सांत्वनाओं के स्तर पर भी आत्मनिर्भर बना दिए जाने के ‘सफल’ प्रयोग!

श्रवण गर्ग
सोमवार, 28 सितम्बर 2020 (13:31 IST)
सोच-सोचकर तकलीफ़ होती है, पर ऐसा हक़ीक़त में हो रहा है और हम उसे रोक नहीं पा रहे हैं। अपनी इस असहाय स्थिति का हमें अहसास भी नहीं होने दिया जा रहा है। वह यह कि क्या लोगों को ठीक से जानने के लिए अब उनका चले जाना ज़रूरी हो गया है? हम लोगों को, उनके काम के बारे में, उनके मानवीय गुणों के बारे में, जो कहीं दबे पड़े होंगे, उनके चले जाने के बाद ही क्यों जान पा रहे हैं? हमें संभल पाने का मौक़ा भी क्यों नहीं मिल रहा है? एक शोक से उबरते हैं कि दूसरा दस्तक देने लगता है! हो सकता है कि हम जो अभी क़ायम हैं, हमारे बारे में भी कल ऐसा ही हो।

लोगों की जिंदगियां जैसे शेयर बाज़ार के सूचकांक की शक्ल में बदल गई हैं। सूचकांक के घटने-बढ़ने से जैसे बाज़ार की माली हालत की लगभग झूठी जानकारी मिलती है, लोगों के मरने-जीने की हक़ीक़त भी असली आंकड़ों की हेरा-फेरी करके पेश की जा रही हैं। देखते ही देखते, जीते-जागते इंसान मौत के आंकड़ों में बदल रहे हैं। हमें सही खबर मिलना अभी बाक़ी है कि कितने शहर अब तक कितने ख़ाली हो चुके हैं। अभी केवल इतना भर पता चल रहा है कि अस्पताल और उनके मुर्दाघर अब छोटे पड़ने लगे हैं।

कई लोग ऐसे हैं जिनसे हम मिलना चाहते थे पर महीनों से मिल नहीं पाए थे। फ़ोन पर भी बात नहीं कर पाए जबकि हमारे और उनके भी फ़ोन ख़ाली पड़े थे। उन्हें ठीक से याद भी नहीं कर पाए क्योंकि हम बार-बार अपनी नक़ाबों को ही उतारते-चढ़ाते रहे या फिर अपने हाथों को मांजते रहे। हमारे हाथ इतने साफ़ पहले कभी नहीं रहे होंगे। अपमानित महसूस करने के कारण भी बनते हैं कि हमारे आसपास इतने सारे लोग जीती-जागती कविताओं और सत्य कथाओं के रूप में टहलते रहे और हमें पता ही नहीं चल पाया। वे दबे पांव चले भी गए। अंतिम समय में भी कोई उनके पास नहीं था। उनके चेहरे भी ढके हुए थे।

दुनिया भर में महामारी के कारण मरने वालों का बताया जाने वाला आंकड़ा थोड़े दिनों में दस लाख को पार करने जा रहा है। मध्यम आकार के एक भरे-पूरे शहर जितने कुल लोग। चंडीगढ़ जैसे खूबसूरत शहर की आबादी लगभग इतनी ही है। कैसा लगे कोई सुबह-सुबह खबर करके बताए कि एक जाना-पहचाना शहर चार-पांच महीनों के दौरान ही अपनी जगह से अचानक ग़ायब हो गया है? किसी राज्य को ही अनुपस्थित होते देखना हो तो सिक्किम की आबादी सात लाख और मिज़ोरम की लगभग ग्यारह लाख है। देश को देखना हो तो भूटान की आठ लाख के क़रीब है। हम अंदाज़ा ही नहीं लगा पा रहे हैं कि आख़िर हो क्या रहा है और हमें किस ओर धकेला जा रहा है।

जो हुकूमतों में हैं क्या उन्हें डर ही नहीं लग रहा है कि उनकी आबादी की गिनती लगातार कम हो रही है और जो लोग अभी क़ायम हैं मौत का ख़ौफ़ अब एक साये की तरह उनका भी हर जगह पीछा कर रहा है? पलक झपकते ही जगहें ख़ाली नज़र आने लगती हैं! एक भले डॉक्टर मित्र ने सलाह दी कि मुसीबत कब आ जाए कुछ पता नहीं। एक काग़ज़ पर कुछ डिटेल्स लिखकर हमेशा तैयार रखें कि कभी भी ऐसी कोई स्थिति बन जाए तो दस-पंद्रह सबसे ज़रूरी काम क्या करने हैं, सबसे पहले किन-किन से सम्पर्क करना है जो मदद के लिए तुरंत खड़ा हो जाएगा। दिन में ऐसा हो तो क्या करना है, और आधी रात हो जाए तो क्या करना है! लिखने बैठे तो पहला सबसे ज़रूरी काम और पहला नाम ही पूरे भरोसे के साथ ध्यान में नहीं आया।

हम इस ख़तरे को लेकर अभी भी पूरी तरह से सचेत नहीं हैं कि जनता के डर का इस्तेमाल दुनिया भर में कितनी चीज़ों के लिए उन प्रभावशाली लोगों के द्वारा किया सकता है जिन्हें लोगों के इस तरह से चले जाने, एक व्यक्ति, एक शहर, एक राज्य या एक देश की आबादी के नक़्शे और गिनती से ग़ायब हो जाने से कोई भी फ़र्क़ ही नहीं पड़ता। कहीं भी किसी तरह का दुःख या शोक व्यक्त करने की सुगबुगाहट भी नहीं है। लोगों की जीवित स्मृतियों में तो गुजरे सालों में ऐसा कभी नहीं हुआ कि लोगों का भीड़ की तरह इस्तेमाल करने के बाद उन्हें अचानक से नितांत अकेले कर दिया गया हो, सांत्वनाओं के स्तर पर भी ‘आत्मनिर्भर’ बना दिया गया हो।

कहा जा रहा है कि धीरे-धीरे सब कुछ खुल जाने वाला है। पर लोगों को पता है कि अब पहले जैसे कुछ भी नहीं रहने वाला है। रह भी कैसे सकता है? वे अभागे जो असमय ही अपनी अनंत की यात्राओं पर रवाना हो चुके हैं, कैसे लौटकर आएंगे? वैसे तो हमें पहले से ही आगाह कर दिया गया है कि महामारी के बाद हमारे जीने का तरीक़ा बदल जाने वाला है। क्या इस बात की आशंका नज़र नहीं आती कि कोरोना के बाद के जिस ‘बाद’ की बात कही गई है वह भी कभी आए ही नहीं! क्या ऐसा असम्भव है कि हमें जिस स्थान पर इस समय रोक दिया गया है वही अब हमारा पक्का ठिकाना भी घोषित कर दिया जाए जिसमें कि घर, दफ़्तर, दुकान, स्कूल, बाज़ार और अकेलेपन से जूझने की सारी सुविधाएं भी क़ायम हो जाएं। ऐसा होने भी लगा है और हम इस नई व्यवस्था के कितने अभ्यस्त हो चले हैं, हमें पता ही नहीं चल पाया।

क्या हमें इस बात का भी कोई डर नहीं है कि आगे चलकर नागरिकों के किसी भीड़ की शक्ल में शोक व्यक्त करने के लिए जमा होने को भी व्यवस्था के प्रति विद्रोह के षड्यंत्र की आशंकाओं से देखा जाने लगे। हम जिस तरह की राजनीतिक गतिविधियों, सामाजिक-धार्मिक समारोहों और सार्वजनिक रूप से प्रसन्नता और आक्रोश व्यक्त करने के प्रति अभ्यस्त हो चुके हैं, क्या उसकी कोई कमी हमें महसूस नहीं हो रही है? हम शायद ठीक से जवाब नहीं दे पाएंगेकि इस समय हमें सबसे ज़्यादा डर किस बात का लग रहा है! महामारी के अलावा भी हम किन्ही और चीजों को लेकर भी चिंतित हैं पर बताना नहीं चाहते हैं। सभ्यताएं जब समाप्त होने का तय कर लेती हैं तो सारी शुरुआतें इसी तरह से होती है।

और हां! हमें पता है न कि कुछ ही दिनों बाद विजयदशमी और उसके बीस दिन बाद दीपावली का पर्व है? क्या हमारे ‘मन’ त्योहारों का सामना करने को पूरी तरह से तैयार हैं? (इस लेख में व्यक्त विचार/विश्लेषण लेखक के निजी हैं। इसमें शामिल तथ्य तथा विचार/विश्लेषण 'वेबदुनिया' के नहीं हैं और 'वेबदुनिया' इसकी कोई ज़िम्मेदारी नहीं लेती है।)
 

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