एक बड़ी कूटनीतिक सफलता है ईरान से हमारा चाबहार पोर्ट समझौता

शरद सिंगी
पाठकों को स्मरण होगा कि इस वर्ष जनवरी के अंतिम सप्ताह में 'प्रिय पाठक' के इसी स्तंभ में मेरा एक आलेख छपा था- 'भारतीय कूटनीति की सफलता का एक और आयाम' जिसमें मैंने भारत और ईरान के बीच ईरान के चाबहार पोर्ट के विकास और संचालन में भारतीय रुचि और हितों की विस्तार से चर्चा की थी और उम्मीद जताई थी कि फरवरी तक इस समझौते पर अंतिम मुहर लग जाएगी।
फरवरी में तो मुहर नहीं लगी किंतु मोदीजी की पिछले सप्ताह की ईरान यात्रा में इस समझौते पर मुहर लग गई। भारतीय रणनीतिकारों की यह एक बहुत महत्वपूर्ण उपलब्धि है, क्योंकि यह समझौता भारत के व्यापारिक हितों के साथ सामरिक और कूटनीतिक हितों को भी साधता है। 
 
पहले इस महत्वपूर्ण समझौते को व्यावसायिक महत्व की दृष्टि से देखें। ईरान जो कुछ समय पूर्व ही आर्थिक प्रतिबंधों की काल-कोठरी से बाहर निकला है, विकास प्रक्रिया में पिछड़ जाने से वहां अब अनेक व्यापारिक संभावनाओं के अवसर खुले हैं जिनके चलते दुनिया का हर देश उसे रिझाने में लगा है।
 
ईरान का उपभोक्ता बाजार भारतीय उद्योगों के लिए एक बड़ा मार्केट है। भारतीय उद्योगों को ईरान माल भेजने के लिए एक प्रवेश मार्ग की आवश्यकता थी जिसे चाबहार बंदरगाह पूरी करता है। 
 
ईरान के बाजार के अतिरिक्त भारत की व्यावसायिक कंपनियों के लिए पूरे मध्य एशिया का बाजार भी खुलेगा जिनमें प्रमुख हैं- तुर्कमेनिस्तान, कजाखस्तान, उज्बेकिस्तान इत्यादि, जो ईरान के उत्तर में स्थित हैं और ये देश चाबहार पोर्ट से सड़क मार्ग से जुड़ने वाले हैं।
 
अफगानिस्तान में कोई बंदरगाह नहीं होने से वह पूर्ण रूप से पाकिस्तान के बंदरगाहों पर निर्भर रहता था और अब जब उसे ईरान के पोर्ट की वैकल्पिक सुविधा मिलेगी तो वह पाकिस्तान पर आश्रित नहीं रहेगा।
 
यह कम महत्वपूर्ण नहीं था कि मोदीजी की यात्रा के समय ईरान में अफगानिस्तान के राष्ट्रपति अशरफ घानी भी मौजूद थे और इस संदर्भ में एक त्रिपक्षीय समझौता भी हो गया। इस तरह भारतीय उत्पादों के लिए अब अफगानिस्तान का बाजार भी खुल जाएगा जिससे अफगानिस्तान की जरूरतें पूरी हो सकेंगी। दूसरी ओर भारत को भविष्य के लिए ऊर्जा की सुरक्षा चाहिए अर्थात कच्चे तेल की अनवरत आपूर्ति। चाबहार पोर्ट के भारत के नियंत्रण में आने से वह ईरान से कच्चे तेल का आयात निर्बाध रूप से कर सकेगा। 
 
कूटनीतिक दृष्टि से इस समझौते को देखें तो यह समझौता चीन द्वारा भारत को चारों ओर से घेरने की नीति एक जवाब है। चीन आज नेपाल, श्रीलंका और पाकिस्तान के साथ कई समझौतों पर काम कर रहा है और भारत को घेरने के लिए इन देशों में अपनी उपस्थिति चाहता है। भारतीय कूटनीतिक विभाग निश्चित ही परेशान रहा होगा, जब चीन ने पाकिस्तान नियंत्रित कश्मीर से गुजरते हुए काराकोरम मार्ग का निर्माण आरंभ किया, जो पाकिस्तान के ग्वादर पोर्ट को चीन से जोड़ेगा। 
 
चीन को बलूचिस्तान स्थित ग्वादर पोर्ट के विकास एवं संचालन के अधिकार पाकिस्तान ने दे रखे हैं। इस तरह ग्वादर पोर्ट से मात्र 100 किमी दूर स्थित चाबहार पोर्ट का यह समझौता-चीन पाकिस्तान समझौते का कूटनीतिक जवाब है। 
 
सामरिक उपयोगिता की दृष्टि से इस समझौते को देखें तो इस पोर्ट का सामरिक उपयोग करने की बात भी भारत के रणनीतिकारों के दिमाग में निश्चित ही होगी। जब से ग्वादर पोर्ट चीन के नियंत्रण में आया है तब से गुजरात और मुंबई के नौसैनिक अड्डे चीन की रेंज में आ गए हैं और अरब सागर में होने वाली सैन्य हलचलों पर उसकी पैनी नजर रहेगी। चीन की मंशा निश्चित ही ग्वादर पोर्ट को अपनी नौसेना के लिए एक सामरिक ठिया बनाने की रहेगी। ऐसे में चाबहार पोर्ट पर भारत की उपस्थिति चीन की हरकतों पर नजर रखने के लिए उपयोगी रहेगी।
 
दूसरी ओर पाकिस्तान की बात लें। पाकिस्तान सरकार बलूचिस्तान में फैली अशांति का दोष भारत पर मढ़ती आ रही है। अब चूंकि यह पोर्ट बलूचिस्तान से लगा हुआ है अत: पाकिस्तान की सरकार के लिए यह समझौता एक बहुत बड़ा सिरदर्द होगा अपनी जनता को समझाने के लिए कि भारत चाबहार मौजूद होने के बावजूद कोई हरकत नहीं कर पाएगा। 
 
क्या यह पोर्ट अरब सागर में भारत के लिए भी एक सामरिक ठिए का काम कर सकेगा? यह तो समय बताएगा। यद्यपि भारतीय प्रधानमंत्री की इस यात्रा में दोनों देशों ने कहीं भी चीन या पाकिस्तान का नाम नहीं लिया किंतु चीन और पाकिस्तान को जो संदेश जाने थे वे पहुंच गए। 
 
पिछले माह चीन के एक शिष्टमंडल ने चाबहार पहुंचकर चाबहार को औद्योगिक नगरी बनाने के लिए ईरान को प्रलोभन भी दिया था, क्योंकि चीन की कूटनीति भारत को चाबहार से दूर रखने की थी किंतु वह कामयाब नहीं हुई। उधर जापान के प्रधानमंत्री शिंजो अबे भी ईरान में रुचि ले रहे हैं। उनकी यात्रा अब कुछ महीनों में होने वाली है। भारत और जापान के वर्तमान रिश्तों को देखते हुए भारत और जापान साथ मिलकर चाबहार पोर्ट का आधुनिकीकरण करते हैं तो निश्चित ही यह सहयोग एक ऐसी उपलब्धि होगी, जो मध्य एशिया में चीन के बढ़ते प्रभाव को संतुलित करेगी। 
 
कुल मिलाकर चाबहार पोर्ट का यह समझौता और ईरान की सदाशयता जीत लेना भारत की कूटनीति की निश्चय ही सफलता मानी जाएगी। इसमें साहस भी है, दूरदृष्टि भी है और ऐसा समग्र चिंतन है, जो देश के व्यावसायिक, राजनीतिक और सामरिक हितों का संवर्धन करेगा। 
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