पिछले दिनों अख़बारों में एक खास खबर के रूप में नौसेना पायलट का अनूठे अंदाज का निमंत्रण पढने में आया। जिसमें उसने लिखा था- शांतिकाल में स्वेच्छा से बलिदान देना चाहता हूं। फैसले का दोबारा मूल्यांकन करने का मौका अब मेरे पास नहीं है। कम समय में अपने ऊपर बम गिराना पड़ रहा है। जिसमें इस बात के लावा युद्ध, बम, बलिदान, योद्धा, विवाहरूपी शमशान, आत्मघाती गलती, बर्बादी व आकर खेद जताएं जैसे कई बचकाना बातें जो शायद उनके लिए महत्वपूर्ण व उपहास पूर्ण थीं, जैसे शब्दों का इस्तेमाल था। जवाब में अफसर ने भी ‘ नरक में आपका स्वागत है’ लिखा। यह पत्र ‘बाईट द बुलेट’ नाम से ट्विटर पर ट्रेंड भी रहा। अफसर ने साथ ही यह भी कहा कि ‘हर अच्छी चीजों का अंत होना ही है’।
निश्चित ही दोनों काफी पढ़े-लिखे होंगे, भारतीय हैं, देश से प्यार भी होगा, देश से प्यार होगा तो संस्कृति व परम्पराएं भी जानते होंगे, परम्पराएं जानते होंगे तो शादी-विवाह की महत्ता भी जानते होंगे, महत्ता जानते होंगे तो नारी का सम्मान भी जानते होंगे, नारी का सम्मान जानते होंगे तो ये भी जानते होंगें कि यदि ऐसा कुछ, वो कन्या जिससे वो विवाह करने जा रहे हैं ऐसे ही कुछ उनके लिए लिख देती तो? चलो लिख देती ये माफ़ भी कर देते तो क्या ऐसा होना चाहिए।
यदि कोई अति आधुनिकता का चोंगा पहनने वाला ढोंगी इनकी इन सार्वजनिक रूप से हुई बातों का समर्थन करता है, और सारे अखबार इसे अपनी ख़बरों में प्रमुखता से जगह देते हैं तो जरा विचार कीजिए कि हम कहां जा रहे हैं? खतरा हमें अनपढ़, गवांरों से जितना नहीं है उससे ज्यादा तो पढ़े-लिखे गवांरों और समझदार मूर्खों से है। यह भी कह कर ख़ारिज किया जा सकता है कि यह हमारा निजी मामला है। आपको क्या करना।
कई इसे अभिव्यक्ति की आजादी का कफ़न भी पहनाएंगे। पर क्या इन देश के उच्चकोटि के लोगों से ऐसी उम्मीद की जा सकती है। वो भी शादी जैसे मामले में? उस पर अख़बारों को खास खबर के रूप में छापना क्या हमें चेता नहीं रहा है आने वाले मानसिक/बौद्धिक पतन के दिवालियापने से उत्पन्न होते खतरों से। समाज की दृष्टि से भले ही आप विवाहित जीवन को श्रेष्ठ व व्यक्ति की दृष्टि से अविवाहित जीवन को श्रेष्ठ मानते हों पर चयन के लिए तो आप ही जिम्मेदार हैं न।
‘यावज्जायां न विदंते।।।।असर्वो हि तावद् भवति” – शतपथ ब्राह्मण (5/2/1/10)
मनुष्य जब तक पत्नी नहीं पाता,तब तक अपूर्ण रहता है।
ऐसी बहुसंस्कृति, बहुधर्म राष्ट्र के हम अनुयायी, जिनमें किसी भी धर्म में विवाह का किसी भी रूप में कभी भी मखौल का वर्णन नहीं हुआ है। उसे ईश्वर के सामने स्वीकारने का पावनसंस्कार ही बताया गया है। सनातन परंपरा में आश्रम धर्म के अंतर्गत गृह्स्थाश्रम की सभी ऋषियों ने मुक्त कंठ से प्रशंसा की। इनका मत है कि चारों आश्रमों में गृहस्थाश्रम सर्वश्रेष्ठ है क्योंकि शेष तीनों इसी पर निर्भर हैं। इसी से सृष्टि का संचालन होता है।
अन्यथा मनुष्यों व पशुओं की सृष्टि में कोई अंतर नहीं रहता है। वैदिक और पुराण काल के सभी ऋषियों, मनीषियों ने गृहस्थाश्रम की इसलिए भी सराहना की है क्योंकि इसमें सांसारिक दयित्वों को पूरा करते हुए मुक्ति के मार्ग पर बढ़ने का प्रयत्न किया जा सकता है। मानव के सोलह संस्कारों में केवल सन्यासियों को छोड़ कर शेष सभी के लिए इसका ज्ञान इतना आवश्यक है कि ब्रह्मचारी होते हुए भी आदि शंकराचार्य ने परकाया प्रवेश के माध्यम से गृहस्थ जीवन का ज्ञान अर्जित किया। भगवान सूर्य से शिक्षा लेते समय हनुमान जी को भी गृहस्थाश्रम का ज्ञान देने की जब आवश्यकता पड़ी तो गुरु सूर्य ने अपनी पुत्री सुवर्चला का विवाह हनुमान जी से किया, ऐसी कथा प्राप्त होती है।
आज भी हनुमान जी और उनकी उक्त पत्नी सुवर्चला का मंदिर आंध्रप्रदेश के खम्मम जिले में स्थित है। मध्य काल में बाहरी आक्रमण के कारण संत महात्माओं के भी कुछ मामलों में पारिवारिक जीवन में कटु अनुभव रहे होंगे और कुछ विदेशी संस्कृति का कुप्रभाव रहा होगा जिससे विवाह की हंसी उड़ाने और पत्नी को मजाक का पात्र बनाने की बातें कहने की शुरुवात हुई। ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि हमारी संस्कृति में विवाह तो जन्म जन्मान्तर का बंधन है।
जबकि विदेशी संस्कृति में यह केवल समझौता होता है। हमारी संस्कृति में तो भगवान राम का अश्वमेघ यज्ञ भी पत्नी के बिना पूरा नहीं हो पा रहा था। हमारे देश में विवाह दो व्यक्तियों, दो समाजों, दो परिवारों का ही नहीं अपितु दो आत्माओं का और इससे भी आगे बढ़ कर प्रकृति और पुरुष का मिलन माना गया है। जो जीव को ब्रह्म से, आत्मा को परमात्मा से तथा शक्ति को शिव से मिलाता है। इसलिए प्राचीन किसी भी विवाह में किसी भी प्रकार के उपहास या व्यंग या तानाकशी का कोई विवरण नहीं मिलता।
विवरण यदि मिलता है तो धर्म का, संस्कार का, आनंद का उत्सव का और पारस्परिक सम्मान के साथ प्रगति की चाह का। यहां तक कि शिव-पार्वती के विवाह के समय, सबसे अद्भुत माने जाने वाली शिव की बारात भी हिमवान के द्वार पर पहुंच कर परम् सुंदर रूप में परिवर्तित होती है और यह सन्देश देती है कि अब सब प्रकार का मनो-विनोद समाप्त हो कर संस्कारों से भरा स्वर्गिक जीवन का आरम्भ हो चला है।
असल में हम मनुष्यों को कुछ अलग, कुछ अनोखा, सबसे अलग, हटकर कुछ कर डालने का जो शौक है वह बुद्धि को कुंद कर देता है। सोचने विचारने की क्षमता उत्तेजना में क्षीण हो जाती है। हम तो साधारण मानव हैं जबकि संत पुरुष कहलाये जाने वाले विद्वानों ने तो शमशान में विवाह तक करवा दिए। ऐसा क्या है इस विवाह में जो आपको इतना खतरा महसूस होता है। उसकी इतनी विभत्स व्याख्या करने की क्या जरुरत आन पड़ी?
जिम्मेदार मिडिया को इसे क्या इस तरह प्रमुखता से छापना था? जो लोग मशीनीयंत्रों को आसानी से युध्द जैसी विकट व संकट कालीन विपरीत परिस्थिति में देश की रक्षा का भर उठाने का माद्दा रखते हैं उनसे क्या इस पावन, खूबसूरत महकता गृहस्थ जीवन का भार ख़ुशी-ख़ुशी नहीं स्वीकार किया जाता?
आखिर ऐसा क्यों है की समय के साथ साथ पति-पत्नी, विवाह-शादी सब घटिया हास-परिहास का निजी कुंठित मानसिकता का सार्वजनिक अभिव्यक्ति का कारण बनते जा रहे है? जरुरत है कि हम तथाकथित आधुनिकता के फूहड़ मनोरंजन के इस दावानल से अपने सनातन सांस्कृतिक मूल्यों की रक्षा करें। अन्यथा इतिहास हमें कभी माफ़ नहीं करेगा।