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बताइए! सबसे पहले किसे बचाया जाना चाहिए?

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श्रवण गर्ग

देश इस समय एक अभूतपूर्व संकट से गुजर रहा है। इसे हमारे राजनीतिक नेतृत्व की खूबी ही माना जाना चाहिए कि जो कुछ भी चल रहा है उसके प्रति लोग स्थितप्रज्ञ अवस्था को प्राप्त हो गए हैं। अर्थात असीमित दुखों की प्राप्ति पर भी मन में किसी भी प्रकार का कोई उद्वेग नहीं उत्पन्न हो रहा है। कछुए की तरह जनता ने भी अपने सभी अंगों को समेट लिया है। दुनिया की कोई भी हुकूमत ऐसी समर्पित प्रजा पाकर अपने आपको धन्य और कृतार्थ महसूस कर सकती है।
 
इसे कोई दैवीय चमत्कार ही माना जा सकता है कि जो जनता किसी समय आलू-प्याज़ की अस्थायी क़िल्लत भी बर्दाश्त करने को तैयार नहीं होती थी, वही आज एक-एक सांस के लिए स्वयं से ही संघर्ष करते हुए अपनी जानें दे रही है। कहीं भी कोई हल्ला या शोर नहीं है। देखते ही देखते सब कुछ बदल गया है। यह भी नहीं बताया जा सकता कि जो और भी गम्भीर संकट भविष्य के पेट में छुपे हुए हैं उनसे निपटने के लिए वे लोग कितनी तैयारी से जुटे हैं जिन्हें नागरिकों ने अपना सर्वस्व सौंप रखा है। चारों ओर डर व्याप्त है कि जो कर्णधार सिर्फ़ बंगाल की हुकूमत पर क़ब्ज़ा करने के लिए तीन साल से ज़बर्दस्त तैयारियों में जुटे थे उन्हें भनक तक नहीं लग पाई कि इधर समूचा देश केवल एक साल के भीतर ही हारने लगेगा और वे मरने वालों गिनती करते रह जाएंगे। 
 
राज्यों को हिदायत दी गई है कि वे अपनी मेडिकल ऑक्सीजन की ज़रूरत को क़ाबू में रखें। उन्हें आगाह किया गया है कि अगर कोरोना के मामले ऐसे ही अनियंत्रित तरीक़े से बढ़ते रहे तो इससे देश के चिकित्सा ढांचे पर बड़ा असर पड़ेगा।’ हम राज्य सरकारों के साथ खड़े हैं, लेकिन उन्हें मांग को नियंत्रण में लाना होगा और कोविड को रोकने के लिए ठोस कदम उठाने होंगे।’ एक चिकित्सक केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री डॉ. हर्ष वर्धन नहीं बल्कि रेलवे मंत्री पीयूष गोयल ने अपने एक ट्वीट में कहा है कि : 'पेशेंट को जितनी ज़रूरत है उतनी ही ऑक्सीजन लगाना चाहिए। कई जगह से वेस्टेज के साथ ही पेशेंट को ज़रूरत न होते हुए भी ऑक्सीजन लगाने की ख़बर आ रही है।’
 
पीयूष गोयल मुंबई जैसे अत्याधुनिक महानगर से हैं और उनसे पूछा जा सकता है क्या ऐसा मुमकिन है कि किसी भी मरीज़ को उसके फेफड़ों की क्षमता और ज़रूरत से ज़्यादा ऑक्सीजन दे दी जाए और फिर भी वह स्वस्थ बच जाए? इस सवाल का इंटरनेट पर अंग्रेज़ी में जो उत्तर उपलब्ध है उसका एक पंक्ति में हिंदी सार यह है कि ज़रूरत से ज़्यादा ऑक्सीजन के इस्तेमाल से फेफड़ों और शरीर के अन्य अवययों को क्षति पहुंच  सकती है।
 
ऑक्सीजन के इस्तेमाल को लेकर केंद्रीय मंत्री की चिंता या चेतावनी का गलती से एक क्रूर अर्थ यह भी लगाया जा सकता है कि ज़रूरत से अधिक आपूर्ति के ज़रिए कोरोना मरीज़ों की सेहत को जानते-बूझते नुक़सान पहुंच  रहा है या पहुंचाया जा रहा है। मनुष्य के फेफड़े आलू-प्याज़ की तरह ऑक्सीजन की जमाख़ोरी नहीं कर सकते। देश के नीति-निर्धारकों में अपने ही चिकित्सकों की योग्यता-क्षमता और नागरिकों के फेफड़ों की ऑक्सीजन-क्षमता को लेकर जानकारी का अभाव होना दुर्भाग्यपूर्ण है। इस समय हकीकत तो यह है कि ज़रूरत के मुक़ाबले कम आपूर्ति को देखते हुए मरीजों को ऑक्सीजन कम या सीमित मात्रा में दी जा रही है।
 
अपने किसी पुराने आलेख में मैंने भारतीय रिज़र्व बैंक के पूर्व गवर्नर डी सुब्बाराव के एक लेख का किसी और संदर्भ में ज़िक्र किया था। सुब्बाराव के लेख में प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान यहूदियों पर हुए नाज़ी अत्याचारों को लेकर 1982 में बनी एक बहुचर्चित फ़िल्म ‘Sophie’s Choice’ का उल्लेख था। फ़िल्म में पोलैंड की एक यहूदी मां के हृदय में मातृत्व को लेकर चलने वाले इस द्वंद्व का वर्णन है कि वह अपने दो बच्चों में से किसे तुरंत मौत के ‘गैस चेम्बर' में भेजने की अनुमति दे और किसे नाज़ियों के ‘यातना शिविर’ (Labour camp) में ले जाए जाने की। सुब्बाराव ने फ़िल्म के कथानक का उल्लेख इस संदर्भ में किया था कि सरकार के सामने भी यहूदी मां की तरह ही संकट यह है कि वह उपलब्ध दो में से पहले किस विकल्प को चुने— लोगों की रोज़ी-रोटी बचाने का या उनकी ज़िंदगियां बचाने का। दुर्भाग्यपूर्ण यह रहा कि सरकार एक भी विकल्प पर ईमानदारी नहीं बरत सकी।
 
ऑक्सीजन और अन्य जीवन-रक्षक चिकित्सकीय संसाधनों की उपलब्धता और उनके न्यायपूर्ण उपयोग को लेकर राष्ट्रीय नेतृत्व के द्वारा जिस तरह से चेताया जा रहा है उससे तो यही लगता है कि हालात ऐसे ही अनियंत्रित होकर ख़राब होते रहे तो नागरिक एक ऐसी स्थिति में पहुंच सकते हैं, जब उनसे पूछा जाने लगे कि वे ही तय करें कि परिवार में पहले किसे बचाए जाने की ज़्यादा ज़रूरत है। विकल्प जब सीमित होते जाते हैं तब स्थितियां भी वैसी ही बनती जाती हैं। टीकों की सीमित उपलब्धता को लेकर भी ऐसा ही हुआ था कि अभियान ‘पहले किसे लगाया जाए’ से प्रारम्भ किया गया। शुरुआत अग्रिम पंक्ति के स्वास्थ्यकर्मियों से हुई थी। एक सौ पैंतीस करोड़ की आबादी वाले देश में अब तक सिर्फ़ 10-11 करोड़ को ही टीके लग पाए हैं।
 
 
पिछले वर्ष इन्हीं दिनों जब यूरोप के देशों में कोरोना की महामारी ज़ोरों पर थी और हम अपनी ‘इम्यूनिटी’ पर गर्व कर रहे थे, सोशल मीडिया प्लेटफ़ार्म ‘ट्‍विटर’ पर बेल्जियम की एक नब्बे वर्षीय महिला का किसी अस्पताल के कमरे के साथ चित्र जारी हुआ था। महिला सूज़ेन ने निधन से पहले अपने इलाज के लिए वेंटिलेटर का उपयोग करने से इसलिए इनकार कर दिया था कि मरीज़ों की संख्या के मुक़ाबले वे काफ़ी कम उपलब्ध थे। सूज़ेन ने डॉक्टरों से कहा था : 'मैंने अपना जीवन जी लिया है, इसे (वेंटिलेटर को) जवान मरीज़ों के लिए सुरक्षित रख लिया जाए।’
 
प्रसिद्ध अंतरराष्ट्रीय पत्रिका ‘द इकॉनामिस्ट’ द्वारा रूस के संदर्भ में लिखे गए एक सम्पादकीय का मैंने एक बार ज़िक्र किया था कि लोगों का पेट जैसे-जैसे तंग होने लगता है, सरकारों के पास उन्हें देने के लिए ‘राष्ट्रवाद’ और ‘विषाद’ के अलावा और कुछ नहीं बचता। जो सरकारें अपनी जनता के ख़िलाफ़ भय का इस्तेमाल करती हैं, वे अंततः खुद भी भय में ही रहने लगती हैं। ऐसा दिख भी रहा है। पहली बार नज़र आ रहा है कि हुकूमत हक़ीक़त में भी डरी हुई है, डरे होने का अभिनय नहीं कर रही है। कहा नहीं जा सकता है कि यह डर जनता के स्वास्थ्य की चिंता को लेकर है या अपनी सत्ता के स्वास्थ्य को लेकर!
 
ऑक्सीजन और रेमडिसिविर इंजेक्शनों की मांग का संबंध इस बात से भी है कि व्यवस्था के प्रति लोगों का यकीन समाप्त होकर मौत के भय में बदलता जा रहा है। सबसे ज़्यादा दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति तो तब होगी जब ज़िम्मेदार पदों पर बैठे हुए लोग सांत्वना के दो शब्द कहने के बजाय जनता में व्याप्त मौजूदा भय को व्यवस्था के प्रति कोई सुनियोजित षड्यंत्र बताने लगेंगे। कोरोना की लड़ाई को महाभारत जैसा युद्ध बताया गया था। मौतें भी कुरुक्षेत्र के मैदान जैसी ही हो रही हैं। (इस लेख में व्यक्त विचार/विश्लेषण लेखक के निजी हैं। 'वेबदुनिया' इसकी कोई जिम्मेदारी नहीं लेती है।)

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