बोल कि‍ लब खामोश हुए तेरे

ऋतुपर्ण दवे
हिंदुत्ववादी राजनीति और दक्षिणपंथियों की आलोचना को लेकर गौरी अक्सर सुर्खियों में रहती थी। निर्भीक, निडर और समाज को दिशा देने के काम में जुटी 55 साल की महिला पत्रकार और समाजसेवी गौरी लंकेश ने शायद इन्हीं सब की कीमत चुकाई है। वो मौत की नींद सुलाई जा चुकी हैं। साप्ताहिक 'लंकेश पत्रिका' की संपादक गौरी ने अपने विचारों से साम्प्रदायिक सद्भावना के मंच को प्रोत्साहित किया। वो अपने पिता पी लंकेश जो कि फिल्म निर्माता भी रहे के हाथों 1980 में शुरू हुई इस पत्रिका के लिए समर्पित थीं। 
 
सोशल मीडिया और सामाजिक मंचों पर बेहद सक्रिय गौरी ने कभी परिस्थितियों से समझौता नहीं किया। बेखौफ लिखती थीं, बिंदास लिखती थीं, दबाव में आने का तो सवाल ही नहीं, अदालत में घसीटे जाने पर भी कलम नहीं थमीं। थमीं तो बस कायरों की चंद गोलियों की नापाक बेजा हकतों से। कलम क्या सांस भी थम गई और जिस्म भी पराया हो गया। अब कैसे बोलेंगी की लब आजाद हैं मेरे और मेरी कलम की स्याही कभी चूकती नहीं। 
 
क्या उन्हें अपनी हत्या का आभास था? उनके आखिरी ट्वीट का इशारा किस तरफ है? वो लिखती हैं- “ऐसा क्यों लगता है मुझे कि हममें से कुछ अपने आपसे ही लड़ाई लड़ रहे हैं। अपने सबसे बड़े दुश्मन को हम जानते हैं और क्या हम सभी कृपाकर इस पर ध्यान लगा सकते हैं।” उनकी हत्या से समूचा पत्रकार जगत स्तब्ध है। बालीवुड और खेल जगत तक खुलकर उनके समर्थन में खड़ा है। किसी विचारधारा की आलोचना गुनाह है? 
 
एक ही जैसे तौर तरीके अपनाकर, बीते चार वर्षों की यह चौथी घटना है जब तर्कशास्त्री, अंधविश्वास विरोधी, विवेकशील, धर्मनिरपेक्ष, विद्वान-विदुषी और हिंदुत्वविरोधी लेखन में लगी एक लेखक-पत्रकार की हत्या की गई। 2013 में महाराष्ट्र के 68 वर्षीय नरेंद्र दाभोलकर, 2015 में 81 वर्षीय गोविंद पनसारे और 2016 में कर्नाटक के 77 वर्षीय एमएम काल्बुर्गी की हत्याएं हुईं।  
 
क्या जावेद अख्तर का सवाल कि दाभोलकर, पंसारे, और कलबुर्गी के बाद अब गौरी लंकेश की हत्या नहीं बताता कि अगर एक ही तरह के लोग मारे जा रहे हैं तो हत्यारे किस तरह के लोग हैं? इस बात पर कैसे संदेह न किया जाए कि अगला निशाना भी कोई न कोई होगा? पहले भी इस तरह की हत्याओं में कोई दोषी साबित नहीं हो पाया। क्या अंधविश्वास को पनपने से रोकना अपराध है? क्या धार्मिक उन्माद परंपरा है? क्या प्रगतिशील विचार समाज के पहरुए नहीं है? किसी को पता है कि जाने-माने विद्वान, चिंतक और तर्कशास्त्री डॉक्टर एमएम कलबुर्गी के हत्यारे कहां हैं? इनकी हत्या से दो साल पहले पुणे निवासी एक और विद्वान, चिंतक और तर्कशास्त्री डॉ. नरेन्द्र दाभोलकर की हत्या हुई, उनके हत्यारे अब तक क्यों नहीं पकड़े जा सके? किसी विशेष संगठन, विचारधारा से ही जुड़कर चलना विद्वानों, आलोचकों, लेखकों की नीयति हो गई है? स्वयंभू महिमामण्डितों की जय तथा व्यवस्था-व्यवस्थापकों की खामोशी और तर्कशास्त्रियों, चिन्तकों, धार्मिक उन्माद विरोधियों को मौत को तोहफा? व्यवस्था के करवट बदलने का खुद-ब-खुद बड़ा संकेत तो नहीं? हां यह सच है इस बदले दौर में बिना हिम्मत के पत्रकारिता नहीं और बिना निर्भीक पत्रकारिता के समाज को साफ आईना कौन दिखाए?
 
लोकतांत्रिक देशों में प्रभावशाली नेताओं के मीडिया विरोधी भाषणों तथा वहां बने नए कानूनों और प्रेस-मीडिया को प्रभावित करने की तमाम कोशिशों की वजह से पत्रकारों और मीडिया की स्थिति काफी खराब हुई है। ‘रिपोर्टर्स विदाउट बोर्डर्स’ जो दुनिया भर में पत्रकारों और मीडिया की स्वतंत्रता के मौजूदा हालातों को बयां करती है, बताती है कि भारत के हालात कमोवेश पड़ोसियों से ही है। इस रिपोर्ट को ‘वर्ल्ड प्रेस फ्रीडम इण्डेक्स’ भी कह सकते हैं। बीते साल की रपट में भारत का स्थान 133वें क्रम पर रहा जबकि पड़ोसी भूटान 94, नेपाल 105, श्री लंका 141, बंगलादेश 144, पाकिस्तान 147, रूस 148, क्रम पर है। अन्य लोकतांत्रिक देशों में फिनलैण्ड की सबसे बेहतर स्थिति है वो क्रमानुसार 1 पर जबकि नीदरलैण्ड 2, नार्वे 3, डेनमार्क 4, कोस्टारिका 6, स्वीटजरलैण्ड 7, स्वीडन 8, जमैका 10, बेल्जियम 13, जर्मनी 16, आइसलैण्ड 19, ब्रिटेन 38, दक्षिण अफ्रीका 39, अमेरिका 41, ब्राजील 104, अफगानिस्तान 120, इण्डोनेशिया 130, तुर्की 151 जबकि चीन निचले क्रम 176 पर है। 
 
परतंत्रता के दौर में भी कलम पर खतरा था और अब स्वतंत्रता के दौर में खतरनाक लोग पत्रकारिता के दमन में हैं। लेकिन यह याद रखना होगा कि यह वो मिशन है जो न कभी रूका था, न रुकेगा। बस कलम ही तो है जो सच को शब्दों का आकार देकर समाज को जगाती है, चेताती है। श्रध्दांजलि गौरी लंकेश को जरूर लेकिन तर्पण उनका भी जरूरी है जो विचारधारा के हत्यारे बन जब-तब तमंचे से खामोशी का खेल खेलते हैं।
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