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जनादेश ममता के पक्ष में नहीं, प्रधानमंत्री के ख़िलाफ़ है

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श्रवण गर्ग

, सोमवार, 3 मई 2021 (10:41 IST)
दो लाख से ज़्यादा कोरोना अभागों की दुर्भाग्यपूर्ण विदाई के बीच बंगाल के प्रतिष्ठापूर्ण चुनावों में हुई सिर्फ़ 'एक' राजनीतिक महत्वाकांक्षा की मौत का अगर मौन स्वरों में स्वागत किया जा रहा है तो बहुत आश्चर्य नहीं व्यक्त किया जाना चाहिए। जब सत्ता के नायक चुनावी सभाओं में बिना मास्क के जुटने वाली कुंभ जैसी भीड़ को अपनी 'बंधक' और अस्पतालों में ऑक्सीजन की कृत्रिम सांसों के लिए दम तोड़ते मरीज़ों को अपना 'विपक्ष' मान लेते हैं तब उससे निकलने वाले परिणामों का नाम सिर्फ़ पश्चिम बंगाल होता है।

 
मैंने 3 सप्ताह पहले लिखे अपने आलेख ('सवाल उल्टा होना चाहिए, बंगाल में मोदी जीतेंगे या हार जाएंगे?') में कहा था कि वहां चुनाव भाजपा और तृणमूल पार्टी के बीच नहीं बल्कि प्रधानमंत्री मोदी और ममता बनर्जी के बीच हो रहा है। मैंने यह भी लिखा था कि ऐसा पहली बार हो रहा है, जब एक प्रधानमंत्री किसी राज्य में एक मुख्यमंत्री के ख़िलाफ़ चुनाव का नेतृत्व कर रहा हो। अब, जबकि प्रधानमंत्री चुनाव में हार गए हैं, उन्हें इस पराजय को देश के करोड़ों कोरोना पीड़ित लोगों और उनके परिजनों के प्रतिनिधि पश्चिम बंगाल के मतदाताओं द्वारा उनके नेतृत्व के प्रति पारित किया गया अविश्वास प्रस्ताव मानते हुए पद से इस्तीफ़ा दे देना चाहिए।

 
प्रजातंत्र को जीवित रखने के लिए अब इस ऑक्सीजन की सबसे ज़्यादा ज़रूरत है। पर हमें पता है कि प्रधानमंत्री में ऐसा करने का साहस नहीं है। 17 अप्रैल को पश्चिम बंगाल की एक विशाल जनसभा में प्रधानमंत्री को जब अपने चारों ओर ऐसी भीड़ नज़र आ रही थी, जो उन्होंने जीवन में पहले कभी नहीं देखी थी तब किसी ने भी कल्पना नहीं की होगी कि नतीजों का फ़ैसला बंगाल के मतदान केंद्रों पर लगने वाली लंबी-लंबी लाइनें नहीं बल्कि देशभर के श्मशान घाटों और क़ब्रिस्तानों पर अंतिम क्रिया के लिए इंतज़ार करने वाली लाशों की क़तारें करने वाली हैं।
 
बंगाल के चुनाव परिणामों के सिलसिले में ममता बनर्जी को भी एक सावधानी बरतनी होगी। वह यह कि उन्हें इस जीत को अपनी या पार्टी की विजय मानने की गलती नहीं करनी चाहिए। यह फ़ैसला ममता के पक्ष में नहीं बल्कि प्रधानमंत्री के ख़िलाफ़ हुआ है। वोट अगर ममता के पक्ष में पड़ा होता तो नंदीग्राम में शुभेंदु अधिकारी की ज़मानत ज़ब्त हो जानी चाहिए थी; मुख्यमंत्री के सामने जीत के लाले नहीं पड़ने थे। मतदाताओं के सामने विकल्प यह था कि 2 अप्रजातांत्रिक नेताओं में किसे चुनना ज़्यादा सुरक्षित रहेगा?

 
भारतीय जनता पार्टी ने पश्चिम बंगाल में चुनाव सांप्रदायिक विभाजन को एजेंडा बनाकर लड़ा था। विभाजन सिर्फ़ 70 प्रतिशत बहुसंख्यकों और 30 प्रतिशत अल्पसंख्यकों के बीच ही नहीं किया गया, हिन्दुओं की धार्मिक आस्थाओं का भी मां दुर्गा और भगवान श्रीराम के बीच बंटवारा कर दिया गया। आत्मविश्वास इतना अतिरंजित था कि न केवल परिणामों के बाद होने वाली मंत्रिमंडल की पहली बैठक का एजेंडा तय कर लिया गया, उसे सार्वजनिक भी कर दिया गया कि राज्य में नागरिकता संशोधन क़ानून (सीएए) कड़ाई के साथ लागू किया जाएगा। 
 
बंगाल के चुनाव परिणामों पर दुनियाभर के प्रजातंत्रों और तानाशाह मुल्कों की नज़रें टिकी हुई थीं। वह इसलिए कि इनके ज़रिए भारत के प्रजातंत्र के भविष्य की दशा और दिशा तय होने वाली थी। परिणामों के बाद बड़े-बड़े फ़ैसले लिए जाने वाले थे। उत्तर-पूर्व के राज्यों को शेष भारत से जोड़ने वाले कॉरिडोर का नए सिरे से नामकरण होना था। 5 महीनों से चल रहे किसान आंदोलन का राजनीतिक निपटारा किया जाना था। शाहीनबाग़ की रूह को हमेशा के लिए दफ़्न किया जाना था। सब कुछ धरा रह गया। दुनियाभर की नज़रें यह देखने के लिए अब भारत पर और ज़्यादा टिक जाएंगी कि अपने जीवन में किसी भी तरह की पराजय स्वीकार नहीं करने वाले नरेन्द्र मोदी बंगाल के सदमे को किस अंदाज़ में प्रदर्शित करते हैं।
 
देश के विपक्ष और अभिव्यक्ति की आज़ादी को जिस तेज़ी के साथ 'ऑक्सीजनमुक्त' किया जा रहा था, क्या अब उसमें किसी भी तरह की प्राणवायु का संचार होने दिया जाएगा? देश की साझा संस्कृति और विरासत में 'राष्ट्रवाद' की सेंध लगना जारी रहेगी या थम जाएगी? मोदी क्या थोड़ा उदार और प्रजातांत्रिक होना या दिखना पसंद करेंगे? उत्तरप्रदेश की जेलें क्या इसी तरह 'विरोधियों' से भरी जाती रहेंगी अथवा उनमें आज़ादी की हवा को भी प्रवेश करने दिया जाएगा? क्या बंगाल के नतीजों से योगी-राज में अगले साल होने वाले चुनावों के लिए कोई सबक़ लिए जाएंगे?
 
देखने की सबसे बड़ी बात यह होगी कि भाजपा और संघ के कार्यकर्ता अपने वर्तमान राजनीतिक नेतृत्व के प्रति अब किस तरह की आस्था और आत्मविश्वास क़ायम रखते हैं। वह इन मायनों में कि क्या एक भी नेता अपनी रीढ़ की हड्डी सीधी करके कह पाएगा कि पार्टी नेतृत्व में जो कुछ चल रहा है, उसे बदलना चाहिए? या फिर साम्यवादी हुकूमतों जैसे नेतृत्व की व्यवस्था के तरह ही दुनिया के सबसे बड़े प्रजातंत्र की हुकूमत को भी चलाया जाएगा? जनता भी देखना चाहेगी कि कमजोर संसाधनों के साथ कोरोना से चल रहे 'युद्ध' के बीच इस राजनीतिक 'लड़ाई' में मिली पराजय का सदमा सत्ता के गलियारों में कितने प्रजातांत्रिक तरीक़ों से बर्दाश्त किया जाता है? 
 
(इस लेख में व्यक्त विचार/विश्लेषण लेखक के निजी हैं। इसमें शामिल तथ्य तथा विचार/विश्लेषण 'वेबदुनिया' के नहीं हैं और 'वेबदुनिया' इसकी कोई ज़िम्मेदारी नहीं लेती है।)

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