पिछ्ले दिनों एक्ट्रेस नीना गुप्ता ने अपने फेंस को चेतावनी के रूप में सलाह दी है कि वे शादीशुदा आदमी के प्यार में न पड़ें। मैंने इसके कारण अपनी जिंदगी में बहुत परेशानियां झेलीं हैं। उन्होंने कहा कि वो आपसे कहेगा कि अपनी पत्नी को पसंद नहीं करता। लंबे समय से वो साथ में नहीं रह रहे। आप उसके प्यार में पड़ जातीं हैं।
जब आप उसे अलग होने के लिए कहतीं हैं तो वह कहता है कि उसके बच्चे हैं। आप छुपकर उसके साथ मिलना व मिलकर छुट्टियां मनाने का सिलसिला शुरू कर देतीं हैं। कई रातें उसके साथ बितातीं हैं। जब आप चाहती हैं कि वह अपनी पत्नी से अब तलाक ले और शादी करे तो वह कहता है कि बैंक अकाउंट व प्रापर्टी वगैरह का मसला है।
आज हम बात करते हैं इसी विषय पर। बहुत सी महिलाओं के विचारों को जानकर-पढ़कर कि कैसी जिंदगी हमें मिलनी चाहिए कि फिर किसी को नीना की तरह जिल्लत न उठानी पड़े और हम अपने जीवन को सम्मानपूर्वक जिंदादिली से जीकर अपने रिश्तों के लिए एक-दूसरे को कह सकें 'बधाई हो'...'दूसरी औरत' एक विद्रुपित सत्य है समाज का। देशकाल स्थिति-परिस्थिति चाहे कोई भी हो, पुरुष अपने स्वार्थों के लिए दोहित करता आया है भ्रमजाल में फंसाकर... उसे कभी समाज से छुपकर तो कभी समाज के प्रत्यक्ष कर। सच तो यह है कि गलती दोनों की है, पर बदनामी का ठीकरा महिला के सिर पर फोड़ दिया जाता है। बहुत से नामी फ़िल्मकार अभिनेता, अभिनेत्री, साहित्यकार, कवि दूसरी स्त्री की गिरफ्त में रहे हैं।
कई बार प्रसिद्धि के कारण झुकाव अनैतिक संबंधों में बदलकर विवाह के नाटक तक पहुंचता है। पहली शादी की बलि लेकर सुहाग गीत गाए जाते हैं। इस वर्ग में पैसे और प्रसिद्धि की इतनी भरमार है कि समाज नैतिकता, घर-परिवार सबकुछ दोयम लगता है, किसी की कोई परवाह नहीं। निम्न वर्ग में पैसा है ही नहीं, अपमान का डर नहीं, इसलिए ऐसे मामले खूब होते हैं, सिर्फ निम्न मध्यम वर्ग और मध्यम वर्ग कमोबेश अभी भी अपनी परंपरा और संस्कारों से जुड़ाव के कारण अपेक्षाकृत इन स्थितियों से कम ही दो-चार होता है, पर असर अब यहां भी तेजी से शुरू तो जरूर हुआ है, लेकिन इन सबके बावजूद नीना गुप्ता की ये चेतावनी मायने रखती है। निदा फाजली का एक शेर है-
हर आदमी में होते हैं दस बीस आदमी, जिसे भी देखना बड़े गौर से देखना...
लेकिन फिर भी लोग अभी भी ऐसा करते हैं और अगर इतिहास पलटकर देखें तो महिलाओं की अपेक्षा पुरुषों में विवाहेत्तर संबंध बनाने की अधिक संभावना रही है, लेकिन आज महिलाएं अधिक मजबूत और स्वतंत्र हैं। उनके पास पैसा है, इसलिए विवाहेत्तर संबंधों के मामले में भी उनकी भूमिका पुरुषों के बराबर होती जा रही है। 1990 के दशक की तुलना में आज धोखा देने की संभावना 40% अधिक है। ऐसा ऑफिसों में महिलाओं-पुरुषों की मिश्रित संख्या बढ़ने के कारण है, क्योंकि वे साथ में ज्यादा ट्रैवल कर रहे हैं।
ऐसे संबंध इसलिए भी आम हो गए हैं क्योंकि महिलाओं और पुरुषों में ऐसे रिश्तों को लेकर अपराधबोध नहीं रह गया है। तो इसलिए किसी भी इंसान के बात, व्यवहार से हम ये कतई अंदाजा नहीं लगा सकते कि वो अपने साथी को धोखा दे सकता/सकती है या नहीं। समाज के बीच हम सभी मुखौटे लगाए घूमते हैं जिसके पीछे हमारा असली चेहरा छुपा होता है। दस लोगों की भीड़ में हम वो नहीं होते जो हम असल में होते हैं। अपनी असली सच्चाई तो अकेले में खुलती है।
पिछले वर्षों में दूसरी औरत बाकायदा चर्चा में रही। राजनीतिज्ञ, फिल्मी हस्तियां, मॉडल, लेखक, समाजशास्त्री, प्रवक्ता, चित्रकार, नाटककार, झोपड़पट्टी में रहने वाले या खेत में मजदूरी करने वाले। हर क्षेत्र, हर तबके में दूसरी औरत मौजूद है। मान्यता, पहचान और प्रतिष्ठा की लड़ाई में खड़ी दूसरी औरत कहीं तो घबराकर हार मानने को तैयार है लेकिन अधिकांश हैं, जो कमर कसकर समाज की थोथी मर्यादाओं पिछले और असंगत जीवन मूल्यों को चुनौती देती यह साबित कर रही हैं कि उनकी पहल न कहीं अनैतिक है न सामाजिक नियम, धर्म के प्रति उच्छृंखलता। वह इसे स्त्री स्वतंत्रता, संघर्ष और उसकी सामाजिक छवि की अन्वेषी भूमिका ही मानती हैं।
सदियों की ट्रेनिंग और कंडीशनिंग ने हमें विवाह परंपरा में प्रतिबद्धता सिखाई है, उत्तर वैदिक काल से भारत में विवाह प्रथा अस्तित्व में आई। गलत स्त्री वह होती है जो सामाजिक रीतियों से बाहर प्रेम करती है। और पुरुष... कुछ सालों बाद अपने बच्चों के भविष्य की दुहाई देकर डंप कर देने का एकाधिकार तो उसी के पास हैं। ऐसी स्त्री के हिस्से आता है सामाजिक तिरस्कार और एक असुरक्षित प्रेम संबंध। कई बार यह दूसरी स्त्री बाद में पाती है कि प्रेमी की पत्नी की न सिर्फ सामाजिक स्थिति बहुत सुदृढ़ है बल्कि उनका प्रेमी भी उसे सामाजिक तौर पर खासी तवज़्ज़ोह देता है। बहुधा इन स्त्रियों से पुरुष मां बनने का हक़ भी छीन लेता है।
अक्सर ये लड़कियां अवसाद और चिड़चिड़ेपन का शिकार हो जाती हैं। छली दोनों स्त्रियां जाती हैं बराबर से, लेकिन सहानुभूति एक को ही मिलती है। ऐसे कायर और खुदगर्ज़ पुरुषों का कोई नाम रखने का वक़्त आ गया है। अगर स्त्री की जगह पुरुष के ऊपर संतान बीज धारण करने और जन्म देने का ज़िम्मा होता तो जितनी 'दूसरी औरतें' हैं, उतने ही 'पराए मर्द' भी स्पष्ट दिखाई देते। पर वर्तमान परिवेश में पुरुष का पल्ला झाड़कर अलग हो जाना आसान है और औरत हर तरह के लांछन सहने के लिए अकेली खड़ी रह जाती है। लिव इन रिलेशन में संतान को जायज़ मान मिलता है, पर वहां भी स्त्री के अधिकार की स्पष्टता नहीं। सबसे ज्यादा दुर्गति फिल्म वालों ने कर रखी है। फिल्मों का असर बहुत पड़ता है आम जनमानस पर।
दूसरी औरत कल भी थी.. आज भी है। मगर कल की दूसरी औरत समाज में रखैल, तिरस्कृत, बहिष्कृत, लांछित पुरुष की इच्छा का मात्र खिलवाड़ या कभी किसी के जीवन की भावनात्मक शून्यता को भरने वाला अप्रकट निमित्त ही थी। लेकिन कल की अधिकार वंचिता रखैल आज अपने लिए मनोवैज्ञानिक, सामाजिक, नैतिक एवं मानवीय पृष्ठभूमि पर नई परिभाषा चाहती है। आज वह अपने परंपरागत परिचय से अलग खड़ी अपनी पहचान की मांग ही नहीं कर रही, बल्कि स्वयं गढ़ भी रही है और उसे दृढ़ स्वाभिमान के साथ परिभाषित भी कर रही है।
दूसरी औरत स्त्रियां स्वयं बनना पसंद करती हैं या बना दी जाती हैं, यह प्रतिप्रश्न भी पैदा होता है, क्या उन्हें पहले से पता नही होता कि वे जिससे जुड़ने जा रही हैं, उनका पहले से परिवार है। दूसरी औरत बनने वाली औरतें प्रायः कुंवारी होती हैं, ऐसा क्यों है? उन्हें पता होता है कि जिस प्रेमी पर वे अपना पूर्णाधिकार चाहती हैं उस पर पहले से ही उनकी पत्नी और बच्चों का अधिकार है। अधिकार का हनन तो ये दूसरी औरतें करती हैं फिर ये किस अधिकार के लिए जीवनभर लड़ती हैं? ज्यादातर स्त्रियां जानबूझकर दूसरी औरत क्यों बनती हैं? क्या इस मसले पर पुरुष के बराबर स्त्रियां भी दोषी नहीं हैं?
प्रणय के लिए तन ही नहीं मन का भाव भी जरूरी है, पर आज इश्क तो इलायची की तरह हो गया है, बांटते फिर रहे हैं। 'लिव इन रिलेशनशिप' इसी अति आधुनिकता की उपज है। घर में विरोध करने पर पत्नी होती है घरेलू हिंसा की शिकार और दूसरी औरत होती है सामाजिक प्रताड़ना की शिकार।पुरुष के तो सात खून माफ ही होते हैं। खेल किसी भी तरह बंद नहीं होता। जिसका परिणाम भुगतते हैं बच्चे। अतः मेरे विचार में स्त्री-पुरुष दोनों में ही आत्म संयम, आत्म नियंत्रण और आत्मानुशासन की आवश्यकता है। ताली एक हाथ से तो नहीं बजती.।उसके लिए दोनों समान रूप से दोषी हैं।
मुझे इस प्रश्न का जवाब अब तक नहीं मिला कि दूसरी औरत बनने वाली ज्यादातर औरतें अविवाहित क्यों होती हैं, जबकि उन्हें पता होता है कि वह जिसकी दूसरी औरत बन रही हैं, वह पहले से ही बाल-बच्चेदार है। अगर कोई महिला किसी पुरुष की दूसरी जीवनसाथी बनती है तो उसे बहुत दिलेर होकर समाज में सिर ऊंचा करके चलना होता है, समाज पैसे और रूतबे को पूजता है, जो दिलेर हो, धनवान हो, उसके सामने कोई कुछ नहीं कहता, पर जो मूक हो, टसुए बहाए, मजबूरी जताए वो बहिष्कार और प्रताड़ना सहे...इस विडंबना को अब ख़त्म करना होगा।
औरत आज भी मात्र तमाशबीन है 'पितृसत्तात्मक' व्यवस्थता की वाहक है, तभी तो बड़े आराम से 'औरत, औरत की दुश्मन है' का हास्यास्पद जुमला स्वीकारती है, मानती है और उसको ढोती है और दोष महिला का... लगाव होना मानवीय चाहत है, किंतु समाज ने जितना अपने को वस्त्रों से ढंका, इंसानियत उतनी ही नंगी होती चली गई, क्योंकि उसने तकनीकी विकास तो किया, पर उसका चिंतन विकसित नहीं हुआ। बंधनों को तोड़ें और अपने आपको दकियानूसी संस्कारों से मुक्त करें, संस्कृति के ढकोसलों से बाहर निकलें... पाप-पुण्य के जाल से बाहर निकलेंगे तो पवित्रता नजर आएगी कि औरत कभी भी पहली या दूसरी नहीं होती... इंसान होती है और वाकई इंसान ही सभ्य समाज की पराकाष्ठा का मापदंड होता है।
हर व्यक्ति को चाहे वह स्त्री हो या पुरुष अपने तरीके से अपनी जिंदगी जीने का हक है, लेकिन चूंकि हम सामाजिक प्राणी हैं इसलिए सामाजिक मान-प्रतिष्ठा भी जरुरी है। लेकिन सच्चाई तो यह है कि व्यवस्था, नैतिकता, मर्यादा और कर्तव्य के दायरे में कैद स्त्री खुलकर सांस नहीं ले पा रही है। सोचना यह है स्त्री-पुरुष दोनों को कि हम परिस्थितिजन्य समझौते को जीने की मजबूरी मान लें या सब कुछ नकार कर खुलकर अपनी तरह से जिएं क्योंकि कुछ कारण आज और हमेशा जिंदा रहेंगे जो अब इन्हें और बढ़ावा देंगे।
भले ही सेक्स के लिए, किसी रिश्ते में बने रहने के लिए, किसी बुरे रिश्ते से बाहर निकलने के लिए, प्यार-दोस्ती के लिए, आत्मसंतुष्टि के लिए, पैसों के लालच के लिए, वेस्टर्न कल्चर के प्रभाव/ अति आधुनिक दिखने की चाहत में, उम्र का अंतर, पति/पत्नी का दूर स्थानों पर होना, आपसी मतभेद, अकेलापन, अनबन, पुराने प्यार की मुलाकात, क्लेश या जीवनसाथी से किसी बात का बदला लेने जैसी कई समस्याएं मुंहबाएं अमरता लिए खड़ी रहेंगी और इसका फायदा उठाया जाता रहेगा जिनमें आग में घी का काम करेंगे फेसबुक, स्मार्ट फोन, सस्ते फोन, इंटरनेट, ऑनलाइन शॉपिंग, क्रेडिट कार्ड्स, सीक्रेट इमेल अकाउन्ट्स, जैसे कई ऐप्स आसानी से उपलब्ध हैं जो सामाजिकता से परे बेखौफ बेशर्मी के साथ इस्तेमाल किए जाते हैं। साथ ही गर्भनिरोधकों की बाजारों में भरमार और मिलने के स्थान जो आसानी से उपलब्ध हैं।
समय आ गया है की हम इतनी काबिलियत और शक्ति एकता के साथ हासिल करें कि उन्हें उच्चारित करने के लिए नए शब्द गढ़े जाएं। हमारी वीरता को 'मर्दानी' शब्दों से न सम्मानित करना पड़े। सीमितता की जकड़न से बाहर निकलकर अपनी परिभाषा खुद लिखें। जहां तक ख्वाहिशों की बात है तो उसका तो कोई ओर-छोर ही नहीं होता। मनुष्य की हसरतें हमेशा 'ये दिल मांगे मोर...' का पर्याय है।
पर यदि हम सबक लेना चाहें तो नीना गुप्ता की बात में गहराई और तगड़ा दम तो है। कोई यदि अपने निजी जिंदगी के अनुभव के खजाने में से सार्वजनिक रूप से गलतियों को स्वीकारता है तो बड़ी हिम्मत का काम तो है ही वो इतना पीड़ित भी है कि किसी दूसरे को इस पीड़ा में देखना नहीं चाहता। साधन-संपन्न, सक्षम, नेम-फेम वाली किसी हस्ती की यह स्वीकारोक्ति वाकई हमें जिंदगी के 'शुभ मंगल सावधान के साथ-साथ शुभ मंगल ज्यादा सावधान' का भी पाठ पढ़ाती है।