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बिहार चुनाव परिणाम : स्त्री-पुरुष समता, सामाजिक न्याय, विकास व हिंदुत्व का सम्मिलित परिणाम

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अवधेश कुमार

, शनिवार, 22 नवंबर 2025 (09:59 IST)
तो बिहार के मतदाताओं ने एकपक्षीय जनादेश दिया। यह धारणा पिछले डेढ़ दशकों में ध्वस्त हो चुकी है कि रिकॉर्ड संख्या में मतदान होने का अर्थ सत्ता विरोधी रुझान है। मतदान घटने या बढ़ने से सत्ता के जाने या बने रहने का सामान्यतः कोई सीधा संबंध नहीं रहा। बिहार में 66.91% अभूतपूर्व मतदान ने इसे फिर साबित किया है।ALSO READ: नीतीश कुमार के रिकॉर्ड 10वीं बार बिहार के मुख्यमंत्री पद की शपथ लेने की इनसाइड स्टोरी?
 
बिहार विधानसभा चुनाव परिणाम ने केवल उन लोगों को चौंकाया होगा जो वस्तुस्थिति से दूर कल्पनालोक में थे या भांपते हुए भी परिणाम आने तक सच स्वीकारने को तैयार नहीं थे। कांग्रेस अब राहुल गांधी के नेतृत्व में पराजय वाले परिणामों को स्वीकार करने के लिए तैयार ही नहीं। उन्हें महाराष्ट्र, हरियाणा और कर्नाटक तक में वोट चोरी दिखा और बिहार में भी यही होगा। बिहार की राजनीति की पिछले तीन दशकों के साथ वर्तमान स्थिति समझने वालों के लिए यह बिल्कुल स्वाभाविक परिणाम है।
 
मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के नेतृत्व में जद यू भाजपा सरकार ने व्यापक जन समूह के विरुद्ध ऐसा कुछ नहीं किया जिनसे असंतुष्ट होकर उसे सत्ताच्यूत कर दें। तेजस्वी यादव के नेतृत्व वाला विपक्ष सरकार में रहकर या विरोधी समूह के रूप में जनसमूह में सरकार विरोधी आलोड़न पैदा नहीं किया कि इन्हें सत्ता देने के लिए एकजुट हो जाए। वास्तव में चुनाव के दौरान लोगों से बात करने पर साफ दिखाई देता था कि नीतीश सरकार को लेकर प्रदेश स्तर पर कोई सामूहिक असंतोष है ही नहीं। 
 
तीसरी शक्ति के रूप में खड़े होने की कोशिश कर रही जन सुराज को गांव तक लोग अवश्य जानते थे, दल के रुप में जनसुराज के सीधे मतदाता नहीं मिलते थे। कुछ उम्मीदवारों के समर्थन में अवश्य लोग थे। महिलाओं का मत पुरुषों की तुलना में अधिक होना चुनाव परिणाम का बहुत बड़ा संकेतक था।अगर संक्षेप में इन्हीं बिंदुओं को आधार बना दें तो चुनाव परिणाम आसानी से समझ आ जाएगा। 
 
यह परिणाम एक साथ प्रदेश और केंद्र के शासन की निरंतरता, विकास, हिंदुत्व, लैंगिक समानता सहित सामाजिक न्याय के कदमों की सम्मिलित परिणति है। सम्पूर्ण विपक्ष विशेषकर कांग्रेस द्वारा नकारात्मक व्यवहारों के विरुद्ध जन प्रतिक्रिया भी इसमें शामिल है। गठबंधनों वाले चुनावी संघर्ष में प्रदर्शन इस पर निर्भर करता है कि आप एकजुट होकर एक स्वर में बोलते हुए किस तरह मुद्दों, वक्तव्यों और रणनीति पर एकरूपता प्रदर्शित करते हैं। 
 
केंद्र में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और राज्य में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के नेतृत्व वाला राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन पहले दिन से एकजुट दिखाई दिया। थोड़े बहुत मतभेद होते हुए भी इन्होंने सीटों का बंटवारा कर सार्वजनिक घोषणा कर दी। विपक्षी गठबंधन जिसे महागठबंधन कहा गया था उसकी कोई बैठक सार्वजनिक रूप से होती नहीं दिखी। सभी ने अपने उम्मीदवार खड़े कर दिए। ऐसा संदेश निकला कि केवल भाजपा को हराने के नाम पर साथ हैं अन्यथा उनके बीच एकजुटता नहीं है। 
 
तेजस्वी यादव को नेता घोषित करने में भी काफी देरी हुई क्योंकि कांग्रेस इसे स्वीकारने को तैयार नहीं थी। तेजस्वी के नेतृत्व की घोषणा के समय राहुल गांधी, मल्लिकार्जुन खड़गे ही नहीं प्रदेश अध्यक्ष तक वहां उपस्थित नहीं थे। अशोक गहलोत और पवन खेड़ा की उपस्थिति में घोषणा हुई । दूसरी ओर भाजपा ने लगातार घोषणा किया कि हम नीतीश कुमार के नेतृत्व में चुनाव लड़ रहे हैं।
 
विपक्षी गठबंधन को पिछले चुनाव में चिराग पासवान के लोजपा आर के विद्रोही हो जाने का लाभ मिला था। अगर लोजपा 137 सीटों पर उम्मीदवार खड़ा कर भी राजद कांग्रेस को सत्ता तक नहीं पहुंचा सकी और इस बार वह राजग में है। उपेंद्र कुशवाहा का रालोमो पिछली बार अलग गठबंधन में था। तो राजग ने दो सामाजिक आधारों वाले नेता को  जोड़ा और दूसरी ओर केवल एक मुकेश साहनी की वीआईपी थी। 
 
मुकेश सहनी संपूर्ण सहनी समाज का प्रतिनिधित्व कर लेंगे शायद यही सोचकर उन्हें उपमुख्यमंत्री का उम्मीदवार बनाया गया। परिणाम बताते हैं कि ऐसा हुआ नहीं। कांग्रेस की पूरी रणनीति वोट चोरी तथा चुनाव आयोग के विरुद्ध अभियानों तक सीमित रहा।

बिहार में कहीं ऐसे लोग नहीं निकले जिन्होंने जानबूझकर मतदाता सूची से नाम काटने का आरोप लगाया इसलिए जमीन पर यह मुद्दा नहीं था बल्कि इसके विपरीत प्रतिक्रिया थी। कांग्रेस उम्मीदवारों तक ने इसे मुद्दा नहीं बनाया। जो है नहीं उसे आप प्रमुख मुद्दा बनाकर चुनाव अभियान चलाएंगे तो परिणाम क्या आएगा?
 
महिलाएं ज्यादा संख्या में किनके लिए वोट डालने निकलीं थीं? महिलाओं की भागीदारी 71.6 प्रतिशत रही। कुल 2.51 करोड़ महिलाओं ने मत डाला, जबकि पुरुष मतदाता 2.47 करोड़ रहे। महिलाओं का मत पुरुषों से 4.34 लाख अधिक था। 2020 में 2.08 करोड़ महिलाओं ने मतदान किया था।

इसकी तुलना में महिलाओं का मत 43 लाख अधिक रहा। यह यूं ही नहीं हुआ श। नीतीश कुमार के नेतृत्व में सरकार ने आरंभिक दिनों से महिलाओं को समाज की मुख्यधारा में लाने के लिए अभूतपूर्व कार्य किया। बच्चियों को शिक्षा के लिए प्रोत्साहन के उद्देश्य से साइकिलें , पुस्तकें ,वस्त्र, स्कॉलरशिप दिए गए। स्थानीय शासन में उन्हें 33% आरक्षण मिला और बाद में सरकारी नौकरियों में भी। 
 
केंद्र ने प्रधानमंत्री आवास योजना से लेकर कई कल्याणकारी कार्यक्रमों में महिलाओं को प्रमुखता दी। इन सबसे बिहार की महिलाओं का मनोविज्ञान बदला हुआ है। जिन बच्चियों को 2005 -10 में पढ़ाई की सुविधा मिली अगर वह 15 से 20 वर्ष की थीं तो आज 35 से 40 वर्ष की हो चुकी हैं और उनकी दूसरी पीढ़ी को लाभ मिल रहा है।

जीविका दीदी से लेकर छोटे-छोटे रोजगार के लिए 10 हजार रुपए खाते में जाना इन्हीं सबका अगला कदम था। इनकी आप जीतनी आलोचना करिए लेकिन महिलाओं के अंदर घर में रहकर छोटे-छोटे काम कर थोड़े धन उपार्जन की प्रवृत्ति गांव में देखी जा सकती है। यह राजग का ऐसा वोट बैंक है जिसे तोड़ना आसान नहीं।
 
भारत के किसी भी चुनाव परिणाम का आकलन करते समय हमें ध्यान रखना चाहिए कि हिंदुत्व और राष्ट्र भाव के आधार पर भाजपा का एक ठोस जनाधार पूरे देश में है। वह चुनाव हारे या जीते एक निश्चित मत उसके खाते जाना ही है। बिहार में हर जाति के लोग लोगों में भाजपा के ऐसे मतदाता सामने आते थे।  हमारी समस्या यह है कि हम मान कर चलते हैं कि बिहार में जाति के परे चुनाव का विश्लेषण नहीं हो सकता। जातियां एक कारक हैं। 
 
इस बार डरावना और शर्मनाक तस्वीर बिहार में दिख रही थी जब छोटी-छोटी जातियों का समूह बनाकर नेता अपने को जनाधार वाला साबित कर रहे थे। एक समय बिहार में पिछड़े -अगड़ों की बात होती थी, इस बार ऐसा लगता था जैसे पूरा बिहार इतने जातीय आधारों में बंट चुका है कि अब इसका बाहर निकलना असंभव है। चुनाव परिणाम इस मायने में आशाजनक संकेत है। मतदाताओं के एक बड़े वर्ग ने जातियों से ऊपर उठकर भूमिका निभाया तभी ऐसा परिणाम आया। इसका संकेत और संदेश ऐसे नेताओं के सामने स्पष्ट है। 
 
सभी दलों के नेताओं को समझना चाहिए कि हम आप किसी जाति से हैं पर 24 घंटे हमारे अंदर केवल जाति भाव नहीं रहता। वैसे भी बिहार में जिन्हें अगड़ी कहा जाता था उन्होंने पिछड़ों- दलितों के साथ लगभग अपने सामान्य संबंध बनाए हैं।

पंचायत से लेकर लोकसभा चुनावों तक एक दूसरे के लिए काम करते हैं मत देते हैं। आपस के खान-पान भी काफी बढ़े हैं। यह दुर्भाग्य है कि राजनीतिक नेताओं ने इस आशाजनक सकारात्मक सामाजिक परिवर्तन को आगे बढ़ाने की जगह वोट के लिए जातीय भाव  को और सशक्त करने की कोशिश की। 
 
निष्पक्षता से अध्ययन करें तो निष्कर्ष निकलेगा कि बहुत बड़े वर्ग के लिए चुनाव में जाति कारक नहीं था। अगर यादवों की एक छोटी संख्या ही अररिया, बिस्फी, केवटी, किसनगंज, पूर्णिया जैसे स्थानों पर भाजपा या राजग उम्मीदवारों को मत दे रहा था तो साफ है कि यह प्रवृत्ति आगे बढ़ाई जा सकती है।

वस्तुत: बिहार चुनाव परिणाम ने साबित किया है कि राजनीतिक तत्व और शासकीय नीतियों में स्त्री पुरुष समता को केंद्र बनाकर सामाजिक न्याय, विकास, कानून व्यवस्था तथा हिंदुत्व के साथ राष्ट्रीय भाव का समायोजन हो तो धीरे-धीरे बहुसंख्यक जातीय परिधि को तोड़कर आगे आ सकता है।ALSO READ: Bihar Election: बिहार विधानसभा चुनाव की 10 सबसे बड़ी जीत

(इस लेख में व्यक्त विचार/विश्लेषण लेखक के निजी हैं। 'वेबदुनिया' इसकी कोई ज़िम्मेदारी नहीं लेती है।)

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