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Relationship : आखिर इसमें ऐसा क्या है??

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डॉ. छाया मंगल मिश्र

उनकी शादी के चालीस साल होने को आए। उन्होंने प्रेम विवाह किया था। तब से ले कर आज तक उनमें यही खोजा जाता है कि ‘आखिर इसमें ऐसा क्या था जो इससे ब्याह किया?’ कई अटकलें लगाईं जाती। उनके चरित्र को परखा जाता। नजरों के तराजू में उनका किरदार तोला जाता। उनका खानदान, परवरिश, शिक्षा-दीक्षा सभी पर सवाल खड़े होते। कई जगह तो ‘बदचलन’ का तमगा भी मिल जाता। 
 
यदि लड़की समझदार है निबाह की चाहत है, पति के प्यार का सहारा है और सच्चे दिल से परिवार को अपना कर जीने की इच्छा रखती है तो उसे हर घड़ी परीक्षा देनी होगी। उसकी गलतियों या भूल पर इस बात को सुनना होगा कि ‘हमारी पसंद की होती तो ऐसा नहीं करती।’ घर के बच्चों के लिए वो अजूबा होती है। उसकी गतिविधियां बच्चों को प्रभावित न करें इसका ख्याल रखा जाता। खासकर हमउम्र लड़कियों पर पूरी चौकीदारी की जाती, उन्हें उसके साथ उठने-बैठने पर पाबंदी होती ये कहने के साथ के “इनके सरीखा नाम ‘रोशन’ करना सीखोगी...  

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चालीस साल बीतने को आए। वे जानती थीं कि न वे सुंदरी थीं, न धन्नासेठ की बेटी, न ही उनमें सुरखाब के पर थे। पर फिर भी वे खुश मिजाजी और जिन्दादिली की खूबसूरती से भरपूर थीं। आंखों में सबके लिए मान और स्वाभिमान की चमक थी। उससे भी बड़ा था समर्पण का भाव। अपनत्व की भावना से बच्चे-बड़े सभी का मन जीतने की कोशिश करतीं रहीं। संयुक्त परिवार के राग-द्वेष, मान-अपमान, अपनेपन-जलन, सारे ज़माने की ऊंच नीच सहन करते, सबके लिए सबके साथ यथाशक्ति साथ निभातीं। उन्होंने जैसे तैसे परिवार में अपनी एक जगह बनाई। जिसमें परिवार के सभी सदस्यों ने भी उनका समय रहते साथ दिया। उन पर, उनकी प्रतिभा पर विश्वास किया। उनकी अपनी एक छोटी ही सही, अपनी पहचान है। उनके पति भी गणमान्य, नामी व्यक्ति हैं। वे उनके स्वभाव के कारण ही उन्हें पसंद करते थे। उनका चुनाव उनकी अपनी निजी पसंद था।
 
आज इतने वर्षों बाद एक कार्यक्रम में हम सभी बैठे थे। उनके परिवार की महिला सदस्यों का जमावड़ा भी था। उनमें बेटियां-भतीजियां भी बहुओं के साथ थीं, वही बेटियां-भतीजियां जो एक समय में उन्हें अपना आदर्श मानतीं थीं, समय के साथ उन्हें अपनी ‘कॉम्पिटिटर’ मानने लगीं। बहुओं को वे ज्ञान बांट रहीं थीं कि ‘देखो ऐसा इनमें क्या था जो काका को पसंद आईं।’ पर किसी के कहने पर कि ‘वे हमेशा अच्छा सभी का ध्यान रखती, असीम प्यार-अपनत्व का भाव है, परिवार का हित चाहतीं हैं। उन्होंने अपनी एक पहचान तो बनाई है न। अपन भी तो उसी परिवार के हैं। अपन क्या कर पाए?’ 

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इस पर उनका “कुतर्की जवाब” था-‘कोई नी वो तो काका ने उनको कहां से कहां पहुंचा दिया...कुछ नी था इनमें...’ सुन कर ऐसी सोच पर धिक्कार हो आया।मां समान रिश्ते के लिए ऐसी बातें बोलना केवल उसकी जलन दर्शा रहा था। कोई जोड़ नहीं है उनकी। उम्र और रिश्तों में इतना अंतर होने के बाद उनके स्वभाव और परिवार निभाने की कला, सेवा भावना को आदर्श बनाने के बजाय, ये घर से इकलौती बहू अपनी सासू-ननदों को तो निभा न पायीं और दौड़-दौड़ पीहर आ कर अपनी भाभी का जीवन नरक किऐ रहती है और उनके लिए इतनी दुर्भावना पाल के बैठी है जिससे उनको कोई फर्क नहीं पड़ने वाला।  
 
पर इतना जरूर है कि मध्यमवर्गीय नौकरीपेशा परिवारों में आज भी दूसरे वर्गों की अपेक्षा निरंतर आकलन की अग्निपरीक्षा चलती रहती है। सफल दाम्पत्य को अटकलों से झुठलाने का दौर चालू रहता है। हो सकता है कि कहीं पुरुषों की भूमिका भी होती हो पर घर से बाहर तक की लड़कियां, युवतियां हर उम्र की औरतें बार बार अपने कुटिल और नीच नजरिए से प्रेमविवाह की उस ‘गुनाहगार’ को कोसने से बाज नहीं आतीं। 
 
 इस (कु)कृत्य में शामिल होने के लिए उनका साक्षर-निरक्षर/ शिक्षित-अशिक्षित होना कोई मायने नहीं रखता। निम्नता से ग्रसित ये अपने पतियों पर भी नजरें गाड़ के रखतीं हैं। उन्हें डर होता है कि ये ‘डाकन’ कोई काला जादू न कर दे उनके पतियों पर। और ये सब उन निखट्टू, खाली दिमाग धारियों का जन्मसिद्ध अधिकार होता है। जैसे इस तथाकथित ‘गुनाह’ की वे अकेली पापिन हैं। उनके परिवार के पुरुष तो बेचारे सीधे-साधे देवता, सज्जन थे। उन्हें तो जाल में फांसा गया था...बेचारे...और
 
मुझे तरस के साथ हंसी आ गई यह सोच कर कि अग्नि परीक्षा का ये खेल यूं ही निरंतर जारी रहेगा...क्योंकि इसमें अपने लोग जो शामिल होते हैं अपनी घटिया सोच की आग लगाते....    
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