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मेहदी हसन को सुनना जैसे किसी ‘पहाड़ पर चढ़ने का क्‍लासि‍कल सुख’

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नवीन रांगियाल

किसी ऊंची जगह पर चढ़ना और मेहदी हसन की ग़जल सुनना, कमोबेश दोनों का एक ही हासिल है, कम अज कम मेरे लिए तो ऐसा ही है। ऐसा सुख जिसे हम किसी ऊंचाई पर पहुंचकर भोगते हैं- जैसे पहाड़ पर चढ़ने का क्‍लासि‍कल सुख

जगजीत सिंह और मेहदी हसन की कैफि‍यत में बहुत फर्क है।  जगजीत सिंह ज्यादातर गज़लों में दुःख गाते हैं। वे एक राग रुदन के साथ हमें अंधेरे में तन्हां छोड़ देते हैं। अगर उनके गाए पंजाबी टप्पों की शरारत को छोड़ दिया जाए तो, वे अपनी अधिकतर गज़लों में ताउम्र पीड़ा ही गुनगुनाते रहे।

इसके बरअक्स, मेहदी हसन मुहब्‍बत गाते थे। राग मुहब्‍बत। मेहदी की कैफि‍यत जैसे गजल गाना ही हो, मुहब्‍बत ही हो। जब वो गाते हुए होले से मुस्‍कुराते हैं तो लगता है मुहब्‍बत में अपने हाल को बयां कर रहे हो।

उनकी खरज हमें इस रुमानी हासिल के साथ एक क्लासिक हाइट पर ले जाती है। और एक रुमानी गहराई में भी। प्‍यार की एक अंतहीन डीपनेस में। मुहब्‍बत और मौसिकी दोनों में एक साथ सबसे ऊंची जगह होने का अहसास देती हुई। प्रेम में होने और मौसिकी के सुर-ताल, स्वर लहरियां व इबारत समझने की मिक्स फीलिंग।

कई बार उन्हें सुनने के दौरान हम कुछ भी दर्ज नहीं कर पाते। कोई टेक्स्ट नहीं, कोई कविता नहीं। बस, हम गुम हो जाते हैं।

लता मंगेशकर ने एक बार कहीं कहा था- मेहदी हसन की आवाज़ ख़ुदा की आवाज है  ख़ुदा ने ख़ुदा की आवाज़ को ख़ुदा कहा। सुनिए, ख़ुदा की आवाज़ कैसी होगी।

करीब बाईस साल पहले एक टूरिस्ट बस में पहली बार मेहदी हसन की आवाज़ सुनी थी, पहली गज़ल थी- जिंदगी में तो सभी प्यार किया करते हैं, दूसरी थी- 'रंजिश ही सही, दिल ही दुखाने के लिए आ' एक ही सफर में प्रेम और वि‍रह के दोनों छोर, दोनों किनारे समझ में आ गए।

...और फिर अपना स्टेशन आ गया, जहां हम उतर गए।

ये दोनों तो बहुत घि‍सी हुई गजलें हैं, क्‍योंकि बहुत पॉपुलर हो गईं थीं। इसके अलावा वे ऐसे-एसे रेअर नजराने गा गए कि सुनने के लिए वक्‍त और तबि‍यत दोनों नाकाफी है।

इतने सालों में वक़्त-बेवक़्त मेहदी हसन की सैकड़ों गज़लें सुनी। रिकॉर्डिंग्स, लाइव कंसर्ट रिकॉर्डिंग और पाकिस्तान की चलताऊ फिल्मों में गाए उनके गाने भी। सब सुना। इस बीच इंटरनेट कैफे पर कई-कई घण्टों डाउनलोडिंग का भी एक लंबा सिलसिला चला। इस पैशन से कई रेअर गज़लें भी इकट्ठा हो गईं। इनमें से बहुत तो याद हो गई, कुछ की सिर्फ धुनें याद है- सैकड़ों सुनना अभी बाकी है।

मेहदी को सुनकर अब लगता है, जैसे एक बड़ा सा नीला समंदर अपने भरे गले से गा रहा है, शे'र पढ़ रहा है। इतना इत्मीनान और ठहराव, एक पूरी अंधेर रात में सिर्फ एक सांस। पूरी रात जगराता और लगे कि अभी तो बस सिर्फ एक आह ली हों। जैसे हम भी धीमे-धीमे जी रहे हों, एक आवाज, एक राग के साथ-साथ।

जैसे पहाड़, जंगल और समंदर जीते हैं अपनी ही जगहों पर खड़े- खड़े। पहाड़ कहीं नहीं जाता, वहीं होता है अपनी जगह, फिर भी अपने जीवन में सबसे ऊंचा है, समंदर कहीं नहीं जाता, वह अपनी जगह ही अपने राग और अपने आलाप में बहता है। अरण्य किसी के पास चलकर नहीं जाता, वो हर कहीं नहीं उगता, फिर भी अपने खुद में गहन है- इंटेंस है।

मेहदी हसन की आवाज भी वहीं है, अपने ही होठों पर हलकी सी मुस्कुराती हुई, उन्हीं के अंदर, उस तह में, उनके गले की गहरी सुरंग में- और इस तरफ मन की अतल गहराइयों में।

मेहदी हसन ऐसे गाते हैं जैसे पहाड़ अपना मौन गाते हैं। वो अपनी ऊंचाई पर हमें सब-कुछ देते हैं, जो हमें चाहिए- एक अदम्य ऊंचाई, रीती हुई पुरानी मुहब्‍बत की कहानी। प्रेम और उसके अलगाव का एक इंटेंस अरण्य। ग़जल सुनने और मौसि‍की में होने की एक क्लासिक हाइट।

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