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क्‍या आपको नहीं लगता मृत्‍यु ने अपना पैटर्न बदल लिया, आने से पहले अब उसकी आहट भी नहीं आती?

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नवीन रांगियाल

एक शख्‍स मंदिर में भगवान के सामने प्रार्थना करने के लिए माथा टेकता है और फिर कभी नहीं उठता है। वो हमेशा के लिए दुनिया चला से जाता है। एक महिला योगा करती है, इसलिए कि वो स्‍वस्‍थ्‍य रह सके, लेकिन ठीक इसी वक्‍त धम्म से जमीन पर गिर जाती है और उसका दम उखड़ जाता है। एक बस ड्राइवर को बिल्‍कुल भी अंदाजा नहीं था कि कुछ ही देर में उसकी सांसें थम जाएगीं। उसे बस चलाते हुए ही अटैक आ जाता है। ट्रेन में बैठे एक शख्स के सिर में सब्बल घुस जाती है जो खिड़की को तोड़कर अंदर घुसती है। और तो और एक लड़का वॉक कर रहा है और महज एक छींक के बाद उसका दिल हमेशा के लिए धड़कना बंद कर देता है।

मंच पर अपना किरदार निभाते हुए कभी हनुमानजी तो कभी शिव और कभी पार्वती के रूप में लोग देह त्‍याग रहे हैं। नाचते हुए, जिम में वर्क-आउट करते हुए मृत्यु को प्राप्त होने के दृश्य तो आम हो ही चले हैं। ये सारे दृश्‍य देखकर क्या आपको एक बार भी नहीं लगता कि मृत्‍यु ने अपना तरीका, अपना पैटर्न बदल लिया है?

क्या ज्यादा खुशी मौत दे रही है? क्या अपने स्वास्थ्य के प्रति ज्‍यादा सचेत होना हमे मार रहा है। अब तक की ये सारी मौतें जश्‍न, सुख, उत्सव और भगवान के सामने प्रार्थना के क्षणों में हुईं हैं। क्या हमें मौत का ये पैटर्न समझने की कोशिश नहीं करनी चाहिए?

अब तक देखा गया है कि मौत की एक आहट जरूर रही है। कुछ तो मोहलत देती ही रही है वो। कान में आकर कुछ कहती थी, कुछ फुसफुसाती थी, लेकिन अब वो आहट भी लेकर नहीं आती मौत। वो बस आ जाती है, चलते फिरते। कहीं भी, किसी भी वक्‍त।

अब वो यह भी नहीं देखती की कोई अपनी हेल्थ के लिए व्यायाम कर रहा है, किसी की खुशी के लिए गा रहा है, किसी के सुख में नाच रहा है। यहां तक की जिस अंतर्यामी ने जीवन और मृत्यु बनाई, उसका अविष्कार किया उसके सामने माथा टेक रहे, उसके सामने प्रार्थना कर रहे आदमी को भी तो कहां बख्श रहा मौत का ये अकाल।

ऐसा नहीं लगता की हम तकनीक में जितना समृद्ध होते जा रहे हैं, मृत्यु को जानने और उसे भांपने में उतना ही ज्यादा पिछड़ रहे हैं। क्या इस अनभिज्ञता का सवाल जीवन में ही कहीं छिपा है? हम जीवन जीने में कोई चूक कर रहे हैं? हम सारी तकनीकों को समझ गए हैं, सारी दुनिया को समेटकर उसे एक हथेली भर के डिवाइस में तब्दील कर चुके हैं, लेकिन हम हवा, पानी, पेड़ पौधे, मौसम की बात नहीं सुन रहे हैं।

क्‍या हमें नहीं सोचना चाहिए कि हम कहां और किस चीज से खिलवाड़ कर रहे है, जिसकी वजह से यह हो रहा है। हम पर्यावरण के साथ खिलवाड़ कर रहे हैं या अपनी ही जिंदगी के साथ।

हमने उपचार पर जितनी ज्‍यादा सक्षमता हासिल की, मृत्यु उतने ही अपने अलग तरीकों से हमें चौंका रही है।अत्याधुनिक इलाज से हमने जीवन को कुछ घंटे, कुछ दिन खींचकर जरूर लंबा कर लिया है, लेकिन स्वस्थ मौत मरने के गुर हमने भुलते जा रहे हैं। अब हम घर में नहीं मरते, अपने कमरे में नहीं मरते, अपनी जगह पर नहीं मरते, अब हम अस्पताल में ज्यादा मरते हैं, सफर करते हुए मर जाते हैं, जिम करते हुए, नाचते, गाते और खाना खाते हुए और ईश्वर के सामने माथा टेकते मर जाते हैं।

क्या आपको नहीं लगता अब मौत ने अपने आने की आहट भी हटा ली है? वो हमारे किडनी, लीवर और ब्रेन से निकलकर दिल में घुस गई है। सीधे और बहुत चुपचाप, बहुत बे–आहट तरीके से दिल पर वार करती है और एक ही क्षण में सबकुछ खत्‍म. अंत.

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