आज का युवा : इस पीढ़ी से धैर्य छीन लिया है विकल्पों की भरमार ने

स्वरांगी साने
वह सार्वजनिक परिवहन से यात्रा का आम दिन था। भीड़ थी, भीड़ में युवाओं की संख्या भी अच्छी-खासी थी। अधिकांश के कानों में इयर फ़ोन लगा था और सब अपनी पसंद के गीतों पर झूम रहे थे, मन ही मन गुनगुना रहे थे या आनंद ले रहे थे। इसे आनंद के निजीकरण का उदाहरण कह सकते हैं। अब सबकी खुशी अपनी खुशी, सबका दुःख अपना नहीं रह गया है, वैसा ही कुछ यह भी था। ख़ैर इतने में कंडक्टर ने उस लड़की से कुछ पूछा, उसने अपने कानों में से इयर फ़ोन निकाला और प्रश्नार्थक निगाह डाली, हैडफ़ोन के बाहर ‘रैना बीती जाए’...सुनाई पड़ने लगा, उस लड़की की झल्लाहट और बढ़ गई और उसने तुरंत रेडियो चैनल बदला और फिर कंडक्टर से मुख़ातिब हुई।
 
मैं अभी उस ‘रैना बीती जाए’ का आनंद पूरा ले भी नहीं पाई थी कि कुछ ढिंकचैक म्यूज़िक शुरू हो गया। सबकी अपनी-अपनी पसंद होती है और नई पीढ़ी की पसंद हमेशा पुरानी से अलग ही होती है पर इस पीढ़ी के पास कई विकल्प हैं, वैसे हमारे पास नहीं थे। उस दौर के एक ही रेडियो स्टेशन पर जो लग जाता था, वह सुनना पड़ता था, बीच में आने वाले विज्ञापनों सहित। अब विज्ञापन आए तो चैनल बदल दिया जाता है, इस चैनल से उस चैनल पर कूद-फाँद जारी रहती है। विकल्पों के अपने लाभ हैं लेकिन इसकी एक हानि यह है कि इसने इस पीढ़ी से धैर्य छीन लिया है। ज़रा-सा उनके मन का नहीं हुआ तो वे कोप भवन में जाने को प्रवृत्त हो जाते हैं। छोटी-छोटी बातों पर बच्चों के घर छोड़कर चले जाने के किस्से आम हो गए हैं। सिंगल चाइल्ड होना एक मनोवैज्ञानिक कारण हो सकता है लेकिन केवल उतना भर नहीं है। शंकराचार्य भी अकेले बेटे थे, नचिकेता भी इकलौते थे लेकिन उनमें जो धीर था, वह अब कहाँ है? हो सकता है आप कहेंगे कि वे महान् थे और आम बच्चे ऐसे नहीं होते पर आप यह भी भूल जाते हैं कि अब बच्चों को वैसे महान् या कह लीजिए आदर्श हालात भी नसीब नहीं होते। 
 
चाणक्य के नाम से जाने जाते इकलौते बेटे विष्णु गुप्त ने आजीवन आम-सा जीवन जीया। आज के बच्चे घर में भी अप-टु-डेट रहना चाहते हैं, खुद को अपडेटेड रखना चाहते हैं। यह अच्छी बात है कि फ़ैशन की दुनिया से लेकर अपने कैरियर तक वे पहले की पीढ़ी से कहीं अधिक सजग हैं। लेकिन राजनैतिक, सामाजिक और आर्थिक उथल-पुथल से उन्हें उतना वास्ता नहीं रहा है, वे इस तरह की बहसों में शामिल नहीं होते न उनकी वैसी रुचि है।
 
उनके पास ढेरों विकल्प हैं। लेकिन ये विकल्प उन्हें एक जगह टिकने नहीं दे रहे, वे पल में इस ओर झुकते हैं पल में दूसरी ओर। किसी एक विषय पर चिंतन करना, घंटों मनन करना उन्हें नहीं भाता। मोटी किताबें वे नहीं पढ़ते, वे यू-ट्यूब पर जाकर ज्ञान वृद्धि करना चाहते हैं, वहाँ भी 11 सेकंड में उन्हें ग्रिप नहीं लगी तो फिर वे चैनल बदल लेते हैं।
 
परिवर्तन संसार का नियम है लेकिन इतनी तेज़ी से बदलाव कि कुछ सेकंड भी न रुक पाए। दो मिनट की मैगी भी दो मिनट में कभी नहीं बनती, छप्पन भोग या पंच पकवान की थाली बनने में तो और भी समय लगता है। जो जितनी जल्दी बनता है उसका स्वाद और जो जितने लंबे समय में पककर तैयार होता है उसका स्वाद और उसका टिकाऊपन अनुभवों से ही जाना जा सकता है। अलबत्ता आज की पीढ़ी जेन ज़ेड (Z) से भी आगे की है। जनरेशन मिलीनियम जिसे जनरेशन वाई (Y) कहा जाता था वे लोग माने गए जो वर्ष 1978 से 2000 के बीच जन्मे थे, उसके बाद की पीढ़ी मिलेनियल (सन् 1981 से 1995 तक जन्मे) और उसकी भी अगली पीढ़ी जनरेशन ज़ेड (Z) है जो सन् 1996 से 2005 के बीच जन्मे और आज के युवाओं का प्रतिनिधित्व करते हैं। 

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