गुजरात के मुख्यमंत्री पद से विजय रूपाणी का इस्तीफा तथा पहली बार विधायक बने भूपेंद्र पटेल को मुख्यमंत्री बनाया जाना पूरे देश को चौंकाने वाली घटना बनी है।
इसके पहले कभी नहीं देखा गया कि एक मुख्यमंत्री दोपहर में प्रधानमंत्री के साथ कार्यक्रम में रहता हो और शाम को पत्रकारों के सामने आकर यह कहे कि मैंने पद से इस्तीफा दे दिया है। जिस समय वो इस्तीफे की घोषणा कर रहे थे उनके चेहरे पर किसी प्रकार का दुख, अवसाद या मलाल का भाव नहीं देखा जा रहा था। हालांकि किसी व्यक्ति को मुख्यमंत्री पद से हटना पड़े तो उसको अंदर से अच्छा नहीं लगेगा। किंतु रूपाणी ने कहा कि कार्यकर्ता के नाते उन्हें जिम्मेवारी मिली, 5 वर्ष की जिम्मेवारी छोटी नहीं होती, आगे पार्टी के कार्यकर्ता के नाते जो जिम्मेदारी देगी उसका मैं पालन करूंगा।
विधायक दल की बैठक में उनके द्वारा ही मुख्यमंत्री के रूप में भूपेंद्र पटेल का नाम प्रस्तावित करना बताता है कि तैयारी पहले से थी। राष्ट्रीय संगठन मंत्री बीएल संतोष, भाजपा के वरिष्ठ नेता केंद्रीय मंत्री भूपेंद्र यादव का वहां पहले से पहुंचना इस बात का संकेत था कि नेतृत्व परिवर्तन की कवायद पहले से चल रही थी। केंद्रीय मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर और प्रहलाद जोशी तथा भाजपा के राष्ट्रीय में महासचिव तरुण चुग का वहां होना भी यही साबित करता है। कहने की आवश्यकता नहीं कि केंद्रीय नेतृत्व यानी नरेंद्र मोदी, अमित शाह और जेपी नड्डा ने आपसी विमर्श के बाद यह फैसला किया होगा तथा विजय रुपाणी को सूचित किया गया होगा।
राजनीतिक विश्लेषक इसके कई कारण गिना सकते हैं। विरोधी पार्टियां भी अपने-अपने तरीके से इसका विश्लेषण कर रही है। यह भी नहीं कह सकते कि जो कुछ कहा जा रहा है वो सारी बातें गलत हैं। यह सही है कि 2017 विधानसभा चुनाव में भाजपा की सीटें 2012 के 115 से घटकर 99 तक सिमट गई तथा कांग्रेस की सीटें 61 से बढ़कर 77 हो गई।
सच यही है कि 2017 के विधानसभा चुनाव में भाजपा को बहुमत पाने के लिए नाकों चने चबाने पर पड़े। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को करीब तीन दर्जन सभाएं करनी पड़ी। अमित शाह चुनाव के काफी पहले से लेकर परिणाम आने तक वहीं डटे रहे।
वास्तव में भाजपा की पूरी शक्ति गुजरात में लगी हुई थी। तब किसी तरह बहुमत हासिल हो सका। अगर 2017 के विधानसभा चुनाव का विश्लेषण करें तो इनमें 16 सीटें ऐसी थी जिनमें भाजपा की विजय का अंतर 5000 या उससे कम थी। इसी तरह 32 सीटें ऐसी हैं जहां तीसरे नंबर पर रहने वाले उम्मीदवार को मिला हुआ वोट भाजपा और कांग्रेस के जीत हार के अंतर से ज्यादा था। ऐसी 18 सीटें भाजपा ने जीती थी।
वस्तुतः गुजरात में पटेल या पाटीदार समुदाय के अंदर भाजपा के विरुद्ध असंतोष और विद्रोह कोई भी देख सकता था। अगर मोदी ने चुनावी सभाओं के अलावा भी दिन रात एक नहीं किया होता तो परिणाम पलट भी सकता था। तभी यह साफ हो गया था कि नरेंद्र मोदी का गुजरात के मुख्यमंत्री के रूप में होना और उनकी पसंद के किसी का मुख्यमंत्री होना गुजरात की जनता के लिए समान मायने नहीं रखता।
आनंदीबेन पटेल को मोदी ने अपने उत्तराधिकारी के रूप में सामने रखा लेकिन उनके विरुद्ध पार्टी में ही असंतोष पैदा हो गया। फिर पाटीदार आरक्षण आंदोलन को जिस ढंग से उन्होंने हैंडल किया उसके विरुद्ध भी प्रतिक्रिया हो रही थी। हालांकि आनंदीबेन पटेल की अपनी कोई गलती नहीं थी, लेकिन प्रदेश की राजनीति का ध्यान रखते हुए उनको हटाने का फैसला करना पड़ा तथा उनकी जगह विजय रुपाणी आए।
विजय रुपाणी लोकप्रिय नेता न थे न हैं। इसमें 2022 के चुनाव में उनके चेहरे के साथ उतरना भाजपा के लिए जोखिम भरा होता। जाति कारक भी नकारा नहीं जा सकता। पटेल समुदाय के व्यक्ति को मुख्यमंत्री बनाने का नेता किसी को बताने की आवश्यकता भी नहीं। यद्यपि कांग्रेस 2017 के चुनाव में प्रभावी प्रदर्शन के बावजूद गुजरात में इस समय दुर्दशा का शिकार है, लेकिन नरेंद्र मोदी और अमित शाह किसी प्रकार का जोखिम नहीं उठाना चाहते थे। इसलिए चुनाव से करीब सवा वर्ष पूर्व यह फैसला किया गया। इसके अलावा जो भी बातें हैं वो केवल कयास हैं।
2014 में प्रधानमंत्री बनने के बाद नरेंद्र मोदी ने यह नीति अपनाई थी कि जिसे भी मुख्यमंत्री की जिम्मेवारी दी जाए उसे काम करने दिया जाए। प्रदेश में अनेक मुख्यमंत्रियों के खिलाफ असंतोष थे, इनकी सूचना प्रधानमंत्री तक पहुंची, लेकिन उन्होंने किसी का इस्तीफा नहीं लिया। झारखंड में मुख्यमंत्री रघुवर दास के खिलाफ जनता तो छोड़िए पार्टी के अंदर ही व्यापक विद्रोह था। रघुवर दास को नहीं बदला और चुनाव में पार्टी सत्ता से विपक्ष में चली गई।
झारखंड में लगभग 25 सीटें भाजपा अपनी ही पार्टी के विद्रोहियों के कारण हारी। स्वयं रघुवर दास को पार्टी के ही वरिष्ठ नेता सरजू राय ने विद्रोही उम्मीदवार के तौर पर पराजित कर दिया। हरियाणा में मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर के विरुद्ध पार्टी के अंदर असंतोष था। चुनाव के पहले से उनको हटाए जाने की मांग थी। उन्हें नहीं हटाया गया और परिणाम भाजपा को बहुमत प्राप्त नहीं हुआ।
निर्दलीय में पांच ऐसे विधायक चुने गए जो भाजपा के विद्रोही थे तथा कई सीटों पर भाजपा के उम्मीदवारों को पार्टी के लोग ही हराने में भूमिका निभा रहे थे। इन दो घटनाओं से मोदी ने सबक लिया और उत्तराखंड के मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत को जाना पड़ा। वहां भाजपा के लिए बड़ी अजीबोगरीब स्थिति हो गई जब तीरथ सिंह रावत ने 10 मार्च को पदभार ग्रहण करने के बाद 2 जुलाई को ही इस्तीफा दे दिया, क्योंकि वे लोकसभा सांसद थे और चूंकि चुनाव का एक वर्ष बाकी था इसलिए छः महीने में वे विधायक निर्वाचित नहीं हो सकते थे। आज वहां पुष्कर सिंह धामी मुख्यमंत्री हैं।
इसी तरह भाजपा ने कर्नाटक में वहां के वरिष्ठ और सर्वाधिक लोकप्रिय नेता बीएस येदियुरप्पा से इस्तीफा दिलाकर बसवराज बोम्मई को मुख्यमंत्री बनाया है। वैसे तो मोदी ने अघोषित रूप से भाजपा के अंदर मुख्यमंत्री, मंत्री आदि पद के लिए 75 वर्ष की उम्र सीमा तय की। बावजूद अपवाद के रूप में येदियुरप्पा को इसलिए मुख्यमंत्री बनाया और अभी तक बनाए रखा, क्योंकि उनके समानांतर उस समय सरकार को संभालने व उसे बनाए रखने वाला कोई दूसरा नेता नहीं दिख रहा था। एक तो लंबे समय तक उन्हें आगे जारी नहीं रखा जा सकता था और दूसरे, पार्टी के अंदर से उनके विरोध आवाजें उठने लगी थी। कहने का तात्पर्य है कि नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा ने मुख्यमंत्री को हर हाल में बनाए रखने की अपनी नीति को बदल दिया है। वह किसी व्यक्ति को बनाए रखने के लिए राजनीतिक जोखिम उठाने के लिए तैयार नहीं है। यह भाजपा के दूसरे मुख्यमंत्रियों के लिए भी संकेत है।
इसकी चाहे आप आलोचना करिए या कुछ लेकिन इसमें विरोधी पार्टियों विशेषकर कांग्रेस के लिए सीख भी है। विपक्ष के नाते वह भाजपा की आलोचना करे, उसके विरुद्ध अभियान चलाए, लेकिन किस सामान्य तरीके से प्रदेश में नेतृत्व परिवर्तन करती है इसकी समीक्षा कर अपनी पार्टी के अंदर अपनाने की कोशिश करें।
आप देख रहे हैं कि पंजाब, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में किस ढंग से भाजपा के मुख्यमंत्री के विरुद्ध वहां के प्रमुख नेता व मंत्री विरोध कर रहे हैं, लंबे समय से अंतर्कलह सामने है, केंद्रीय नेतृत्व उसे संभालने की हर संभव कोशिश कर रहा है लेकिन स्थिति बदल नहीं रही। भाजपा ने कितनी आसानी से उत्तराखंड में दो-दो परिवर्तन किए, कर्नाटक और अब गुजरात में किए और कहीं से विद्रोह का स्वर सामने नहीं आया। पार्टी के अंदरूनी झगड़े या राजनीतिक चुनौतियों को किस ढंग से संभाला जा सकता है इसका यह एक उदाहरण है।
कर्नाटक में येदियुरप्पा के पक्ष में तो लिंगायत समुदाय के साधु संत ही खड़े थे। वो विद्रोह कर सकते थे। बावजूद कितनी आसानी से उन्होंने आगामी मुख्यमंत्री के लिए रास्ता प्रशस्त किया यह देश के सामने है। आज के दौर में मुख्यमंत्री या बड़े पद पर कायम नेता से इस्तीफा दिलवाने के बावजूद सतह पर इतनी सहज और सामान स्थिति बनाए रखना आसान नहीं होता।
हालांकि स्वयं भाजपा के भविष्य की दृष्टि से इसके नकारात्मक परिणाम भी आ सकते हैं। एक समय कांग्रेस में केंद्रीय नेतृत्व जब चाहे मुख्यमंत्री को बदल सकता था। इंदिरा गांधी के कार्यकाल में रिकॉर्ड मुख्यमंत्री बदले गए, राजीव गांधी के कार्यकाल में भी यह कायम रहा। लेकिन बाद के कार्यकाल में यह आसान नहीं रहा। इस कारण अलग-अलग प्रदेशों में कांग्रेस टूटी कमजोर होती गई और आज उसकी दशा हमारे सामने है। इंदिरा गांधी के समय तो मुख्यमंत्रियों के बारे में राजनीतिक विश्लेषक मेड इन दिल्ली शब्द प्रयोग करने लगे थे। इसलिए भाजपा राजनीतिक जोखिम दूर करने के लिए मुख्यमंत्री को बदले, लेकिन भविष्य में यह संभव नहीं कि नरेंद्र मोदी और अमित शाह की तरह ही सक्षम प्रभावी नेतृत्व हमेशा रहे जो ऐसे विरोध और विद्रोह को इतनी सहजता से संभाल सके।
(आलेख में व्यक्त विचार लेखक के निजी अनुभव हैं, वेबदुनिया का इससे कोई संबंध नहीं है।)