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संविधान बने धर्म,राष्ट्रीयता हो जाति

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प्रज्ञा पाठक

12 अप्रैल को इंदौर में एक धार्मिक समागम में शामिल होने का अवसर  प्राप्त हुआ। वहां 'धर्म और मानव अधिकार' जैसे महत्वपूर्ण विषय पर एक सत्र रखा गया था,जिसमें प्रत्येक सम्प्रदाय के विद्वानों ने अपने विचार रखे। सभी की अपनी दृष्टि,सभी के अपने विचार और सभी के विविध चिंतन-आयाम। काफी कुछ सुना,समझा, लेकिन किन्नर अखाड़े के आचार्य महामंडलेश्वर लक्ष्मीनारायण त्रिपाठी की एक बात ने भीतर तक प्रभावित किया। उन्होंने कहा,"मेरा धर्म संविधान है। सर्वप्रथम मैं भारतीय हूं।"
 
उन्हें सुनते हुए मुझे लगा कि यही तो हमारी आद्य परम्परा का सार है। वहां भी तो मातृभूमि के प्रति निष्ठा को परम धर्म माना गया है। अपने राष्ट्र के प्रति जो आमरण निष्ठावान रहे और जिन्होंने स्वयं के प्राण राष्ट्र की खातिर न्यौछावर कर दिए,उन्हें आज भी हम ह्रदय से आदरांजलि देते हैं। अपने बच्चों को उनकी कथाएं सुनाकर उनके जैसा बनने की प्रेरणा देते हैं। लेकिन दूसरी ओर स्वयं को विभिन्न समाजों में विभक्त कर परस्पर द्वैष भाव को पोषित करते हैं। इसके घर का पानी नहीं पीना,उसके घर में विवाह-सम्बन्ध नहीं करना,इसे नहीं छूना,उसके साथ भोजन नहीं करना-ये मान्यताएं कमोबेश हर सम्प्रदाय में कम-अधिक रूप में महत्व पाती आईं हैं।
 
यहां मेरा उद्देश्य वर्ण-व्यवस्था के विभाजन अथवा विविध सम्प्रदायों के वैषम्य पर आपत्ति लेना कदापि नहीं है। हिन्दू अपना धर्म मानें,मुस्लिम अपना मज़हब, सिक्ख अपना पंथ और ईसाई अपना रिलीजन।
 
इसके साथ बस,इतना करें कि राष्ट्र को सर्वोपरि मानें। वरीयता क्रम में पहले राष्ट्र रहे,फिर सम्प्रदाय क्योंकि राष्ट्रीयता परम धर्म है। आप सभी के धर्मग्रंथों में भी यही सन्देश समाहित है।
 
मेरा विचार है कि सोच में यह परिवर्तन ही भारत को द्रुत प्रगतिगामी बनाएगा क्योंकि अधिकांश विवादों के मूल में संप्रदायगत विवाद हैं। राजनीति की अस्वच्छता की जड़ यही है। समाज के स्वस्थ विकास की राह का कांटा यही है।
 
यदि हम अपनी पृथक धार्मिक मान्यताओं के पालन के साथ साथ ये मानकर चलें कि सभी इंसान अपने मूल में एक ही हैं क्योंकि सभी ईश्वर की रचना हैं, तो परस्पर कलह समाप्त हो जाएगी। तब ह्रदय में प्रेम के अतिरिक्त कुछ नहीं होगा क्योंकि तब बंधुत्व की अद्भुत भावना का दिलों पर राज होगा।तब 'मैं' की संकुचितता 'हम' की व्यापकता में खो जाएगी।
 
हम सभी जीवन यापन की आपाधापी में बहुत व्यस्त हैं, लेकिन स्मरण रहे कि जाति-संप्रदाय विषयक विसंगतियों को सदा भोगते हैं। कभी व्यक्तिगत स्तर पर,कभी सामाजिक स्तर पर और कभी राष्ट्रीय स्तर पर। इन सब गलत चीजों से अब मुक्ति पानी ही चाहिए ताकि हम ख़ुश रह सकें और तनावमुक्त जीवन जी सकें।
 
यदि हम अपने दिल से संविधान को धर्म और भारतीयता(राष्ट्रीयता) को जाति स्वीकार कर लें तो इंसानियत का वह जज़्बा हमारी आत्मा का स्थायी भाव बन जाएगा ,जिसके बल पर हम 'श्रेष्ठत्व' को व्यक्ति,समाज और राष्ट्र तीनों स्तरों पर उपलब्ध कर लेंगे। तभी सही मायनों में यह भारत भूमि 'विश्वगुरु' के अपने प्राचीन गौरव को पुनः जी सकेगी और हम भी गर्व से कह सकेंगे-'सारे जहां से अच्छा हिन्दोस्तां हमारा।'

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