मैं दिल्‍ली हूं… मेरे ‘दिल के घाव’ को कभी ‘दिल्‍ली’ बनकर महसूस कीजिए

नवीन रांगियाल
मैं दिल्‍ली हूं, जब देश की बात होती है तो लाखों-करोड़ों लोग मेरी तरफ उम्‍मीद भरी निगाहों से देखने लगते हैं, क्‍योंकि मैं वो जगह हूं जहां से पूरे देश की धड़कन रवां होती है। इसलिए मुझे दिल भी कहते हैं, लेकिन मैं दिल ही की तरह मायूस हो गई हूं। मजबूर भी और असहाय भी हूं। क्‍योंकि मैं रक्‍तरंजित हूं, खून से सनी हूं, रक्‍त से सराबोर हूं, मैं दिल ही की तरह जार-जार हूं, शर्मसार भी हूं। मेरी छाती पर खंजर है और आंखों में खून की नमी है।
मेरे इतिहास में लूट है, खसोट है। मुझे कई बार, दरअसल हजार बार लूटा गया। खसोटा गया।

अब तक मुझे लूटने वाले, मेरी अस्‍मत, मेरी आत्‍मा को आग लगाने की कोशिश करने वाले बाहर के लोग थे। कभी फारस शासक नादिरशाह ने लूटा तो कभी तैमूर लंग ने आकर मेरी अस्‍मत को तार- तार किया। तो कभी मुगलों ने मेरी छाती पर खून-खराबा मचाया।

मोहम्‍मद बिन कासिम हो या मोहम्‍मद गजनवी। मेरी समृद्ध संस्‍कृति और कुबेर को तहस-नहस करने के लिए हर कोई ललचाया। 1296 में खिलजी ने तो मेरे असल अक्‍स को ही खत्‍म करने का काम किया। उसने फिर से मेरा नया चेहरा गढ़ दिया। उसने मेरी पहचान मिटाने की पुरजोर कोशिश कर डाली।

लेकिन इन सारी तबाहियों के बावजूद मैं उठ खड़ होती हूं। मैं अपने दिल को फिर से संभाल लेती हूं। अपने देश के लिए, अपने देशवासियों के लिए।

लेकिन जब कोई अपना ही घाव दे तो उससे संभलना बेहद मुश्‍किल और तकलीफ से भरा होता है।

1984 में अपनों का दिया ऐसा ही एक घाव था। जो अब भी भरा नहीं है, उस घाव की खुरचें मेरी आंखों में उभर आती हैं। इस हिंसक और तबाही वाले मंजर को मैंने अपनी आंखों से देखा था, उन 3 हजार से ज्‍यादा लोगों का गर्म खून अपनी छाती पर बहते महसूस किया था, जो मेरे ही आगोश में रहते मेहनत-मशक्‍कत करते और जिंदा थे।

मैं ‘84’ के उस घाव को भरने की कोशिश कर रही थी। उसे राजनीति और भाग्‍य की करतूत मानकर उस घाव को सुखा ही रही थी कि 2020 ने मेरी आत्‍मा पर 34 लाशों का बोझ फिर से डाल दिया। लाशों का यह भार बढ़ भी सकता है, 50 भी हो सकता है, 60 भी। हालांकि मेरे दिल पर एक लाश का बोझ भी उतना ही भारी है, जितना एक बेटे की मौत का बोझ एक मां की कोख पर होता है।

एक ही दिल होता है कितनी बार टूटकर फिर से जुड़ेगा। इसका जवाब किसी के पास नहीं है, हो भी नहीं सकता। क्‍योंकि टूटने का दर्द मैं ही जानती हूं। बार-बार टूटने का। इतिहास से वर्तमान तक। 84 से लेकर 2020 तक। क्‍योंकि बाहर के दुश्‍मनों के दिए घाव को देर सबेर भर ही जाते हैं, लेकिन यहीं, इसी दिल्‍ली, इसी देश के लोगों के इसी देश के दिल पर दिए गए घाव कब भरेंगे, और कौन भरेगा। इस घाव को कभी दिल्‍ली बनकर महसूस करना।

सम्बंधित जानकारी

Show comments

जरूर पढ़ें

Gold Record High: सोने की कीमत में धुआंधार तेजी, 1650 रुपए उछलकर 1 लाख के करीब पहुंचा, अब कितने हो गए दाम?

National Herald case : चिदंबरम ने सोनिया गांधी और राहुल का किया बचाव, बोले- इस राजनीतिक हमले को कांग्रेस करेगी नाकाम

UP में 8 साल से 73 लैपटॉप की निगरानी कर रहे हैं 2 कांस्टेबल, दिया जा चुका है 54 लाख रुपए वेतन

क्या है Karnataka Ex DGP ओमप्रकाश हत्याकांड का सच, कौन करता था किसको टार्चर, बेरहमी से कत्ल का क्या है राज

Oppo K13 5G : 7000mAh बैटरी वाला सस्ता 5G फोन, फीचर्स मचा देंगे तहलका

सभी देखें

नवीनतम

वायदा बाजार में सोना पहली बार 1 लाख पार, 4 माह में दिया 26 फीसदी से ज्यादा रिटर्न

रामदेव की शरबत जिहाद टिप्पणी से हाईकोर्ट नाराज, जानिए क्या कहा?

LIVE: बच्चों संग आमेर के किले पर पहुंचे अमेरिकी उपराष्‍ट्रपति वेंस

कभी सूअर के साथ कुश्ती नहीं करनी चाहिए, BJP MP निशिकांत दुबे को तीखा जवाब

ग्वालियर में बनेगा देश का पहला टेलीकॉम मैन्युफैक्चरिंग जोन, 27 अप्रैल को इंदौर आईटी कॉन्क्लेव में होगा करार

अगला लेख