कश्मीर से धारा 35-ए को रद्द नहीं किया गया है, फिर भी उसे लेकर छिड़ा बवाल इस बात का संकेत है कि यदि इस धारा को खत्म किया गया तो वहां जनविद्रोह की स्थिति पैदा हो जाएगी। धारा 35-ए जम्मू एवं कश्मीर विधानसभा को राज्य में स्थायी निवास और विशेषाधिकारों को तय करने का अधिकार देती है। यह धारा 1954 में प्रेसीडेंशियल ऑर्डर के जरिए अमल में आई थी। एक गैरसरकारी संगठन ने सुप्रीम कोर्ट में इस प्रावधान के खिलाफ याचिका लगाई है।
धारा 35-ए के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में याचिका लगाई गई है। इसी सिलसिले में पिछले दिनों फारुख अब्दुल्ला ने अपने घर पर विपक्षी पार्टियों की एक मीटिंग भी बुलाई थी। इस मीटिंग के बाद तथ्य सामने आया कि धारा 35-ए हटाने पर एक बड़ा जनविद्रोह पैदा हो जाएगा। याद दिलाया गया कि जब 2008 में अमरनाथ भूमि मामला सामने आया था, तो लोग रातोरात उठ खड़े हुए थे। इस प्रकार धारा 35-ए को रद्द किए जाने का नतीजा और बड़े विद्रोह की वजह बन सकता है।
आपको बता दें कि धारा 35-ए जम्मू एवं कश्मीर विधानसभा को राज्य में स्थायी निवास और विशेषाधिकारों को तय करने का अधिकार देती है। यह धारा 1954 में प्रेसीडेंशियल ऑर्डर के जरिए अमल में आई थी। एक गैरसरकारी संगठन ने सुप्रीम कोर्ट में इस प्रावधान के खिलाफ याचिका लगाई है। कश्मीर में धारा 35-ए के तहत बनने वाले कानूनों को भारत के दूसरे राज्यों से नागरिकों के समानता के अधिकार के उल्लंघन के खिलाफ नहीं लाया जा सकता।
इस धारा को निरस्त करने की मांग करने वालों का कहना है कि धारा 368 के तहत संविधान संशोधन के लिए तय प्रक्रिया का पालन करते हुए इसे संविधान में नहीं जोड़ा गया था। धारा 35-ए उस वक्त चर्चा में का मुद्दा बना जब सुप्रीम कोर्ट ने इस पर सुनवाई के लिए तीन जजों वाली एक बेंच का गठन कर दिया।
प्रेसीडेंशियल ऑर्डर द्वारा लाए गए इस कानून को करीब 40 से ज्यादा बार संशोधित किया जा चुका है। इस महीने के आखिर में सुप्रीम कोर्ट धारा 35-ए के खिलाफ दायर याचिका पर सुनवाई करेगा। कश्मीर के विशेषाधिकार लंबे समय से आरएसएस और बीजेपी के निशाने पर रहे हैं। कहा जा रहा है कि धारा 35-ए के खिलाफ याचिका दायर करने वाला एनजीओ वी द सिटीजन भी आरएसएस से संबंधित है।
धारा 35-ए की अहमियत को इसी से समझा जा सकता है कि अभी केवल जम्मू-कश्मीर से इस धारा को हटाने की चर्चा भर से इतना बवाल मचा है। यदि उसे हटा दिया गया तो क्या होगा। दरअसल, धारा 35-ए से जम्मू-कश्मीर सरकार और वहां की विधानसभा को स्थायी निवासी की परिभाषा तय करने का अधिकार मिलता है। मतलब ये कि राज्य सरकार को अधिकार है कि वो आजादी के वक्त दूसरी जगहों से आए लोगों और अन्य भारतीय नागरिकों को जम्मू-कश्मीर में किस तरह की सुविधाएं दे या नहीं?
14 मई 1954 को तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने एक आदेश पारित किया था। इस आदेश के जरिए भारत के संविधान में एक नया अनुच्छेद 35-ए जोड़ा गया। 35-ए धारा 370 का ही हिस्सा है। इस धारा की वजह से कोई भी दूसरे राज्य का नागरिक जम्मू-कश्मीर में न तो संपत्ति खरीद सकता है और न ही वहां का स्थायी नागरिक बनकर रह सकता है।
1956 में जम्मू-कश्मीर का संविधान बना था। इसमें स्थायी नागरिकता को परिभाषित किया गया। इस संविधान के मुताबिक स्थायी नागरिक वही है, जो 14 मई 1954 को राज्य का नागरिक रहा हो अथवा उससे पहले के 10 वर्षों से राज्य में रह रहा हो। साथ ही उसने वहां संपत्ति हासिल की हो। धारा 35-ए के मुताबिक अगर जम्मू-कश्मीर की कोई लड़की किसी बाहर के लड़के से शादी कर लेती है तो उसके सारे अधिकार खत्म हो जाते हैं, साथ ही उसके बच्चों के अधिकार भी खत्म हो जाते हैं।
धारा 35-ए हटाने के लिए दायर याचिका को चुनौती देने वाली एक याचिका भी कोर्ट में दायर कर दी गई है। कोर्ट ने इस याचिका पर सुनवाई के लिए 5 जजों की एक बेंच बनाई है। बेंच 6 हफ्तों में इस मामले की सुनवाई करेगी। कोर्ट ने कहा है कि बेंच धारा 35-ए और अनुच्छेद 370 की संवैधानिक रूप से जांच करेगी और इसके तहत मिलने वाले विशेष राज्य के दर्जे पर भी फिर से विचार होगा। वहीं जम्मू-कश्मीर की सरकार ने कोर्ट में कहा है कि 2002 में इस मुद्दे पर हाई कोर्ट ने फैसला सुनाया था जिससे यह मामला सेटल हो गया था।
जम्मू-कश्मीर में धारा 35-ए को लेकर चल रही बहस के बीच पिछले दिनों मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती ने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी से मुलाकात की थी। पीएम से मिलने के बाद मुफ्ती ने कहा था कि हमारे एजेंडे में ये तय था कि आर्टिकल 370 के तहत राज्य को मिल रहे स्पेशल स्टेटस में कोई बदलाव नहीं होगा। पीएम ने भी इस मुद्दे पर सहमति जताई है वहीं उन्होंने धारा 35-ए के मुद्दे पर कहा कि राज्य में स्थिति सुधर रही है, उसके लिए कई तरह के निर्णय लिए गए हैं। धारा 35-ए के हटने से राज्य में निगेटिव मैसेज जाएगा, जिससे राज्य में काफी बुरा असर पड़ेगा।
वहीं जम्मू-कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने संविधान के धारा 35-ए के मुद्दे पर भाजपा को निशाने पर लिया है। उन्होंने कहा कि भाजपा इस मुद्दे को जम्मू बनाम कश्मीर की लड़ाई बताते हुए प्रोपेगंडा फैला रही है। उन्होंने कहा कि अगर इस अनुच्छेद को खत्म किया गया तो अन्य राज्यों के लोग कश्मीर आकर संपत्ति खरीदेंगे और अपने बच्चों के लिए शैक्षणिक स्कॉलरशिप हासिल करेंगे, राहत सामग्री लेंगे और सरकारी नौकरियां भी ले लेंगे।
जानकार बताते हैं कि कश्मीर के महाराजा हरिसिंह ने साल 1927 में पहली बार इस कानून को पास किया ताकि उत्तरी पंजाब से लोगों का आना रुक सके। कुछ रिपोर्ट्स के मुताबिक, कश्मीर के कुछ शक्तिशाली हिन्दू परिवारों ने हरिसिंह से ये कदम उठाने का आग्रह किया था। पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर के कुछ हिस्सों में ये कानून अभी भी जारी है।
भारत में इस कानून को वर्तमान स्वरूप में साल 1954 में पहचान दी गई। ये संविधान की धारा 370 का एक हिस्सा है, जो कश्मीर को एक विशेष राज्य का दर्जा देती है। संविधान का ये अंग राज्य को एक अलहदा संविधान, अलग झंडा और सभी मामलों में स्वतंत्र रहने का अधिकार देता है, हालांकि विदेशी मामले, रक्षा और संचार के मामले भारत सरकार के पास हैं। जब साल 1956 में जम्मू-कश्मीर संविधान को स्वीकार किया गया तो दो साल पुराने स्थाई नागरिकता कानून को भी सहमति दी गई। ये कानून इस राज्य के विशिष्ट क्षेत्रीय पहचान की रक्षा करता है।
भारत प्रशासित कश्मीर भारत का अकेला मुस्लिम बहुल राज्य है। ऐसे में कई कश्मीरियों को शक है कि हिन्दू राष्ट्रवादी समूह हिन्दुओं को कश्मीर में आने के लिए प्रोत्साहित कर रहे हैं। भारत के साथ कड़वे संबंध रखने वाले कश्मीरियों के लिए ये बात हजम नहीं हो रही है, क्योंकि कश्मीर में साल 1989 से भारत के खिलाफ हिंसक संघर्ष जारी है।
भारत कश्मीर की अस्थिरता के लिए पाकिस्तान को जिम्मेदार ठहराता है जबकि पाकिस्तान ऐसे आरोपों से इंकार करता है। दोनों देश पूरे कश्मीर पर दावा करते हैं लेकिन दोनों मुल्कों के पास कश्मीर के अलग-अलग हिस्सों का नियंत्रण है। साल 1947 में भारत-पाक विभाजन के बाद दोनों देश दो बार युद्ध और एक बार सीमित संघर्ष झेल चुके हैं।
कश्मीर की राज्य सरकार कोर्ट में इस कानून का बचाव कर रही है जबकि बीजेपी के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार कोर्ट में इस मामले पर विस्तृत बहस की मांग कर रही है। साल 2014 में केंद्र में सरकार बनाने से पहले बीजेपी कश्मीर के विशेष दर्जे को हटाने के पक्ष में बयान दे चुकी है। अब बीजेपी जम्मू-कश्मीर में पीडीपी के साथ गठबंधन सरकार चला रही है। इस स्थिति में पीडीपी के कानून में परिवर्तन के लिए तैयार होने की संभावना न के बराबर है।
जानकार बताते हैं कि भारतीय संसद कश्मीरियों के लिए कानून नहीं बना सकती। इसका अधिकार सिर्फ राज्य सरकार के पास है। इस बाबत पूर्व मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने कहा है कि कानून को निरस्त करने पर जम्मू और लद्दाख में बड़ी समस्या पैदा हो जाएगी। मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती ने भी चेताया है कि इससे भारत और कश्मीर का नाजुक रिश्ता टूट जाएगा। बहरहाल, अब देखना है कि कोर्ट इस बारे में क्या फैसला सुनाती है?