यारों के बगैर अधूरे हैं जिंदगी के फलसफे

वीरेंद्र नानावटी
इंसानी जिंदगी के फलसफे यारों के बगैर अधूरे और कोरे हैं.. वक़्त के पन्नों पर दोस्तों के दस्तख़त ज़रूरी है.....
 
....जब मैं अपने पिता से, विवाह के बाद की व्यस्त जिंदगी, जिम्मेदारियों और उम्मीदों के बारे में अपने ख़यालात का इज़हार कर रहा था, तब वह बहुत गंभीर और शालीन खामोशी से मुझे सुनते जा रहे थे। 
 
अचानक उन्होंने कहा, 'अपने दोस्तों को कभी मत भूलना!' उन्होंने सलाह दी, 'तुम्हारे दोस्त उम्र के ढलने पर तुम्हारे लिए और भी महत्वपूर्ण और ज़रूरी हो जाएंगे।'
 
'बेशक अपने बच्चों, बच्चों के बच्चों और उन सभी के जान से भी ज़्यादा प्यारे परिवारों को रत्ती भर भी कम प्यार मत देना, मगर अपने पुराने, निस्वार्थ और सदा साथ निभानेवाले दोस्तों को हरगिज़ मत भुलाना। वक्त निकाल कर, उनके साथ समय ज़रूर बिताना। मौज मस्ती करना। उनके घर खाना खाने जाना और जब मौका मिले उनको अपने घर बुलाना। कुछ ना हो सके तो फोन पर ही जब तब, हाल चाल पूछ लिया करना।'
 
मैं नए-नए विवाहित जीवन की ख़ुमारी में था और बाबूजी मुझे यारी-दोस्ती के फलसफे समझा रहे थे। लेकिन मैंने आगे चल कर, एक सीमा तक उनकी बात माननी जारी रखी। मैं अपने गिने-चुने दोस्तों के संपर्क में लगातार रहा। संयोगवश समय बीतने के साथ उनकी संख्या भी बढ़ती ही रही। 
 
कुछ वक्त बाद मुझे अहसास हुआ कि उस दिन मेरे पिता प्रवचन के मिजाज से नहीं, उम्र के खरे तज़ुर्बे से मुझे समझा रहे थे। उनको मालूम था कि उम्र के आख़िरी दौर तक जिंदगी क्या और कैसे करवट बदलती है।
 
हकीकत में जिंदगी के बड़े से बड़े तूफानों में दोस्त कभी मल्लाह बनकर, कभी नाव बन कर साथ निभाते हैं और कभी पतवार बन कर। कभी वह आपके साथ ही जिंदगी की जंग में कूद पड़ते हैं। 
 
सच्चे दोस्तों का काम एक ही होता है- दोस्ती। उनका मजहब भी एक ही होता है- दोस्ती। उनका मकसद भी एक ही होता है- दोस्ती!
 
जिंदगी के पचास साल बीत जाने के बाद मुझे पता चलने लगा कि घड़ी की सुइंयां पूरा चक्कर लगा कर वहीं पहुंच गईं यीं थी, जहां से मैंने जिंदगी शुरू की थी। 
 
विवाह होने से पहले मेरे पास सिर्फ दोस्त थे। विवाह के बाद बच्चे हुए। बच्चे बड़े हुए। उनकी जिम्मेदारियां निभाते-निभाते मैं बूढा हो गया। बच्चों के विवाह हो गए। उनके कारोबार चालू हो गए। अलग परिवार और घर बन गए। बेटियां अपनी जिम्मेदारियों में व्यस्त हो गईं। बेटे-बेटियों के बच्चे कुछ समय तक दादा-दादी और नाना-नानी के खिलौने रहे। उसके बाद उनकी रुचियां मित्र मंडलियां और जिंदगी अलग पटरी पर चलने लगीं।
 
अपने घर में मैं और मेरी पत्नी ही रह गए। 
 
वक्त बीतता रहा। कुर्सियां जाती रही... सत्ताएं इतराती रही... लाभ-शुभ और लेन-देन के गणित बदलते रहे... चेहरों की नक़ाबें बदलती रही.. पीतल पर चढ़े सोने के मुलम्मे उतरते गए... रिश्तों में बहीखाते घुस गए... वफ़ादारियां रक्काशाएं हो गई....पुरखों की वसीयतों ने परिवारों के प्यार और पुण्य का श्राद्ध कर दिया..... साथ जीने का जो जज़्बा जहां था.... वहां साजिशें मुक़्कमल हो गई.... रक्त के रिश्ते घात-प्रतिघात में बदल गए.. जिंदगी का पहिया.. वक्त की धुरी पर घूमता रहा....
 
लेकिन......????
 
एक चीज कभी नहीं बदली, मेरे मुठ्ठी भर पुराने दोस्त। मेरी दोस्तियां ना तो कभी बूढ़ी हुईं, ना रिटायर। 
 
आज भी जब मैं अपने दोस्तों के साथ होता हूं , लगता है अभी तो मैं जवान हूं  और मुझे अभी बहुत से साल ज़िंदा रहना चाहिए। 
 
सच्चे दोस्त जिंदगी की ज़रूरत हैं, कम ही सही कुछ दोस्तों का साथ हमेशा रखिए, कमबख्त कितने भी अटपटे, गैरजिम्मेदार, बेहूदे और कम अक्ल क्यों ना हों, जिंदगी के बेहद खराब वक्त में उनसे बड़ा योद्धा और चिकित्सक मिलना नामुमकिन है।
 
अच्छा दोस्त दूर हो चाहे पास हो, वो आपके दिल में धड़कता है। 
 
सच्चे दोस्त उम्र भर साथ रखिए। जिम्मेदारियां निभाइए। 
 
लेकिन हर कीमत पर यारियां बचाइए। उनको सलामत रखिए। ये जिंदगी की कमाई है, इसे सहेज कर रखिए...।
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