Select Your Language

Notifications

webdunia
webdunia
webdunia
webdunia
Advertiesment

गिरिजा देवी की ठुमरी, जो आवाज थी, वो इलाही थी

हमें फॉलो करें गिरिजा देवी की ठुमरी, जो आवाज थी, वो इलाही थी
webdunia

नवीन रांगियाल

मैं आई भी तो बारिश के मौसम में चली आई और देखो बाहर तो अभी बारिश हो भी नहीं रही है, बहरहाल पहले ठुमरी गाऊंगी, फिर कजरी, फिर दादरा और फिर जो भी आप लोग फरमाएंगे वो सुना दूंगी

17 अगस्‍त 2015 को नागपुर के वसंतराव देशपांडे ऑड‍िटोरियम के बाहर भादौं बरस रहे थे और अंदर सेनिया और बनारस घराने की ग‍िरजादेवी गा रही थी।

नाक में हीरे का लौंग और माथे पर चंदन का टीका लगाए ग‍िर‍िजा देवी ने जब कुछ तानें लीं तो लगा जैसे बहुत साल बाद गा रहीं हों।

सारंगी-तानपुरे की ट्यूनिंग और कैमरों की फ्लैश लाइट के बीच लगा जैसे सूखे पत्तें खरखरा रहे हों, मुंह में पान-गिलौरी को इधर-उधर सरकाते हुए गिरिजादेवी ने ‘जिया मोरा दरपावे’ शुरू किया तो ख्‍याल आया कि किसी आंगन में कोई बूढी दादी गुनगुना रही हैं।

गले को बार-बार साफ़ करते हुए सूखी आवाज में ‘गगन गरज चमकत दामिनी’ शुरू किया तो भीगी हुई महफ़िल में थोड़ी आंच महसूस होने लगी, लेकिन 80 साल से ज्यादा पुरानी आवाज का खरखराता सूखा बोझ सहन करना मुश्‍किल था मेरे लिए, सोचा घर निकल जाऊं और खाना खाकर सो जाऊं।

ईश्वर उनकी उम्र को कई साल और मौसिक़ी को कई सिलसिले अदा करे, लेकिन किसी ठुमरी या खयाल को जिंदगीभर मिस करने के डर से उठ नहीं पाया। हालांकि ऐसा कोई कमाल अंत तक हुआ भी नहीं, मैं नो प्रॉफ‍िट, नो लॉस के लिहाज से बैठा रहा।

फिर जब वे अपने गायन के इतर बोलने और समझाने लगीं तो ज्यादा ग्रेसफुल नज़र आईं। कहने लगीं- बनारस घराने की गायि‍की में सबकुछ हैं, टप्पा, ठुमरी ख़्याल,  दादरा, कज़री, चैती, झूला सब- मन तो था कि बारिश की कोई ठुमरी सुनाऊं, लेकिन बारिश तो आई नहीं अभी, इसलिए खमाज की ठुमरी गाती हूं।

मन की बात सुनकर अच्छा लगा। फायदेमंद भी रहा। कुछ आलाप और तानों के बाद रूककर कहने लगीं, बनारस की ठुमरी है इसलिए इसमें कविताएं या तानें नहीं हैं, ये सिर्फ सीधी-सीधी ठुमरी हैं।

सीधी-सीधी ठुमरी सी सीधी-साधी और मॉडेस्ट गिरजादेवी अब भाने लगीं थी। ‘संवरिया को देखे बिना नाही चैना’ यह ठुमरी खत्म होने तक महफ़िल में सुरों के साथ इत्मिनान पसरने लगा। गले के साथ उनका मन भी साथ देने लगा।
सूखे पत्तों की खरखराहट और पुराने पेड़ का बोझ अब मुलायम डाली सा लगने लगा। इस उम्र में भी उन्हें वक़्त का भान था- वो बोल पड़ी ठुमरी, टप्पा, और दादरा अपनी जगह हैं और कज़री-चैती अपनी जगह, इसलिए थोड़ा-थोड़ा सब सुना दूंगी।

सुरों के साथ हम-सब पसरकर बैठने लगे- भीतर देह में एक इत्मिनान सा आ गया। मेरे घर जल्दी निकलने की कश्मकश छट गई।

गिरिजादेवी को इसलिए दाद नहीं मिल रही थी कि वो इस उम्र में गा रही थी, इसलिए दाद निकल रही थी कि वो गा रही थी और हमारी उम्र में गा रही थी। एक फ़रमाईश पर ‘बरसन लागी बदरिया’ सुना दी।

यह वही ठुमरी थी जो मैंने सबसे पहले बनारस के ही पंडित छन्नुलाल मिश्र की आवाज में सुनी थी, लेकिन वही तर्ज़, वही मिज़ाज़ सिर्फ वक़्त और जगह अलग। 17 अगस्त 2015 की तारीख़ में जज़्ब हो चुकी नागपुर की इस महफ़िल में फिर एक झूला ‘धीरे से झुलाओ बनवारी संवरिया, सुर, नर, मुनि सब शोभा देखे’ इसके बाद एक दादरा सुना। जो आवाज थी वो इलाही थी। मैं सुनकर कुछ बे-ख्‍याल था।

बगल में बैठे उम्रदराज बाबूजी के पास से मूंगफली और सींगदानों की गंध से भूख का अहसास हुआ तो पेट की आग बुझाने के लिए उठकर होटल ढूंढने निकल गया।

ठुमरी के लिए जानी जाने वाली ग‍िर‍िजा देवी का 24 अक्‍टूबर 2017 में कोलकाता में निधन हो गया। लेकिन नागपुर की यह एक क्‍लासिक स्‍मृत‍ि मैं अपने साथ ले आया।   

नोट: इस लेख में व्‍यक्‍त व‍िचार लेखक की न‍िजी अभिव्‍यक्‍त‍ि है। वेबदुन‍िया का इससे कोई संबंध नहीं है।

Share this Story:

Follow Webdunia Hindi

अगला लेख

श्री राधा जी के 32 नाम देते हैं शांत, सरल और सुखद जीवन