दिल्ली दंगों पर संसद में दो दिनों तक चली बहस का अगर दुर्भाग्यपूर्ण पक्ष यह रहा कि पूर्व की तरह ही इसमें भी राजनीतिक आरोपों की बौछारें हुईं तो इसका अच्छा पहलू यह था कि देश के सामने अनेक सच्चाइयां शायद पहली बार आईं तथा कई झूठ और भ्रम की कलई खुली।
विपक्ष का तेवर लोकसभा एवं राज्य सभा में वही था जो बाहर रहा है। विपक्ष सरकार को घेरे, उसे सवालों का जवाब देने को मजबूर करे यही उसकी भूमिका है। पर सांप्रदायिक दंगा जैसे संवेदनशील मामलों में सबको ध्यान रखना है कि राजनीतिक मोर्चाबंदी में दंगों से पीड़ितों के घाव पर मरहम लगाने की जगह उसे कुरेदा नहीं जाए। अगर लोगों के मन में भविष्य को लेकर डर बैठा हुआ है तो उसे दूर किया जाए। राजनीति जिस अवस्था में पहुंच गई है उसमें इस तरह के जिम्मेवार भूमिका की उम्मीद जरा मुश्किल है और यही संसद के दोनों सदन में दिखा भी। हालांकि इन सबके बावजूद यह सार्थक बहस रही।
इसका एक महत्वपूर्ण पक्ष केन्द्रीय गृहमंत्री अमित शाह का पहले लोकसभा और फिर राज्यसभा में दिया गया यह आश्वासन रहा कि किसी के साथ कोई पक्षपात नहीं किया जाएगा और दंगा करने वाला व्यक्ति किसी भी धर्म या पार्टी का होगा, उसको नहीं छोड़ा जाएगा। पुलिस दंगों से जुड़े मामलों की तेजी से वैज्ञानिक, प्रामाणिक तरीके से जांच कर रही है। 700 से अधिक प्राथमिकी दर्ज हो चुकी है। 12 थानों के लिए विशेष अभियोजक नियुक्त किए गए हैं। 2647 लोगों को गिरफ्तार किया गया है या हिरासत में लिया गया है।
सरकार ने विज्ञापन देकर जनता से इन घटनाओं से जुड़े वीडियो और फुटेज मांगे थे। काफी संख्या में वीडियो आए तथा सीसीटीवी फुटेव भी प्राप्त हुए। अगर गृहमंत्री की बात मानी जाए तो 12 मार्च तक 1922 चेहरों एवं व्यक्तियों की पहचान कर ली गई है। 50 गंभीर मामलों की जांच तीन एसआईटी करेगी। दंगों में इस्तेमाल किए गए 125 हथियार जब्त किए गए हैं। दोनों संप्रदायों के लोगों की अमन समितियों की 321 बैठक कर दंगे रोकने का प्रयास किया गया। 40 से अधिक टीमों का गठन कर संलिप्त लोगों की पहचान कर उन्हें पकड़ने की जिम्मेदारी दी गई है। ये हैं कार्रवाई के विवरण।
पहले दिन से साफ था कि दिल्ली के दंगे सुनियोजित साजिश के तहत अंजाम दिए गए। गृहमंत्री संसद में बयान को सच मानना होगा, क्योंकि वहां गलतबयानी पर विशेषाधिकार हनन का मामला बनता है। इसके अनुसार दंगों के लिए बाजाब्ता पैसे की व्यवस्था की गई जिसमें कुछ देश के भीतर से आए तो कुछ बाहर से। वैसे भी इस बीच दिल्ली पुलिस ने इस्लामिक स्टेट खुरासान प्रॉविंस (आईएसकेपी) मॉड्यूल से जुड़े जहांजेब सामी और उसकी पत्नी हीना बशीर बेग को गिरफ्तार किया जो शाहीनबाग व जामिया के प्रदर्शन में लगातार सक्रिय थे। इसके एक दिन बाद त्रिलोकपुरी से दानिश अली को भी दिल्ली हिंसा के संदर्भ में गिरफ्तार किया गया जो पीएफआई का सक्रिय सदस्य है। यह भी शाहीनबाग से लेकर जामिया आंदोलन में सक्रिय था। उससे पूछताछ के आधार पर पीएफआई के अध्यक्ष परवेज़ अहमद और सचिव मोहम्मद इलियास को गिरफ्तार किया जा चुका है।
उन पर दिल्ली दंगों के साथ शाहीनबाग को भी फंडिंग करने का आरोप है। इस तरह की गिरफ्तारियां बता रहीं हैं कि इन दंगों की योजना लंबे समय से बनाई गई थी एवं अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की यात्रा को ध्यान में रखते हुए इसे अंजाम दिया गया। जाहिर है, ऐसे लोग देश के दुश्मन हैं और उनको उनके किए की सजा मिलनी ही चाहिए।
हालांकि पूरे देश के गले में यह बात नहीं उतर रही थी कि आखिर राजधानी के इतने छोटे क्षेत्र में दंगों भड़कने के पूर्व उसे रोका क्यों नहीं जा सका? जो कदम 25 तारीख की रात उठाए गए वो अगर 22-23 फरवरी को उठाए जाते तो इतनी हिंसा नहीं होती। गृहमंत्री ने इसका जवाब दिया है। मसलन, ट्रंप की यात्रा उनके क्षेत्र में थी इसलिए वे मोटेरा स्टेडियम कार्यक्रम थे। लेकिन उसके बाद वे उनके किसी कार्यक्रम में शामिल नहीं हुए। हिंसा की पहली खबर 24 फरवरी की दोपहर को आई एवं अतिम खबर 25 की रात 11 बजे की है। हालांकि हमने 26 फरवरी को भी आग, धुंआ और मृतकों के शव आदि मिलते देखे।
गृहमंत्री का कहना है कि 26 तारीख को भी शव मिले लेकिन पोस्टमार्टम में उनकी मृत्यु का समय 25 तारीख ही था। इस तरह उनका दावा है कि 36 घंटे में दंगा रुक गया। पहली प्राथमिकता दंगा रोकने तथा इसका किसी कीमत पर विस्तार नहीं देने का होता है। जैसा कहा गया दंगों के लिए दिल्ली से लगे उत्तर प्रदेश से लोग आए थे। तो 24 फरवरी को ही उत्तर प्रदेश की सीमा को सील कर दिया गया था। लेकिन लोकतांत्रिक देश में दो देशों की सीमा की तरह दो राज्यों की सीमा को सील नहीं किया जा सकता है।
बावजूद जितना संभव हुआ किया गया। 16 किलोमीटर दिल्ली के कुल हिंसाग्रस्त इलाके हैं जिसमें 20 लाख लोग रहते हैं, जो दिल्ली की कुल आबादी की कुल 4 प्रतिशत है। दंगों का विस्तार इसके बाहर के इलाकों में नहीं हुआ। इसका एक बड़ा कारण अन्य संवदेनशील क्षेत्रों में सुरक्षा बलों की पूरी तैनाती है। गृहमंत्री के स्तर पर बात समझ में आती है, फिर भी हम इससे सहमत नहीं हो सकते कि दिल्ली पुलिस से चूक नहीं हुई।
इसी बीच सिपाही रतनलाल के सात कातिलों की पहचान कर उन्हें गिरफ्तार किया गया है। आईबी अधिकारी अंकित शर्मा की निर्मम हत्या के मामले में भी गिरफ्तारी हुई है। इस तरह की गिरफ्तारियों से विश्वास पैदा होता है कि पुलिस ने आरंभ में अवश्य कदम उठाने में हिचक दिखाई लेकिन बाद में वह पूरी तेजी से काम कर रही है। लेकिन दंगों को लेकर जो एकपक्षीय आरोप लगाए गए, पुलिस पर एक समुदाय के खिलाफ ही कार्रवाई करने, इसे एक समुदाय का नरसंहार साबित करने की कोशिश हो रही है, विदेश तक में दुष्प्रचार हो रहा है उसका खंडन हुआ है। दंगों के संदर्भ में हेट स्पीच या भड़काउ भाषण की विपक्ष एवं मीडिया का एक वर्ग बड़ी चर्चा करता है।
नागरिकता संशोधन कानून के बारे में जिस तरह का झूठा प्रचार किया गया, उसके साथ एनपीआर एवं एनसीआर को लेकर मुसलमानों में भय पैदा करने की हरसंभव कोशिश हुई उसे क्या भड़काउ भाषण की श्रेणी में नहीं रखा जाएगा? 14 दिसंबर को रामलीला मैदान में कांग्रेस की रैली में सोनिया गांधी, प्रियंका वाड्रा के भाषणों का क्या अर्थ था? क्या आरपार की लड़ाई और सड़कों पर उतरिए तथा जो नहीं उतरा वह कायर कहलाएगा जैसे उत्तेजक भाषणों का कोई असर नहीं हुआ? 15 दिसंबर से शाहीनबाग में प्रदर्शन शुरू हो गया। 17 फरवरी को अमरावती में उमर खालिद का भाषण हुआ कि जब ट्रपं आएंगे तो हम बताएंगे कि सरकार एक समुदाय के खिलाफ काम कर रही है।
एआईएमआईएम के वारिस पठान का भाषण हुआ कि हम 15 करोड़ हैं लेकिन 100 पर भारी पड़ेंगे। ये सब उकसाने वाले बयान नहीं तो और क्या हैं? शाहीनबाग में एक से एक उत्तेजक भाषण हुए। अनगिनत भाषण हैं, जिसने केवल लोगों के अंदर गलतफहमी और डर पैदा करके उनको उकसाने की भूमिका निभाई। प्रवेश वर्मा का वक्तव्य गलत था, केन्द्रीय मंत्री को भी उस प्रकार का नारा नहीं लगाना चाहिए था। मामला उच्च न्यायालय में है तो हमें फैसले की प्रतीक्षा करनी चाहिए। किंतु कपिल मिश्रा ने तो जाफराबाद सड़क घेरने के विरुद्ध बात कही कि ट्रंप की यात्रा तक हम कुछ नहीं करेंगे, डीसीपी साहब यहां हैं, अगर आपने सड़क खाली नहीं कराई तो हम आपकी भी नहीं सुनेंगे एवं हमें भी सड़कों पर उतरना होगा। सड़क खाली कराने के लिए कहना किसी तरह भड़काउ बयान में नहीं आता।
बहरहाल, दंगों के बारे में संसद की बहस से काफी कुछ स्पष्ट हुआ है। यहां तक कि कपिल सिब्बल तक को कहना पड़ा कि कोई नहीं कहता कि नागरिकता संशोधन कानून से किसी की नागरिकता जाएगी। यही नहीं एनपीआर का यह झूठ भी सामने आ गया कि इसमें संदेहास्पद नागरिक लिख दिया जाएगा। गृहमंत्री ने साफ किया कि ऐसी कोई बात है ही नहीं। कोई दस्तावेज तक नहीं मांगा गया है, जो जानकारी वो देना चाहे दें, न देना चाहें न दें। यह बात पहले भी कही जा चुकी थी। इसी से साफ है कि किस तरह झूठ, भ्रम और भय फैलाकर मुसलमानों को उकसाया गया है।
आखिर इसकी जिम्मेवारी भी तो कुछ लोगों के सिर जानी चाहिए। वे भी तो दंगों के लिए जिम्मेवार माने जाने चाहिएं। सरकार के पूरे बयानों से यह निष्कर्ष अवश्य निकला कि जड़ शाहीनबाग का धरना ही है। वहीं से साजिश की शुरुआत होते हुए दंगों तक स्थिति पहुंच गई। तो क्या अब भी शाहीनबाग को खाली नहीं कराया जाएगा? इसका कोई जवाब नहीं मिला।