नौकरशाही को लोकसेवक बनाने का कदम

अवधेश कुमार
नौकरशाही में सुधार आजाद भारत का शाश्वत एजेंडा रहा है। नरेन्द्र मोदी सरकार ने सत्ता ग्रहण करने के साथ इस दिशा में कई कदम उठाए हैं। यहां तक कि कुछ अधिकारियों को अपनी भूमिका का सही तरीके से निर्वहन न करने के कारण उनके न चाहते हुए भी सेवानिवृत्ति तक दे दी गई। किंतु इस समय जो कदम सरकार उठाने जा रही है, वह देखने में तो सामान्य है लेकिन इसका अमल में आना युगांतरकारी परिवर्तन का आधार बन सकता है।

 
वस्तुत: सरकार उच्चाधिकारियों के मूल्यांकन के प्रारूप में परिवर्तन करने जा रही है। केंद्र सरकार के कार्मिक मंत्रालय ने उच्चाधिकारियों के मूल्यांकन प्रपत्रों का जो अंतिम फॉर्म तैयार किया है, उसमें कई ऐसी बातें हैं जिनकी शायद अभी तक कल्पना नहीं की गई थी।


इसके 3 पहलू काफी महत्वपूर्ण हैं- पहला, सचिव और अतिरिक्त सचिव के स्तर पर शीर्ष आईएएस अधिकारियों का मूल्यांकन समाज के कमजोर वर्ग यानी गरीबों के प्रति उनके रवैये के आधार पर किया जाएगा। दूसरा, उनकी वार्षिक प्रदर्शन मूल्यांकन रिपोर्ट में समय पर और विशेष रूप से जटिल तथा महत्वपूर्ण परिस्थितियों में प्रभावशाली निर्णय लेने की क्षमता का ब्योरा होगा। और तीसरा, सचिव और अतिरिक्त सचिव स्तर के अधिकारियों का मूल्यांकन वित्तीय निष्ठा और नैतिक निष्ठा दोनों के आधार पर किया जाएगा।

 
कार्मिक मंत्रालय ने सभी राज्य सरकारों तथा केंद्र शासित प्रदेशों के मुख्य सचिवों को भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारियों के लिए वार्षिक प्रदर्शन मूल्यांकन फॉर्म का यह मसौदा भेजा है तथा सुझाव मांगे हैं। इसके साथ ही भेजे गए पत्र में साफ लिखा है कि अगर समयसीमा के अंदर इनका जवाब नहीं आया, तो मान लिया जाएगा कि आपको इन बदलावों पर कोई आपत्ति नहीं है। उसके बाद सरकार इस फॉर्म को जारी कर देगी।

 
ये तीनों बिंदु ऐसे नहीं हैं जिनका कोई खुलकर विरोध कर सके। इसलिए पूरी संभावना है कि इसे स्वीकृति मिल जाएगी। अगर किसी राज्य या केंद्र शासित प्रदेश की ओर से कोई सुझाव आता है तो उसे स्वीकार करने में भी समस्या नहीं होगी। वास्तव में ये प्रस्ताव ऐसे हैं जिसका पूरा देश स्वागत करेगा। वैसे भी केंद्र सरकार को नौकरशाही में सुधार के लिए व्यापक अधिकार संविधान ने दिए हैं। अब जरा इन तीनों बिंदुओं पर विचार कीजिए।

 
किसी अधिकारी के कार्यों, उसकी उपलब्धियों के मूल्यांकन का मूल आधार ही यही होना चाहिए कि भारत के आम आदमी के प्रति उसका व्यवहार कैसा रहा है यानी उसने गरीबों के लिए अभी तक क्या-क्या किया है? इसी तरह कई बार ऐसी कठिन एवं जटिल परिस्थितियां पैदा होती हैं जिन्हें संभालने के लिए समय पर सही निर्णय लेने की आवश्यकता होती है। अगर किसी नौकरशाह ने ऐसी क्षमता का प्रदर्शन नहीं किया है तो फिर उसके बारे में पुनर्विचार होना ही चाहिए और आचरण में नैतिकता तो प्राथमिक शर्त है। जो अधिकारी स्वयं नैतिक आचरण नहीं करेगा, वित्तीय ईमानदारी के प्रति उसका समर्पण नहीं होगा, वह अपने से नीचे के अधिकारियों- कर्मचारियों को ईमानदारी एवं नैतिकता के पालन के लिए मजबूर नहीं कर सकता।

 
सच कहें तो उसके उल्टे परिणाम ही आते हैं। उसकी देखादेखी दूसरे भी बेईमान बनते हैं या उनको बेईमानी की खुली छूट मिलती है तथा आम जनता इसका दुष्परिणाम भुगतती है। आप थोड़ी गहराई से विचार करेंगे तो भारत में अधिकारियों को लेकर सबसे ज्यादा शिकायत इन्हीं तीनों मामलों में रहती है यानी आम आदमी तक वे पहुंचते ही नहीं। इस कारण गरीबों के लिए सरकारों की जो योजनाएं होती हैं, वे उस रूप में जमीन पर लागू नहीं होतीं, जैसे कि होनी चाहिए। आज भी अधिकारियों तक गरीबों की पहुंच सुगम नहीं हो पाई है। इस स्थिति को बदलना बिलकुल आवश्यक है। उनके वार्षिक मूल्यांकन फॉर्म में ऐसा एक कॉलम डालने के बाद उनके लिए इस दिशा में कुछ न कुछ करना अनिवार्य हो जाएगा।

 
संविधान ने नौकरशाहों को लोकसेवक की संज्ञा दी है। जो संस्था उनके लिए परीक्षा लेती है उसका नाम है संघ लोक सेवा आयोग। राज्यों में राज्य लोक सेवा आयोग है। सत्ता की संरचना अभी तक ऐसी रही है जिसमें नौकरशाह लोकसेवक की बजाय सत्ताधीशों के चरित्र में ज्यादा दिखते हैं। इस चरित्र का अंत होना चाहिए। ऐसा हुए बगैर वे वास्तविक लोकसेवक की भूमिका में न आ सकते हैं, न दिख सकते हैं। सच कहा जाए तो यह बदलाव उस दिशा में एक बड़ा कदम साबित हो सकता है।

 
ऐसे अनेक वाकये हैं जिनमें संबंधित अधिकारी पर आरोप लगता है कि उन्होंने समय पर सही निर्णय नहीं किया। वास्तव में नौकरशाही और लालफीताशाही एक-दूसरे के पर्याय बने तो इसी कारण, क्योंकि आवश्यक फाइलें उनके पास पड़ी रहती हैं, पर वे जल्दी उनका निपटारा नहीं करते। हालांकि इसमें बदलाव के लिए पहले भी कदम उठाए गए हैं। मोदी ने समयावधि में दी गई फाइलों की प्रगति का ब्योरा देने की भी व्यवस्था की है। किंतु मूल्यांकन फॉर्म में अभी तक इसके विवरण की व्यवस्था नहीं थी कि आपने कठिन परिस्थितियों में सही समय पर कैसे और क्या निर्णय लिए?

 
कई बार ऐसी फाइलें या प्रस्ताव आते हैं जिनमें त्वरित निर्णय करने की आवश्यकता होती है ताकि उस अनुसार आगे कार्रवाई हो सके। अनेक अधिकारी आगे आकर निर्णय करने की जगह अपने को सुरक्षित रखने के लिए नियमावलियों का हवाला देते हुए कुछ ऐसी बातें लिखते हैं जिससे वे बच जाएं, भले कार्य हो या न हो। वित्तीय धांधली तथा अनैतिकता और गैरईमानदारी तो अधिकारियों के साथ चस्पां ही हो गया है। ऐसा नहीं है कि सभी अधिकारी वित्तीय रूप से अनिष्ठ हैं या अनैतिक हैं, पर ऐसे लोग हैं इससे इंकार नहीं किया जा सकता। जिनको अधिकारियों से जरूरत पड़ती हैं, वे इस कटु और दुखद यथार्थ से भली प्रकार वाकिफ हैं इसलिए मूल्यांकन फॉर्म में इस बिंदु का होना भी सही है। इसमें यह भी कहा गया है कि हर वर्ष अधिकारियों को अपनी क्षमता के बारे में लिखने के लिए कहा जाएगा जिसे प्रमाणित करने के लिए वे अपने किए गए कार्यों का उदाहरण भी देंगे।

 
इस तरह विचार करें तो मूल्यांकन के इन 3 आधार बिंदुओं से हमारे देश में नौकरशाही के चरित्र और कार्यव्यवहार में व्यापक परिवर्तन आ जाएगा। इससे नौकरशाही की छवि ही नहीं बदलेगी इसका असर देश की नियति पर भी होगा। आखिर नीतियां बनाने से लेकर उसके क्रियान्वयन का पूरा दारोमदार तो नौकरशाहों पर ही है। संसदीय लोकतंत्र के ताने-बाने में नेतृत्व तो राजनीतिक प्रतिष्ठान के हाथों होता है और सामने वही दिखता है लेकिन उनकी नींव, दीवारें, स्तंभ एवं छत सभी नौकरशाह ही होते हैं इसलिए उनका क्षमतावान, कार्यनिष्ठ, ईमानदार तथा आम आदमी के प्रति समर्पित होना आवश्यक है।

 
राजनीतिक नेतृत्व को प्रमुख मामलों में सलाह देने की भूमिका भी उन्हीं की है इसलिए राजनीतिक नेतृत्व का भी यह दायित्व बनता है कि वो अधिकारियों के मूल्यांकन का आधार ऐसा बनाएं जिसमें आम आदमी के प्रति उनकी भूमिका तथा देश की वास्तविक सेवा सबसे ऊपर हो। उसके बाद वे उचित सलाह देने, राजनीतिक नेतृत्व द्वारा नीतियां बनाने के बाद उसे सही तरीके से क्रियान्वित करने तथा समय-समय उसकी समीक्षा करते रहने को बाध्य होंगे।
 
वैसे यह आम अनुभव की बात है कि अगर नौकरशाह संकल्प कर लें तो कठिन से कठिन योजनाएं भी सही तरीके से अमल में आ सकती हैं, गरीबों या आम आदमी के लिए बनी योजनाएं अपने मूल रूप में चरितार्थ हो सकती हैं। पिछले कुछ दिनों में हमने ऐसे कई समाचार देखे हैं, जब स्थानीय जिलाधिकारी ने स्वयं पहल करके किसी अकेली असहाय, गरीब वृद्ध महिला के घर जाकर कल्याण की योजनाएं पहुंचाईं।
 
किंतु यह नौकरशाहों का आम व्यवहार नहीं है। इसे आम व्यवहार बनाना होगा। सही मायनों में तभी हमारे नौकरशाह लोकसेवक के रूप में परिणत हो सकेंगे। जाहिर है, मूल्यांकन के ये तीनों आधार केंद्र केवल केंद्रीय सेवा के अधिकारियों तक सीमित नहीं रहना चाहिए। इसे राज्यों में कार्यरत अधिकारियों के संदर्भ में भी लागू किया जाना चाहिए।
 

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