Select Your Language

Notifications

webdunia
webdunia
webdunia
webdunia
Advertiesment

लॉकडाउन के 233वें दिन के बाद की पहली दिवाली!

हमें फॉलो करें लॉकडाउन के 233वें दिन के बाद की पहली दिवाली!
webdunia

श्रवण गर्ग

, शुक्रवार, 5 नवंबर 2021 (20:57 IST)
क्या हमें कुछ भी स्मरण है कि पिछले साल लॉकडाउन के 233वें दिन कैलेंडर में कौन सी तारीख़ थी? देश में उस दिन क्या चल रहा था? हम क्या कर रहे थे? क्या वह दिन 14 नवम्बर का तो नहीं था- पंडित जवाहर लाल नेहरू का जन्मदिन। और सबसे बड़ी बात यह कि क्या इस दिन दीपावली तो नहीं थी? ज़रूर थी। घरों में दीये भी जल रहे थे पर लोगों के दिल बुझे हुए और उदास थे। कोरोना के मरीज़ों का आंकड़ा इस दिन का 87.73 लाख था और दुनिया को (इस दिन तक) देश में मरने वालों की संख्या 1,29,188 (सरकारी तौर पर)  बताई गई थी। अस्पताल मरीज़ों से भरे हुए थे। तमाम फ़्रंट लाइन स्वास्थ्यकर्मी पूरी तरह से थक चुके थे, फिर भी काम में लगे हुए थे।

हम एक बार फिर दीपावली से रूबरू हैं। हमारे भीतर का लॉकडाउन अभी भी जारी है। 'न्यूयॉर्क टाइम्स’ की एक रिपोर्ट पर यक़ीन करना हो तो भारत में (सरकारी दावे 4.58 लाख के मुक़ाबले) कोरोना के मृतकों की कुल संख्या 30 लाख से ज़्यादा होनी चाहिए। कोरोना ने जिन लाखों परिवारों के किसी न किसी सदस्य को अपना ग्रास बनाया है उनमें से ज्यादातर की यह पहली दीपावली है। क्या हमें सब कुछ याद है या भूल गए? और यह भी कि क्या देश में कोरोना पर पूर्ण नियंत्रण पा लिया गया है? अगर सौ करोड़ से ज़्यादा लोगों को टीके लग चुके हैं तो ऐसा निश्चित ही मान लिया जाना चाहिए। ऐसा सरकारी तौर पर मान लिया गया हो उसमें शक है। कोरोना के साथ हमने जिस तरह की किफ़ायत भरी ज़िंदगी शुरू की थी उसका अंत कब होगा, हमें कोई अंदाज़ा नहीं है।
 
कोरोना के असर को लेकर दुनिया भर में अलग-अलग सर्वेक्षण चल रहे हैं। सबके निष्कर्ष लगभग एक जैसे ही हैं। वे यह कि महामारी ने नागरिकों को हर तरह की बचत करने की आदत डाल दी है और इसमें उन्हें अपनी सांसों और आज़ादी का इस्तेमाल करने की इजाज़त भी शामिल है। हमारे राजनीतिक अधिष्ठाताओं ने किसी समय दिलासा दिलाया था कि यह युद्ध लम्बा नहीं चलेगा और सब कुछ जल्दी ही पहले जैसा हो जाएगा। बहुसंख्य आबादी को टीके लग जाते ही हमें अपने अतीत की ओर ज़्यादा उत्साह से लौटने के मौके नसीब हो जाएंगे। नागरिक भूल गए कि राजनीति में पहले जैसा कुछ भी नहीं होता। जो छूट गया है वह वापस नहीं आता। लोग भी अब जानना नहीं चाहते हैं कि उन्होंने कहीं बाहर जाना और घर वापस आना क्यों बंद कर दिया है !
 
 
एक अंग्रेज़ी अख़बार में प्रकाशित सर्वेक्षण में बताया गया हैं कि पहले लॉकडाउन के बाद केवल एक घोषणा के ज़रिए वे जो लाखों-करोड़ों प्रवासी मज़दूर और अन्य नौकरीपेशा अपने गांव-क़स्बों की ओर पैदल और भूखे-प्यासे दौड़ा दिए गए थे उनमें से कोई दस प्रतिशत वापस महानगरों में नहीं लौटे हैं। इस बीच तीन फसलें ले ली गई हैं और कई त्योहार भी बीत गए हैं। यह सवाल अलग है कि कामों पर नहीं लौटने वाले इस वक्त कैसे जी रहे होंगे, उनकी दीपावली कैसी मन रही होगी और उनके रहने की जगहों पर मूलभूत सुविधाओं का पहले से ही कमजोर ढांचा अब और कितना चरमरा गया होगा!
webdunia
महामारी के कारण नागरिक सिर्फ़ अपने ख़र्चों में ही कटौती नहीं कर रहे हैं, वे किसी पूर्णकालिक रोज़गार या सरकार की मदद के बिना भी जीने की आदत डाल रहे हैं। कोरोना के दौरान भुगती गईं चिकित्सा संबंधी यातनाओं के अनुभव के बाद उन्होंने बीमार पड़ना भी कम कर दिया है। वे बिना डॉक्टरों और उनकी महंगी दवाओं के जीने के नए-नए तरीक़े आज़मा रहे हैं। अनुभव है कि 1975 के आपातकाल में रिश्वत का रेट बढ़ गया था। कोरोना काल में डॉक्टरों, अस्पतालों, दवाओं से लगाकर अंत्येष्टि तक के रेट बढ़ गए। लोगों को जानकारी मिलना बाक़ी है कि रेमडेसिविर इंजेक्शन में मिलावट और ऑक्सीजन सिलेंडर की कालाबाज़ारी में पकड़े गए लोगों का अंततः क्या हुआ?
 
दुनिया भर में चल रहे सर्वेक्षण बताते हैं कि नागरिक किस कदर थक गए हैं और अपने आपको कितना अकेला महसूस करने लगे हैं! न्यूयॉर्क टाइम्स की ही एक रिपोर्ट के मुताबिक़, हताशा में डूबे कई अमेरिकी न सिर्फ़ नौकरियां ही छोड़ रहे हैं, वहां तलाक़ का प्रतिशत भी बढ़ गया है। मनोचिकित्सकों के पास पहुंचकर सांत्वना जुटाने या जीने के लिए साहस तलाश करने वालों की संख्या बढ़ गई है। पहले लोग एक-दूसरे से दूर होते हुए भी नज़दीक थे पर अब एक ही छत के नीचे रहते हुए भी दूर हो रहे हैं।
 
किसी भी प्रजातांत्रिक व्यवस्था में इस हक़ीक़त को ख़ौफ़ की तरह देखा जा सकता है कि नागरिकों ने एक विचारवान समूह या भीड़ की शक्ल में एकत्र होना या अपने को व्यक्त करना बंद-सा कर दिया है। मज़दूर हों या सामान्य नागरिक, माई-बाप सरकार से अब कोई नई मांग नहीं कर रहे हैं। प्लेटफ़ार्म टिकट तो महंगे कर ही दिए गए हैं, पर (धार्मिक अवसरों या त्योहारों को छोड़ दें तो) बस अड्डों पर भी पहली जैसी हंसती-खेलती भीड़ नज़र नहीं आती। तुर्रा यह कि अपने नागरिकों के न बोलने, कोई मांग नहीं करने, अपने संविधान-प्रदत्त मौलिक अधिकारों को लेकर कोई शिकायत नहीं करने की उदारता ने सरकारों को और ज़्यादा निश्चिंत कर दिया है। निरंकुश व्यवस्थाओं का जन्म इसी तरह की ज़मीन में होता है।
 
एक ऐसी परिस्थिति की कल्पना की जा सकती है कि अगर नागरिकों को कृत्रिम या वास्तविक महामारियों की लहरों की तरफ़ षड्यंत्रपूर्वक धकेला जाता रहे और उन्हें उससे बाहर निकालने के प्रयास कोरोना की तरह ही आधे-अधूरे और भ्रष्ट हों तो जिस किफ़ायत की ज़िंदगी की बात हम वर्तमान के संदर्भों में कर रहे हैं वह शासकों के हित में एक स्थायी सुनामी में भी बदली जा सकती है। जिस किफ़ायत को नागरिक अपने जीवन का एक बड़ा गुणात्मक परिवर्तन मानकर गर्व कर रहे हैं, सरकारें चाहे तो उसका इस्तेमाल प्रजातंत्र को कमजोर कर व्यवस्था पर अपनी पकड़ मज़बूत करने में भी कर सकतीं हैं।
 
किसी भी समझदार और प्रजातंत्र-विरोधी हुकूमत की इस बात में रुचि हो सकती है कि नागरिक किसी न किसी परेशानी की लहर पर स्थायी रूप से सवारी करते रहें। वह सवारी कोरोना की भी हो सकती है और धर्म की भी! ऐसी परिस्थिति में अगर व्यवस्था के प्रत्येक कदम पर नज़र रखकर उसके आगे के इरादों को जानने की जरूरत बढ़ गई जान पड़ती हो तो नागरिकों को कम से कम इस एक काम में तो कोई किफ़ायत नहीं बरतनी चाहिए। दीपावली की शुभकामनाएं! (इस लेख में व्यक्त विचार/विश्लेषण लेखक के निजी हैं। 'वेबदुनिया' इसकी कोई ज़िम्मेदारी नहीं लेती है।)
 

Share this Story:

Follow Webdunia Hindi

अगला लेख

Annakut Bhog : अन्नकूट में बनाई जाती हैं यह खास सब्जी, पढ़ें आसान तरीका और 4 खास बातें