#Metoo अभियान के साइड इफेक्ट्स...

स्मृति आदित्य
#Metoo अभियान ने ठंडे पड़े सामाजिक माहौल में गर्माहट ला दी है। हर कोई इन किस्सों के बहाने रस लेने में लगा है। जहां इन तमाम मामलों की वास्तविकता सामने लाने के लिए पीड़िता के साहस की तारीफ की जानी चाहिए... एक आवाज जो उठती नहीं है उसके बुलंद होने की बधाई दी जानी चाहिए.... बरसों से रईसों के चमचमाते कालीन के नीचे पनप रही गंदगी के बाहर आ जाने की कवायद का स्वागत किया जाना चाहिए वहीं कुछ आशंकाओं को खारिज भी नहीं किया जा सकता है। 
 
#Metoo अभियान के बाद अचानक से ऐसा लगने लगा है कि दुनिया के सारे पुरुष लंपट हो गए हैं और तमाम सारी औरतें.. सीधी, सच्ची और शालीन.... सब जानते हैं कि सचाई यह नहीं है... #मीटू अभियान में जहां बरसों पुराने पापों का हिसाब पूरा किया जा रहा है वहीं संभावना इस बात की भी प्रबल है कि गेहूं के साथ कई घुन भी पिस जाएंगे। कहीं प्रेम में असफल पीड़िता अपमान की आग में जलते हुए बरसों पुराने संबंधों को रेप और यौन शोषण का नाम देकर इस सबको बदला लेने का बेहतरीन अवसर मान रही है तो कहीं लाइम लाइट से दूर होकर सुर्खियों में बने रहने की छटपटाहट सामने आ रही है। 

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एक साथ चारों तरफ से 'नामों' की 'उत्खनन-प्रक्रिया' चल रही है। जहां-तहां से किस्से खोद खोद कर निकाले जा रहे हैं। इस पूरे अभियान पर तटस्थ होकर सोचने की जरूरत है अतिवादी फेमिनिज्म और अति प्रेक्टिकल अप्रोच रखना दोनों ही घातक सिद्ध होंगे।   
 
सबसे ज्यादा चपेट में है फिल्म और टीवी इंडस्ट्री, उसके बाद राजनीतिक गलियारे और फिर मीडिया के न्यूज रूम.... यह तीनों ही क्षेत्र ऐसे है जो लोकप्रियता की चमक से हर किसी को ललचाते हैं। कड़वा सच है कि अचानक से नेम, फेम और मनी की सुविधा देखते हुए कई उतावली युवतियों ने इसे अनिवार्य मानते हुए हड़बड़ी में इस तरह के फैसले स्वैच्छा से लिए हैं और एक मुकाम पाने के बाद में चाह रही हैं कि किसी #Metoo अभियान के जरिये पुरानी फाइलें निपटा दें... और ऐसे फैसले लेने वाली हर किसी को समाज में साफ नजर में भी आती है लेकिन वही कि 'उनकी पर्सनल लाइफ है' कहकर हर कोई आगे बढ़ जाता है। 

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कई बेहतरीन अभिनय करने वाली, राजनीति की अच्छी समझ रखने वाली जमीनी कार्यकर्ता और मेहनती अच्छा लेखन करने वाली पत्रकार इन अवसरवादी युवतियों के हथकंडों का शिकार होती हैं। 
 
गलत सीढियों का इस्तेमाल नहीं करने की वजह से वे धीरे-धीरे आगे बढ़ती हैं, सरकती हैं या नहीं बढ़ पाती है और गुमनामी के अंधेरे में खो जाती है। 
 
लेकिन परस्पर सहमति से 'समझौते' की सीढियों से होकर आगे जाने वालियों को कोई हक नहीं है कि #Metoo अभियान में वे खुद को शामिल करें। 
 
यह सोच का एक पक्ष है, इसका मतलब यह कतई नहीं है कि #Metoo अभियान गलत है या इसके जरिये सामने आने वाली लड़कियां गलत है उद्देश्य सिर्फ यह है कि हम आंखें खोलकर देखें कि यह #Metoo अभियान कहीं उनको भी न ले डूबे जो गलत नहीं हैं पर 'गलत' न करने की वजह से फंसाए जा सकते हैं... 

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