Dharma Sangrah

सीमाओं की सुरक्षा हमारे पुरुषार्थ के परीक्षण की वेला है

डॉ. कृष्णगोपाल मिश्र
चीन के विदेश मंत्रालय ने एक बार फिर दावा किया है कि हमारी उत्तरी सीमा पर स्थित ‘गलवान घाटी’ उसकी है। भारतीय क्षेत्र अक्साई चीन का सुविस्तृत भू-भाग हड़पने के बाद भी उसकी सीमा-विस्तार लिप्सा पूर्ववत अतृप्त है। गलवान घाटी यदि अक्साई चीन की भांति उसे दे दी जाए तो भी उसकी यह विस्तारवादी गृद्ध-दृष्टि हटना संभव नहीं है, क्योंकि यह सहज राजस-वृत्ति है। 
 
प्रत्येक शक्तिशाली राज्य सदा से अपने पड़ोसी राज्यों की भूमि पर आक्रमण-अतिक्रमण करता रहा है और आज इक्कीसवीं शताब्दी में सभ्यता, संस्कृति, विकास, मानवाधिकार, विश्वशांति आदि की दुहाई देने के बावजूद विभिन्न देश (राष्ट्र-राज्य) अपनी सीमाओं के विस्तार के लिए सक्रिय हैं; नए-नए संघर्षों को जन्म दे रहे हैं; षडयंत्र रच रहे हैं। नेपाल की संसद द्वारा नया नक्शा पास करके भारतीय सीमाओं में बेबुनियाद दावा प्रस्तुत किया जाना इस तथ्य का नवीनतम साक्ष्य है।
 
जिस प्रकार राजस-वृत्ति सीमाओं के विस्तार के लिए अनावश्यक संघर्षों-युद्धों- षडयंत्रों के कुचक्र रचती है, उसी प्रकार वह अपनी सीमाओं की सुरक्षा के लिए भी सतत सतर्क रहती है, इस दिशा में हर संभव प्रयत्न करती है। यदि कभी किसी देश-राज्य का कोई भू-भाग उससे छिन जाता है तो भी वह उसे पुनः प्राप्त करने के लिए अपने प्रयत्न बंद नहीं करती और अवसर पाते ही उसे पुनः वापस ले लेती है। यह राजस-वृत्ति कभी भी शत्रु शक्तियों का पोषण नहीं करती अपितु हर संभव प्रयत्न करके उन्हें दुर्बल बनाने का उद्यम करती है। 
 
इस प्रकार अपनी सीमाओं की रक्षा और उनका विस्तार राजनीति का सनातन स्वभाव है किंतु जब कोई व्यक्ति, समाज, राज्य अथवा देश इस राजस-भाव पर अपनी सात्विक वृत्ति आरोपित कर साधारण मानव-स्वभाव और उसकी दुर्बलताओं की उपेक्षा करता हुआ आत्ममुग्ध होकर राजनीति की कठिन डगर पर अग्रसर होना चाहता है तब उसके समक्ष ऐसे ही संकट उपस्थित होते हैं जैसे कि आज भारतीय राजनीति के समक्ष उपस्थित हैं।
 
 
भारतीय राजनीति ने स्वतंत्रता प्राप्ति के तत्काल पश्चात कश्मीर पर हुए पाकिस्तान-प्रेरित कबायली आक्रमण के रूप में राजस-भाव के इस कठोर सत्य का साक्षात्कार किया किंतु अपनी खोखली आदर्शवादिता में कश्मीर का एक बड़ा भू-भाग गंवा दिया। उसे वापस प्राप्त करने के लिए कोई सार्थक प्रयत्न नहीं किए। सन् 1971 के भारत-पाक युद्ध में भारतीय सैनिकों के अद्भुत पराक्रम से अर्जित विजय के अवसर पर जब पाकिस्तान की भूमि और उसके लगभग एक लाख सैनिक हमारी कैद में थे, तब उस पर दबाब बनाकर पाक-अधिकृत कश्मीर का अपना क्षेत्र हम वापस ले सकते थे लेकिन आत्ममुग्ध भारतीय नेतृत्व ने इस अवसर पर शत्रु से अपनी खोई भूमि वापस लेने की कोई बात तक नहीं की। उसे ‘मोस्ट फेवरेट नेशन‘ का दर्जा देकर और मजबूत बनाया। जिसका परिणाम है कि वहीं शत्रु शक्ति आज हमारी ही जमीन से हमारे विरूद्ध अघोषित युद्ध जारी रखे है। 
 
पी.ओ.के. से चलने वाली गोलियां पुंछ, राजौरी, कठुआ आदि कितने ही मोर्चों पर हमारे रिहायशी क्षेत्रों को आहत कर रही हैं। यदि समय रहते पी.ओ.के. पहले ही वापस ले लिया गया होता तो आज की ध्वंसकारी गतिविधियां पी.ओ.के. की पाकिस्तानी सीमा पर होतीं, पंजाब, जम्मू आदि क्षेत्रों में नहीं। यह सामान्य समझ की बात है कि शत्रु हमारी सीमाओं का जितना भाग अतिक्रमित कर लेगा फिर उसके आगे का भाग हड़पने की योजना बनाएगा, किंतु  आत्ममुग्ध भारतीय, राजनीति अपने लंबे शासन काल में इस तथ्य की जानबूझ कर अनदेखी करती रही है। सैनिक सीमा पर जान देते रहे हैं और राजनीति रिश्ते निभाती रही है। शुभ संकेत है कि पिछले कई वर्षों से पाकिस्तान के साथ सत्ता पक्ष की रिश्तेदारी में भारी कमी आई है। यदि हमारे वर्तमान विपक्षी नेता नवजोत सिंह सिद्धू आदि भी इस संदर्भ में देशहित की कसौटी पर कस कर व्यक्तिगत मैत्री-संबंधों का निर्वाह करें तो अधिक उचित होगा। सारे परिवार का शत्रु परिवार के किसी एक सदस्य का मित्र कैसे हो सकता है?
 
 
अपनी खोई हुई जमीन वापस लेने के संदर्भ में जैसी उदासीनता भारतीय राजनीति ने पाकिस्तान के संबंध में प्रकट की, वैसी ही अपने दूसरे शत्रु देश चीन के साथ भी प्रदर्शित की। सन् 1962 के युद्ध में ‘हिंदी चीनी भाई-भाई’ के आदर्शवादी नारे की कठोर यथार्थवादी सच्चाई सामने आने के बाद भी चीन का व्यापार भारत में दिन दूनी रात चैगुनी गति से फलने-फूलने दिया। चीन से अपनी भूमि वापस लेने का कोई प्रयत्न नहीं किया गया। अपनी सामरिक सामर्थ्य में वृद्धि करने और सीमावर्ती क्षेत्र में सुरक्षा उपायों को चाक-चौबंद बनाने में भी आवश्यक रूचि नहीं ली गई, जिसका दुष्परिणाम हमारे समक्ष आज उपस्थित है। 

 
हमसे हमारा अक्साई चीन छीन लेने वाला चीन आज गलवान छीनने पर उतारू है। सीमा पर युद्ध की घनघोर घटाएं छाई हैं। बीस सैनिक शहीद हो चुके हैं। देश आक्रोश में है और नेतृत्व आरोप-प्रत्यारोप में व्यस्त है। एक बार पंचशील के नाम पर अक्साई चीन खोने के बाद भी हमारे एक बड़े नेता सर्वदलीय बैठक में प्रधानमंत्री को पंचशील के अनुसार विवाद का समाधान करने की सलाह दे रहे हैं। सत्ता सीमाओं की सुरक्षा के लिए प्रतिबद्ध है और सेना पूर्ण उत्साह के साथ हर परिस्थिति से निपटने के लिए सन्नद्ध है। फिर भी विपक्ष को लगता है कि देश के प्रधानमंत्री ने चीन के समक्ष आत्मसमर्पण कर दिया है। वे चुप हैं, छुप गए हैं। आगामी चुनावों में सत्ता-प्राप्ति के लिए की जा रही यह प्रायोजित अंतर्कलह, पक्ष-विपक्ष चाहे किसी के भी हित में हो, किंतु देशहित में नहीं है।
 
पी.ओ.के. और अक्साई चीन किसके हैं? गलवान घाटी किसकी है? इन प्रश्नों पर चाहे कितना भी वाद-प्रतिवाद किया जाए, चाहे कितनी ही संधिवार्ताएं आयोजित की जाएं, किंतु इन सब प्रश्नों का एक सटीक उत्तर यही है कि- ये ‘वीरों की हैं। संस्कृत में एक प्रसिद्ध सुभाषित है- ‘वीर भोग्या वसुंधरा'-  अर्थात भूमि (राज्य) पर वीरों का अधिकार सिद्ध है। जो वीर हैं वही वसुंधरा अर्थात राज्य का उपभोग करेगा। वीर वह है जो अपने गौरव एवं स्वत्व (भूमि, धन, परिवार आदि) की रक्षा करना जानता है; रक्षा करने में समर्थ है।

वीर वह है जिसमें दूरदृष्टि है, सूझबूझ है, परिस्थिति के अनुसार तत्काल आवश्यक निर्णय लेने की सामर्थ्य है। जिस राजसत्ता के शीर्ष पर ऐसा वीर विराजमान होगा वही देश सुरक्षित और सुखी हो सकता है, उसी की सीमाएं सुरक्षित रह सकती हैं। आवश्यक योग्यता के अभाव में, अनेक उचित-अनुचित प्रयत्नों, प्रलोभनों और प्रभावों से अर्जित बहुमत के सहारे सत्ता के शीर्ष पर पहुंचने वाले कथित वीरों से सीमा-समाधान के जटिल प्रश्न हल होने वाले नहीं ! हमारे कवि, साहित्यकार और बुद्धिजीवी इस तथ्य से सुपरिचित रहे। उन्होंने स्वातंत्र्योत्तर साहित्य में ऐसे दिशा-निर्देशक संकेत बार-बार अंकित किए हैं। उदाहरण के लिए स्वर्गीय पंडित श्यामनारायण पांडेय की काव्यकृति ‘आहुति’ से निम्नांकित पंक्तियां उद्धृत हैं-
 
 
‘ये तुंग हिमालय किसका है?
उत्तुंग हिमालय किसका है?
हिमगिरि की चट्टाने गरजीं,
जिसमें पौरुष है, उसका है!
 
सीमाओं की सुरक्षा का यह गंभीर संकट काल हमारे पुरुषार्थ के परीक्षण की वेला है। सत्ता-जनता, पक्ष-विपक्ष, जवान-किसान सबका संयुक्त-संबलित पुरुषार्थ ही गलवान घाटी एवं अन्य विवादित भू-खंडों पर हमारा अधिकार सिद्ध कर सकता है, अन्यथा संकीर्ण-स्वार्थों की सिद्धि में व्यस्त विश्रृंखलित राष्ट्रशक्ति तो केवल नारे ही उछाल सकती है; भ्रां तियां निर्मित कर सकती है जैसी कि अब तक उसने की हैं।

(इस लेख में व्यक्त विचार/विश्लेषण लेखक के निजी हैं। इसमें शामिल तथ्य तथा विचार/विश्लेषण 'वेबदुनिया' के नहीं हैं और 'वेबदुनिया' इसकी कोई ज़िम्मेदारी नहीं लेती है।)

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