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उत्तरप्रदेश सियासत का मोहरा

सिद्धार्थ झा
साल 1950 में राज्य का दर्जा पाने वाला उत्तरप्रदेश राष्ट्रीय राजनीति का अहम केंद्रबिंदु बना हुआ है। यह भारत का सबसे ज्यादा आबादी वाला राज्य है और इसलिए यहां मतदाताओं की संख्या भी सबसे ज्यादा है। सर्वाधिक 80 लोकसभा सीटों के साथ उत्तरप्रदेश लोकसभा सीटों के मामले में सबसे अव्वल है, इसके बावजूद कि उत्तराखंड को इससे अलग कर एक अलग राज्य बनाया जा चुका है।

 
इस राज्य को अक्सर 'संसद मार्ग' कहा जाता है और शायद यह बात 100 फीसदी सच भी है, क्योंकि जिसने यूपी जीत लिया उसकी सरकार बननी तय है। 2019 के लोकसभा चुनाव होने वाले हैं और राजनीतिक दलों का सबसे ज्यादा ध्यान यूपी पर लगा हुआ है। सारे देश की नजरें इस बात पर लगी हुई हैं कि इस विशाल राज्य में भाजपा, महागठबंधन और कांग्रेस कैसा प्रदर्शन करती है? यह समझने के लिए कि क्यों उत्तरप्रदेश पार्टियों की प्रमुख चिंताओं में से है, इन कुछ आंकड़ों पर गौर करना जरूरी है।

 
उत्तरप्रदेश :
 
लोकसभा में सीटों की संख्या : 80 (543 में से)
 
राज्यसभा में सीटों की संख्या : 31 (245 में से)
 
उत्तरप्रदेश से आने वाले प्रधानमंत्रियों की संख्या : 8 (14 में से)
 
चुनाव आयोग द्वारा 2017 के आंकड़ों के अनुसार उत्तरप्रदेश में लगभग 14.12 करोड़ मतदाता हैं।
 
लोकसभा में यूपी की कुल सीट हिस्सेदारी लगभग 15% है, साथ ही साथ दोनों सदनों में इसकी हिस्सेदारी भी है। राज्य अपनी धार्मिक जनसांख्यिकी के कारण भी महत्वपूर्ण है। यहां देश में मुस्लिम आबादी का सबसे बड़ा अनुपात है और यह कोई बड़ा सवाल नहीं है कि उत्तरप्रदेश राज्य 'हिन्दुत्व' राजनीति के लिए अक्सर खबरों में रहता है।

 
महत्वपूर्ण बात यह है कि राज्य सांप्रदायिक राजनीति के लिए एक महत्वपूर्ण खेल का मैदान बन गया है लेकिन इसके साथ ही जातीय समीकरण इसको काफी पेचीदा बना देते हैं। यादव-मुस्लिम कार्ड के साथ ही पिछड़ा वर्ग और अन्य पिछड़ा वर्ग की बहुलता चुनावों पर सीधा असर डालती है। लंबे समय तक यहां कांग्रेस का वर्चस्व रहा। लेकिन तीस एक साल पहले कांग्रेस के गढ़ में सेंध लगाने का श्रेय सपा यानी मुलायम सिंह यादव को जाता है जिन्होंने इमर्जेंसी के बाद ही कांग्रेस की नींव को खोखला किया तथा यादव और मुस्लिम मतदाताओं को अपने साथ मिला लिया।
 
 
कांशीराम, जो बसपा के संस्थापक रहे, ने भी मुलायम के नक्शेकदम पर चलते हुए दलित वोट बैंक में सेंध लगा ली। खासतौर से मंडल-कमंडल की राजनीति में इनके जनाधार को काफी फायदा पहुंचा। मगर इस बीच राम मंदिर आंदोलन ने भाजपा का उत्तरप्रदेश में अच्छा-खासा जनाधार तैयार किया, साथ ही ही सवर्ण और बनिया मतदाताओं ने भाजपा का दामन थामा, वहीं पश्चिमी उत्तरप्रदेश में अजीत सिंह की पार्टी राष्ट्रीय लोकदल को जाटों और कुछ हद तक किसानों का समर्थन हासिल हुआ।

 
लेकिन ये सभी समीकरण 2014 के चुनावों में आकर बदल जाते हैं और 'हर-हर मोदी, घर-घर मोदी' के नारों से उत्तरप्रदेश गूंज उठता है। भाजपा 71 सीटें जीतकर अपना अब तक का सर्वश्रेष्ठ देती है और जिसका सीधा असर वहां होने वाले विधानसभा चुनावों पर भी पड़ता है, जहां भाजपा सबसे बड़ी पार्टी बनकर सरकार का गठन करती है। और अब सबकी नजरें 2019 के लोकसभा चुनावों पर हैं। देखते हैं कि इस बार मोदी मैजिक चलता है या महागठबंधन का सियासी दांव!

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