिलोकर ही प्राप्त होगा। अंतर जितना स्वच्छ होगा, बाह्य उतना ही सुखद अनुभूत होगा।
 
 
वस्तुतः हम जब सद्भावों को जीते हैं, तो अपने मूल अस्तित्व को जीते हैं जो ईश्वरप्रदत्त हैं। इसलिए प्रसन्नता मिलना स्वाभाविक है और जब दुर्भाव हमारी जीवनशैली बनते हैं, तो जो कुटिल आनंद प्राप्त होता है, वह स्थायी सुख प्रदान नहीं कर पाता। क्योंकि अपनी आत्मा में वह जो 'गलत' किया है, 'नीतिविरुद्ध' किया है, निरंतर कचोटता रहता है।
 
 
अंततः हासिल दुख और वेदना ही होते हैं, जबकि स्नेहमयी मानव दुःख उठाकर भी 'भीतर' से तृप्त बना रहता है क्योंकि वह आत्मा के विरुद्ध गया ही नहीं। अन्य शब्दों में कहें, तो मूल अस्तित्व के साथ खड़ा रहने वाला सदा सुखी होता है।
 
बहरहाल बात का सार यह कि जो कुछ भीतर अच्छा है, सुखद है, तृप्तिदायक है, वह सारा दूसरों पर पूरे मन-भाव से उड़ेलिए। यहां कृपणता नहीं, उदारता रखिए। आपको न संशय करना है, न दृष्टि संकुचित रखनी है। जब, जो, जहां मिले ह्रदय की गहराइयों से उसका अभिनंदन कीजिए। दो बोल ही सही लेकिन स्नेहपगे कहिए। कोई सहायता या सेवा का अपेक्षी हो, तो अपनी शक्ति भर कर दीजिए। अभी किसी कारणवश ना कर पाएं, तो क्षमा मांगकर भविष्य के लिए साथ खड़े होने का विश्वास दें। लेकिन दुत्कारें नहीं, कन्नी न काटें, उपेक्षा न दें।
 
 
हम भी तो इसी दुनिया में हैं। हम पर भी कष्ट आते हैं, आएंगे, आते रहेंगे। तब हमें भी सद्व्यवहार की जरुरत होगी, नेह-स्पर्श की आस होगी। फिर हम भी तो स्वयं के प्रति दूसरों से स्नेह, सहयोग, सम्मान चाहते हैं। तो फिर पहले देना जरूरी है क्योंकि देकर ही तो अपेक्षा रखने के पात्र हो पाएंगे।
 
 
इस बारिश यही संकल्प हो कि अमानवीयता से तपती इस धरती पर अपने स्नेह-राग की शीतल बूंदें दिल खोलकर बरसाएंगे। अपने ह्रदय के द्वार स्वार्थ नहीं बल्कि समरसता के साथ सभी के लिए खोलेंगे ।

 
मेरा विश्वास है कि यह उदात्तता कहीं तो कुछ सकारात्मक सृजित करेगी। विशाल उपलब्धियों की पृष्ठभूमि में लघु प्रयासों की महती भूमिका होती है। आप आकाश भर बरसाएंगे, तो धरती भर प्राप्त भी होगा। भले ही यह 'धरती भर' समूचा समाज न सही, किंतु उसका एक वर्ग तो अवश्य ही आपके द्वारा प्रशस्त प्रकाश-मार्ग पर आगे बढ़ेगा।

 
और फिर कोई कुछ प्रतिसाद दे अथवा न दे, आप मन के आकाश से जो भी सत् बरसाएंगे वह आत्मा की धरती को तो सुकून की हरियाली से आच्छादित कर ही देगा और आत्मा के सुख से बड़ा भला कोई सुख होता है?

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