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अन्नदाता और दाता के बीच कैसी दूरी?

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ऋतुपर्ण दवे

क्या किसान आन्दोलन ने पूरे देश में एक नई अलख जगा दी है? क्या किसानों की मांगें वाकई में न्यायोचित नहीं है? यदि ये कानून किसानों के हित में है, तो क्यों कोई भी बड़ा किसान संगठन इसके पक्ष में क्यों नहीं है? क्या किसानों की तैयारी से केन्द्र सरकार बेखबर थी और उससे भी बड़ा यह कि क्या जिन तीन कृषि कानूनों का अब पुरजोर विरोध हो रहा है, उनको बनाते समय केन्द्र सरकार ने जिनके लिए बनाया जा रहा है, उनकी राय लेना भी क्यों नहीं जरूरी समझा?

अब वजह कुछ भी हो, लेकिन किसानों की एकता ने देश में इस आन्दोलन को एक नया मंच और नई चेतना जरूर दे दी है। स्थिति कुल मिलाकर कुछ यूं होती जा रही है कि पांच दौर की वार्ता विफल होने के बाद आगे क्या होगा किसी को पता नहीं है।

न ही किसान और न ही सरकार झुकने को तैयार है। हां अगर कुछ दिख रहा है तो वह यह कि किसानों के हौसले बुलन्द हैं और तैयारी पुरजोर और इतनी कि उनके द्वारा दी गई चेतावनी भी सच सी लगने लगीं। जिस तरह सड़कों पर ट्रैक्टर ट्रॉलियों और बड़े-बड़े वाहनों को अस्थाई आश्रय केन्द्रों में तब्दील कर पूरी तरह से व्यवस्थित ढ़ंग से रोज के भोजन, पानी का इंतजाम हो रहा है, उसने कम से कम भरे कोविड काल में किसानों की एकता पर मुहर लगा दी है। सड़कों को आशियाना में तब्दील कर चुके किसानों की घोषणा पर भी अब आश्चर्य नहीं होता कि 6 महीने के राशन-पानी के इंतजाम के साथ आए हैं। एकता का परिणाम देश ने स्वतंत्रता के पहले और बाद में भी कई मौकों पर देखा है।

शायद किसानों के गुस्से या एकजुटता को नजर अंदाज करना ही सरकार के लिए बड़ी मुसीबत का सबब बन गया है। आगे क्या होगा कोई नहीं जानता। आन्दोलन उग्र होगा या बात बनेगी कुछ भी कहना जल्दबाजी होगी।
अन्नदाताओं के आन्दोलन को 11 दिन हो चुके हैं। शनिवार को पांचवें दौर की वार्ता विफल होने के बाद दोनों ही पक्षों का अपनी-अपनी रणनीतियों को लेकर मंथन हो रहा होगा। निश्चित रूप से सरकारी इण्टेलीजेंस अब काफी सतर्कता से किसानों की गतिविधियों पर निगरानी तो रख ही रहा होगा, लेकिन इससे क्या निकलेगा यह पता नहीं।
किसानों के आन्दोलन की सफलता का बड़ा राज यह भी है कि राजनैतिक दलों के लोगों के जुड़ने के बाद भी इसमें किसी का ठप्पा नहीं लगा है।

अवार्ड लौटाने का सिलसिला और इसमें नामचीन लोगों के आगे रहने और पूरी खुद्दारी के साथ किसानों के जुड़ने से आन्दोलन वृहद होता जा रहा है। वहीं पंजाब से भरपूर और कई अन्य राज्यों जिस तरह से समर्थन मिल रहा है वह हर रोज आन्दोलन को एक नई गति दे रहा है। सरकार के इस आग्रह को कि सर्दी का मौसम है, कोविड का संकट है, इसलिए बुजुर्ग, बच्चों,महिलाओं को नेता घर भेज दें। लेकिन बुजुर्ग और महिलाएं किसी भी कीमत पर झुकने को तैयार नहीं है। कुल मिलाकर मामला पेचीदा होता जा रहा है।

हां, एक बात जरूर दिख रही है कि आन्दोलन को लेकर कुछ जिम्मेदार व कुछ स्वयं भू लोगों के बयानों ने एक नई हवा देने की कोशिश जरूर की थी। लेकिन उससे भी बड़ी सुकून की बात यह है कि इसे आन्दोलनकारियों ने कोई तवज्जो नहीं दी वरना रास्ता भटक सकता था। एक ओर जहां एडिटर्स गिल्ड ऑफ इंडिया यानी ईजीआई किसानों के प्रदर्शन के समाचार कवरेज को लेकर चिंतित है कि मीडिया का कुछ हिस्सा बगैर किसी साक्ष्य के प्रदर्शनकारी किसानों को ‘खालिस्तानी’ और ‘राष्ट्र-विरोधी’ बता आंदोलन को ही अवैध करार दे रहा है। एडीटर्स गिल्ड इसे जिम्मेदार, नैतिकतापूर्ण और भरोसेमन्द पत्रकारिता के सिद्धांतों के खिलाफ मानते हुए किसान आंदोलन का निष्पक्ष और संतुलित कवरेज करने की सलाह दी है। इसी तरह नागरिकता संशोधन कानून यानी सीएए के खिलाफ उस समय प्रदर्शन का खास चेहरा बनी शाहीन बाग की दादी बिल्किस बानो पर फर्जी ट्वीट से अभिनेत्री कंगना रनौत फिर सुर्खियों में हैं। बूढ़ी महिला को पंजाब के जीरकपुर के वकील ने बिलकिस दादी बताने के ट्वीट पर माफी मांगने की मांग की है।

दरअसल मोहिंदर कौर को बिलकिस बानो के रूप में गलत बताते हुए किए गए एक ट्वीट के लिए कानूनी नोटिस कंगना को भेजा है। कंगना ने ट्वीट को रीट्वीट कर, किसान प्रोटेस्ट में शामिल बुजुर्ग किसान महिला को न केवल शाहीन बाग की बिलकिस बानो बताया था बल्कि यह भी लिखा था कि दिहाड़ी के हिसाब से दादी से काम करवाया जाता है ट्वीट जमकर ट्रोल होने लगा और लोगों के निशाने पर आने के बाद कंगना ने डिलीट कर दिया।

किसानों की मांग है कि सरकार न्यूनतम समर्थन मूल्य यानी एमएसपी को कानूनी अधिकार बनाए जिससे कोई भी ट्रेडर या खरीददार किसानों से उनके उत्पाद को कम दाम पर न खरीद पाए। फिर भी कोई ऐसा करता है तो उस पर कार्रवाई हो। एमएसपी और मंडियों की स्थापित व्यवस्था को खत्म होने का फायदा केवल खरीददारों को होगा जो बड़े लोग भी हो सकते हैं। इससे किसान इन्हीं के रहमों करम पर बंधुआ सरीखे मजबूर हो जाएंगे। जबकि सरकार की सफाई है कि कानून किसानों को एक खुला बाजार देता है जहां वे अपनी मनमर्जी के कृषि उत्पाद बेच सकें। हालांकि सरकार का कहना है कि एमएसपी खत्म नहीं की जा रही है और मंडियां भी पहले की तरह काम करती रहेंगी। लेकिन किसान इस पर आशंकित हैं।

किसानों का दूसरा विरोध कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग के जरिए अनुबंध से खेती को बढ़ावा देने के लिए बने राष्ट्रीय फ्रेमवर्क पर है। इसमें किसान और खरीददार के बीच समझौता होगा और किसान ट्रेडर या खरीददार को एक पूर्व निर्धारित कीमत उपज बेचेगा। जिसमें कृषि उत्पाद की गुणवत्ता, ग्रेड और स्टैंडर्ड भी पहले ही तय होगा। इसमें नियमों के तहत फसलों की बुआई से पहले कम्पनियां, किसानों का अनाज एक संविदा के तहत, तय मूल्य पर खरीदने का वादा करेंगी। क्या उपजाना है यह भी उस उसी में तय होगा। साथ ही उपज बाजार की जरूरत और मांग के हिसाब से होगी। मतलब कम्पनियों के आगे किसान मजबूर होगा क्योंकि किसान की फसल तैयार होगी तो कम्पनियां कुछ समय इंतजार करने को कह बाद में उत्पाद को खराब बता, अमान्य बता नया मोलभाव भी कर सकती है।

तीसरा कानून है आवश्‍यक वस्‍तु संशोधन अधिनियम यानी ईसीए। इसमें अनाज, दलहन, तिलहन, खाद्य तेल यहां तक कि प्याज और आलू को भी आवश्यक वस्तु की सूची से हटा दिया गया है। किसान इसे दोधारी तलवार मान रहे हैं क्योंकि निजी खरीददारों द्वारा इन वस्तुओं के भंडारण या जमा करने पर सरकार का नियंत्रण नहीं होगा। इसमें बड़े पैमाने पर थोक खरीद या जमाखोरी के कारण जरूरी जिंसों के दाम बढ़ेंगे जिसके दो प्रतिकूल प्रभाव भी संभव है। पहला ग्रामीण क्षेत्रों में महंगाई दर बढ़ेगी नतीजन गरीबी बढेगी और दूसरा सरकारी राशन दुकानों के लिए खरीद की लागत बढ़ेगी।

आलू-प्याज के आसमान छूते दाम सामने हैं। अब किसान ही सस्ता बेचकर इन्हें मंहगे दामों पर खरीदने को मजबूर हैं। यानी गरीब एवं मध्यम वर्ग को नुकसान होने की संभावना है।

किसानों की आशंकाएं वाजिब हैं। भले ही यह कानून कागजों में प्रगतिशील लगें लेकिन बहुत दूर की सोच के साथ किए गए दिखते हैं। निश्चित रूप से इनसे जैसा कि किसानों का आरोप है और आन्दोलन की वजह है कि उन्हें जमाखोरों, व्यापारियों, कॉरपोरेटर्स, मल्टीनेशनल कंपनियों के रहमों करम पर छोड़ा जा रहा है जो आखिर अन्नदाता विरोधी ही साबित होंगे। हमारे सामने अमेरिका व यूरोप की फ्री मार्केटिंग व्यवस्था यानी मुक्त बाजार आधारित नीति का उदाहरण है।

1970 में वहां किसानों को रिटेल कीमत का 40% मिलता था अब फ्री मार्केट के बाद किसानों को रिटेल कीमत की मात्र 15% ही मिलता है। वहां फायदा कम्पनियों व सुपर मार्केट श्रंखला वालों को हुआ बावजूद इसके किसानों को जिंदा रखने के लिए हर वर्ष करीब सात लाख करोड़ रुपये की सरकारी मदद दी जाती है। लेकिन इससे कितना वास्तविक नुकसान हुआ और किसान पराधीन हुए यह भी समझ आता है। ऐसे में भारत में किसानों की आशंकाएं बेवजह नहीं लगती और यह भी इतनी बड़ी संख्या में लोगों का जुटना और दिन-प्रतिदिन समर्थन बढ़ना कहीं न कहीं यह पुख्ता संकेत है कि कुछ तो है जो कानून में किसान विरोधी है। यह भी ध्यान रखना होगा कि भारत जय जवान-जय किसान का समर्थक था है और रहेगा। ऐसे में दाता बनाम अन्नदाता की जंग, सुलह में बदलनी चाहिए ताकि एक नई क्रान्ति की अलख जगे और हो हरित क्रान्ति।

नोट: इस लेख में व्‍यक्‍त व‍िचार लेखक की न‍िजी अभिव्‍यक्‍त‍ि है। वेबदुन‍िया का इससे कोई संबंध नहीं है।

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