'गोलाइयां' दिखाकर गहराइयां नहीं मापी जा सकतीं

गिरीश उपाध्‍याय
किसी भी फिल्‍म को देखकर उसके बारे में दो तरह से लिखा जा सकता है। एक तो फटाफट फर्स्‍ट डे फर्स्‍ट शो वाले अंदाज में, ब्रेकिंग न्‍यूज की तरह उसके बारे में लिखना और दूसरे उस फिल्‍म को ध्‍यान से देखकर, समझकर उसके सारे किरदारों के अभिनय, उनकी भूमिका और कहानी के प्‍लॉट आदि की बारीकियों को जानकर लिखना। ऐसे में आपने यदि दीपिका पादुकोण की ताजी फिल्‍म ‘गहराइयां’ देख भी ली है और उसके बारे में आए तमाम सारे रिव्‍यू भी पढ़ लिए हैं तो हो सकता है मैं जो लिखने जा रहा हूं उसमें आपकी रुचि न हो।

यकीन मानिए, मेरा इरादा भी आपको रुचिकर लगने जैसा कुछ लिखने का नहीं है। मैं संचार का अध्‍येता होने के नाते इस फिल्‍म को लेकर कुछ बात करना चाहता हूं। साथ ही चूंकि लंबे समय से नाटकों और फिल्‍मों को थोड़ा हटकर देखता रहा हूं इसलिए एक कलाकार के उत्‍थान और पतन को लेकर भी मैं इस फिल्‍म के माध्‍यम से कुछ बात करना चाहता हूं।

दीपिका पादुकोण की पहली फिल्‍म ‘ओम शांति ओम’ को छोड़ भी दीजिए तो भी उसके बाद आई उनकी अनेक फिल्‍मों में मुझ जैसे अभिनय और कलाप्रेमियों को उनमें एक सशक्‍त अदाकारा दिखाई देती रही है। दीपिका आज के समय में बॉलीवुड की उन कुछ अभिनेत्रियों में से हैं जो अपनी संपूर्ण देह से अभिनय कर सकने की क्षमता रखती हैं। खासतौर से उनका चेहरा और उनकी आंखें उनके अभिनय को दूसरों से बहुत अलग करते हुए उन्‍हें एक खास मुकाम तक पहुंचाते हैं।

इसकी बानगी आप ‘पीकू’ या ‘छपाक’ के साथ-साथ ऐतिहासिक कथानकों पर बनाई गई ‘पद्मावत’ और ‘बाजीराव मस्‍तानी’ जैसी फिल्‍मों में देख सकते हैं। उन्‍होंने अपने अभिनय की भावप्रवणता का नमूना व्‍यावसायिक या मसाला कही जा सकने वाली फिल्‍मों जैसे ‘ओम शांति ओम’, ‘ये जवानी है दीवानी’, ‘चेन्‍नई एक्‍सप्रेस’, ‘लव आजकल’ और ‘गोलियों की रासलीला-रामलीला’ आदि में भी दिखाया है।

‘गहराइयां’ आने से पहले दीपिका की पिछले 2 सालों में दो फिल्‍में आईं। इनमें 2020 में आई ‘छपाक’ और दूसरी 2021 में आई ‘83’ ये दोनों ही फिल्‍में बॉयोपिक थीं। छपाक में जहां दीपिका ने एसिड अटैक का शिकार हुई लक्ष्‍मी अग्रवाल का रोल अदा किया था वहीं मशहूर क्रिकेटर कपिल देव पर बनी फिल्‍म ‘83’ में उन्‍होंने कपिल की पत्‍नी रोमी की भूमिका निभाई। दीपिका इस फिल्‍म की प्रोड्यूसर भी थीं।

उसके बाद से लोग दीपिका की अगली फिल्‍म का इंतजार कर रहे थे। ऐसे में ‘गहराइयां’ का आना एक अवसर था, यह खोजने का जिससे यह पता चल सके कि दीपिका अपनी अभिनय यात्रा का कौनसा अगला पड़ाव इसमें पार करती हैं। लेकिन उस लिहाज से यह फिल्‍म निराश करती है। निराशा फिल्‍म के हश्र को लेकर नहीं बल्कि दीपिका जैसी एक सधी हुई कलाकार के हश्र को लेकर है।

सबसे पहले ‘गहराइयां’ की कहानी को ही ले लें। यह उस वर्ग की कहानी है जो भारत में होकर भी भारत के समाज से अपने को अलग मानकर चलता है। उसकी दुनिया और उसके सरोकार ज्‍यादातर उसकी कारोबारी दुनिया से संचालित होते हैं या फिर आपस में गुंथे हुए बहुत जटिल यौन संबंधों पर।

वैसे तो यौन रिश्‍तों की ऐसी दास्‍तानें टीवी सीरियलों और फिल्‍मों की दुनिया में कोई नई बात नहीं है और ओटीटी प्‍लेटफॉर्म ने तो इसे लेकर सारी मर्यादाओं को एक तरह से ध्‍वस्‍त ही कर दिया है। लेकिन यहां सवाल उठता है कि दीपिका जैसी सशक्‍त कलाकार को आखिर इस तरह की भूमिका स्‍वीकार करने की जरूरत क्‍यों पड़ी?

अगर आप ‘गहराइयां’ को गहराई से देखने की कोशिश करें तो उसमें दीपिका ने भाव और संवेदना के अभिनय के बजाय देह के प्रदर्शन को या दैहिक क्रियाओं को ज्‍यादा इस्‍तेमाल किया है। तो क्‍या यह माना जाए कि दीपिका ने मान लिया है कि अब उनकी अभिनय प्रतिभा चुक गई है और इस तरह की भूमिकाएं अदा करना अब बॉलीवुड में टिके रहने या अपना अस्तित्‍व बनाए रखने के लिए उनकी मजबूरी बन गया है।

ढाई तीन साल पहले अपना फिल्‍मी करियर शुरू करने वाले 28 साल के एक युवा के साथ 36 साल की दीपिका ने जो सीन दिए हैं वो कहानी की मांग तो हो सकते हैं लेकिन दीपिका की अभिनय यात्रा के लिए एक तरह से स्‍पीड ब्रेकर हैं।

इस फिल्‍म में दीपिका के लिए करने को जो था वह उन्‍होंने निभा भले ही दिया हो लेकिन पूरी फिल्‍म में ऐसा कोई नहीं दिखता जो अभिनय के लिहाज से उन्‍हें चुनौती दे सकने की क्षमता रखता हो। उनके पिता के रोल में छोटीसी भूमिका में आने वाले दिग्‍गज अभिनेता नसीरुद्दीन शाह की बात छोड़ दीजिए। बाकी जिन कलाकारों के इर्द गिर्द इस फिल्‍म की कहानी घूमती है उनमें से कोई भी दीपिका के कद के आसपास भी फटकने की कूवत नहीं रखता।

चाहे वह सिद्धांत चतुर्वेदी हो, अनन्‍या पांडे हो या फिर धैर्य करवा। ऐसे में भी यदि दीपिका अपने लिए अभिनय के कोई नए मापदंड स्‍थापित नहीं कर पाती तो यह उनकी अभिनय यात्रा के उतार की ओर या फिर फिल्‍मों के चयन की उनकी समझ की ओर सवाल उठाता है।

ऐसा नहीं है कि दीपिका ने मजबूत महिला के रोल नहीं किए हैं। उन्‍होंने अपनी अभिनय क्षमता के दम पर अकेले ही कई फिल्‍मों को न सिर्फ खींचा है बल्कि उन्‍हें अपार सफलता भी दिलाई है। लेकिन ‘गहराइयां’ में चोरी छिपे बनने वाले दैहिक संबंध के कारण प्रेग्‍नेंट हो जानी वाली महिला के रूप में उनकी मजबूरी उनके कद और छवि से बिलकुल मेल नहीं खाती।

कहने को यह फिल्‍म नए जमाने की, नई तरह के रिश्‍तों की (शारीरिक रिश्‍तों सहित) बात करती है, इसमें परिवार और कारोबार का कथित जटिल मनोविज्ञान भी दिखाने की कोशिश हुई है, लेकिन इस सबके बावजूद प्रेग्‍नेंट दीपिका को जिस तरह मजबूर दिखाया गया है वह आधुनिक स्‍त्री के किरदार को ही कमजोर करता है।

जो स्‍त्री एक अन्‍य व्‍यक्ति से रिलेशन में रहते हुए दूसरे से शारीरिक संबंध बना सकती है, उसके साथ बेतकल्‍लुफ होकर घूम सकती है, वह उन शारीरिक संबंधों की परिणति पर इतनी मजबूर है कि डॉक्‍टर से परामर्श के लिए भी उसे सहारे की जरूरत पड़ती है।

इस मायने में तो दीपिका का किरदार 1978 यानी आज से 44 साल पहले, और दीपिका के पैदा होन से भी आठ साल पहले आई फिल्‍म ‘त्रिशूल’ में वहीदा रहमान द्वारा निभाए गए शांति के किरदार से भी बौना है। 44 साल पहले की शांति इसी तरह एक पुरुष से अपने रिश्‍तों के चलते गर्भवती हो जाने और उस पुरुष द्वारा कारोबारी कारणों से किसी और के साथ विवाह कर लेने के बाद भी बच्‍चे को जनम देती है और उसे अपने दम पर पालती है।

जबकि दीपिका के रूप में आज की स्‍त्री अपनी मर्जी या सहमति से किसी के साथ शारीरिक संबंध तो बना लेती है, लेकिन उसके कारण प्रेग्‍नेंट हो जाने के बाद वह आंसू बहाती और उसी पुरुष का सहारा ढूंढती नजर आती है जो अपनी कारोबारी दुनिया में उसे सिर्फ एक मोहरा समझता है।

नहीं, दीपिका जैसे कलाकारों से ऐसी अपेक्षा नहीं की जाती। फिल्‍म का नाम भले ही ‘गहराइयां’ हों लेकिन गोलाइयां दिखाकर गहराइयों को नापने की यह कोशिश दीपिका के लिए आत्‍मघाती हो सकती है। हां, फिल्‍म में उन्‍होंने योगा इंस्‍ट्रक्‍टर के रूप में योग क्रियाएं करते हुए अपने शरीर का जो लोच दिखाया है, वह जरूर कमाल का है। पर फिल्‍म देखने के बाद यह सवाल भी मन में तो आता ही है कि फिल्‍म की कहानी की तरह कहीं दीपिका सचमुच ही तो कहीं योगा में अपना भविष्‍य नहीं देख रही हैं।

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