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अवधेश कुमार

गुजरात और हिमाचल विधानसभा चुनाव परिणामों के पहली नजर में अलग-अलग संदेश हैं। गुजरात में अगर 27 वर्षों से कायम भाजपा की सत्ता को रिकॉर्ड मत और बहुमत के साथ स्वीकार किया तो हिमाचल प्रदेश ने हर 5 में वर्ष सत्ता बदलने की परंपरा तोड़ने की उसकी आकांक्षा को धक्का पहुंचाया।


हालांकि हिमाचल का कुल अंकगणित ऐसा है जिसमें भाजपा अपने लिए सांत्वना के पहलू तलाश चुकी है। पार्टी अध्यक्ष जगत प्रकाश नड्डा ने कहा कि हमारे और कांग्रेस के मतों में केवल .9 प्रतिशत का ही अंतर है। वास्तव में भाजपा को 43% एवं कांग्रेस को 43.9% मत मिले। इस तरह 1% से भी कम मत में कांग्रेस को बहुमत प्राप्त हो गया। 
 
जरा सोचिए, हिमाचल में कितने कांटे की टक्कर रही होगी कि .9% मत में 68 विधानसभाओं में 40 कांग्रेस के पास चले गए एवं भाजपा के पास केवल 25 बचे, जो उसके पिछले 44 की संख्या से 19 कम है। यह भी कहा जा सकता है कि 1977 के बाद कोई सरकार वहां लगातार दूसरी बार नहीं आई। इस आधार पर कहा जा सकता है कि मतदाताओं ने सरकार बदलने की अपनी परंपरा को कायम रखा है।
 
इसके समानांतर गुजरात में भाजपा को 156 सीटें और 52.5% मत मिलने की कल्पना किसी ने भी नहीं की थी। 1952 के पहले आम चुनाव के बाद संपूर्ण भारत में किसी बड़े राज्य के विधानसभा चुनाव में इस तरह का रिकॉर्ड शायद ही मिलेगा, जहां किसी एक पार्टी को 86% के आसपास सीटें मिल गई हो। ऐसी जबरदस्त विजय में हिमाचल की पराजय भाजपा के लिए वैसी निराशा का कारण नहीं बना जैसी बननी चाहिए थी। 
 
दूसरी ओर लंबे समय से हताशा के दौर से गुजर रही कांग्रेस को हिमाचल ने नई उर्जा दी है। पार्टी ने कहा भी है कि उसने यह मिथक तोड़ा है कि भाजपा को उत्तर भारत में कोई हरा नहीं सकता है। हालांकि यह सच नहीं है। भाजपा इसके पहले भी 2018 में मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान का चुनाव हार चुकी है और कांग्रेस के हाथों ही।

जाहिर है अति उत्साह में कांग्रेस ने यह वक्तव्य दिया है। तीसरी तरफ आम आदमी पार्टी के संयोजक अरविंद केजरीवाल ने कहा कि केवल 10 वर्ष पहले बनी पार्टी गुजरात में 12% से अधिक वोट और 5 सीटें पाई तथा राष्ट्रीय पार्टी बन गई यह बहुत बड़ी बात है। इस तरह भारत की तीनों पार्टियों के लिए इन चुनावों में संतोष के पहलू निहित हैं।
 
 
लेकिन चुनावों के संदेश यहीं तक सीमित नहीं है। राजनीति, विचारधारा और भविष्य के चुनावी परिदृश्य की दृष्टि से इसने और भी कुछ संकेत दिए हैं, जिनकी अनदेखी करने वाली पार्टी के लिए भविष्य में खतरा पैदा हो सकता है। आइए कांग्रेस पर चर्चा करें। 
 
कांग्रेस उत्साहित होने की जगह हिमाचल परिणाम को वास्तविकता के आईने में देखें तो उसके भविष्य के लिए अच्छा होगा। कांग्रेस कतई ना मानें कि उसकी रणनीति के कारण विजय मिली है या उसकी पार्टी हिमाचल में 2017 के मुकाबले ज्यादा सशक्त हुई है। केंद्रीय स्तर पर पार्टी की दुर्दशा का शिकार राज्य इकाइयां भी हैं और हिमाचल उससे अछूता नहीं है। जिस तरह के कांटे की लड़ाई थी उसमें पासा किधर भी पलट सकता था। इतने कम मतों की दूरी से हिमाचल में सरकार बनने का कोई रिकॉर्ड नहीं है। 
 
सच यह है कि भाजपा अपनी पार्टी के अंतर्कलह को दूर करने में सफल नहीं हुई तथा जगह-जगह विद्रोह और भीतरघात ने उसे नुकसान पहुंचाया। चुनाव परिणाम का विश्लेषण बताता है कि भाजपा केवल अपने विद्रोहियों के कारण हारी है। कहीं विद्रोही सीधे मुकाबले में थे तो कहीं पार्टी को हराने के लिए काम कर रहे थे। 
 
उदाहरण के लिए फतेहपुर सीट को लीजिए। आज वहां भाजपा के विद्रोही कृपाल परमार थे, जिन्हें प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने स्वयं फोन कर मैदान से हटने का आग्रह किया था। वे डटे रहे और उन्होंने 2811 वोट काटे जिससे कैबिनेट मंत्री राकेश पठानिया चुनाव हार गए। हमीरपुर सीट से आशीष शर्मा निर्दलीय जीते जो भाजपा में थे। वे चुनाव के पूर्व कांग्रेस में चले गए थे लेकिन जब लगा कि टिकट नहीं मिलेगा, तो उन्होंने निर्दलीय पर्चा दाखिल कर दिया। 

भाजपा होशियार, चंबा, मनाली, बड़सर, धर्मशाला, इंदौरा, किन्नौर आदि सीटें सीधे-सीधे विद्रोहियों के चलते हारी। इतने से ही भाजपा कुल सीटों की आधी संख्या पा लेती। शेष जगह विद्रोही उम्मीदवार नहीं बने लेकिन भाजपा उम्मीदवारों को हराने के लिए जरूर काम किया। 
 
कहने का तात्पर्य कि इतनी बड़ी संख्या में भाजपा के विद्रोहियों और भीतरघातियों के रहते हुए कांग्रेस अगर 1% मतों से भी कम से अंतर से विजय प्राप्त कर पाई है तो यह किसी भी दृष्टि से उसकी ठीक-ठाक स्थिति का प्रमाण नहीं है। आप इसके लिए प्रियंका वाड्रा को श्रेय दे दीजिए यह अलग बात है।

प्रियंका वाड्रा का घर शिमला के पास ही है। उन्होंने वहां केवल 4 सभाएं की जिनमें भी एक सभा केवल औपचारिक थी। अगर उनका इतना बड़ा जादू है कि 4 सभाओं से पूरे हिमाचल का चुनाव जीता सकती हैं तो दूसरे जगह भी यह चमत्कार होना चाहिए। इसलिए कांग्रेस की सरकार बन गई लेकिन गलतफहमी न पालें कि भाजपा को चुनौती देने की अवस्था में वह आ रही है।
 
 
कांग्रेस की चिंता होनी चाहिए कि गुजरात, जहां उसका संगठन पूरे प्रदेश में रहा है, वहां उसे धूल चाटने को क्यों विवश होना पड़ा? क्या बुरे से बुरे सपनों में भी कांग्रेस कल्पना कर सकती थी कि उसे 27.2% मत और 17 सीटों तक सिमट जाना पड़ेगा? उसे इतिहास की सबसे कम सीटें और वोट मिले हैं। 
 
चुनाव का विश्लेषण बताता है कि आम आदमी पार्टी उसके बरसों के जनाधार को भेदने में कामयाब हुई है। आप आम चुनाव में तीसरी शक्ति है। दिल्ली एमसीडी चुनाव में भी कांग्रेस साफ हो गई। आप ने ही दिल्ली की राजनीति में उसे हाशिए पर धकेल दिया। भाजपा और मोदी विरोधियों के अंदर यह संदेश जा रहा है कि आप कांग्रेस की जगह ले रही है और यह कांग्रेस के लिए बहुत बड़े खतरे की घंटी है। 
 
कांग्रेस अगर इस मुगालते में रहे कि राहुल गांधी, प्रियंका वाड्रा की लोकप्रियता जनता में है और वह वापसी करेगी तो फिर उसे आने वाले चुनावों में ज्यादा बड़ा आघात लग सकता है। निराशा के दौर में कांग्रेस उसी तरह की लोकप्रियतावादी वायदे करने लगी है जो अपरिपक्व नेता और पार्टियां करती रही है। हिमाचल में पुरानी पेंशन योजना कांग्रेस ने ही खत्म की थी और यह सही कदम था क्योंकि इससे प्रदेश की अर्थव्यवस्था नष्ट हो जाती। उसने चुनावी लाभ के लिए उसकी वापसी की घोषणा कर दी।

संभव है इससे थोड़े बहुत वोट मिले हों, लेकिन ऐसे रवैया से कांग्रेस का उद्धार नहीं हो सकता। भविष्य में उसके लिए चुनौतियां पड़ेगी। कांग्रेस सोचे कि अगर भाजपा अपनी पार्टी का प्रबंधन थोड़ा भी ठीक कर लेती तो उसके इस वायदे के बावजूद सरकार फिर वापस आ जाती। यानी बहुमत ऐसे लोकप्रिय वायदों के अनुसार मतदान नहीं करता।
 
 
भाजपा यकीनन गुजरात की ऐतिहासिक विजय से संतुष्ट हो सकती है, पर हिमाचल और दिल्ली के परिणाम उसके लिए गंभीर चिंता का कारण होना चाहिए। आखिर हिमाचल भाजपा में अंतर्कलह इस सीमा तक क्यों गया कि अपने ही लोग प्रतिशोध के भाव में पार्टी को हराने के वाहक बन गए? मोदी जैसे लोकप्रिय नेता के रहते तथा पार्टी द्वारा अपने मूल एजेंडे पर काम करने के माहौल में ऐसा होना असामान्य बात है। 
 
हिमाचल प्रदेश अध्यक्ष नड्डा एवं केंद्रीय मंत्री अनुराग सिंह ठाकुर का गृह राज्य है। अनुराग ठाकुर के लोकसभा क्षेत्र में भाजपा को बुरी शिकस्त मिली है। इस स्थिति को आप केवल छोटे मतों के अंतर के पहलू तक सीमित कर देंगे तो खतरा ज्यादा बढ़ेगा।

अन्य राज्यों में भी सरकारों की नीतियों, कार्यकर्ताओं की अनदेखी, पुलिस और प्रशासन का कानून व्यवस्था के नाम पर मनमाना रवैया आदि नेताओं, कार्यकर्ताओं एवं समर्थकों में असंतोष पैदा कर रहा है। इन सबकी व्यापक समीक्षा कर संभालने की आवश्यकता है। हिमाचल ने जता दिया है कि नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता रहते हुए भी अगर स्थानीय सरकार व प्रतिनिधियों से अपने ही नेता और कार्यकर्ता असंतुष्ट हैं तो फिर पराजय हाथ लग सकती है। 
 
अरविंद केजरीवाल और आप भी न भूले कि गुजरात में उन्होंने 27 साल बाद परिवर्तन का लक्ष्य घोषित किया था। केजरीवाल ने हस्ताक्षर करते हुए कागज पर लिखा था कि सरकार बदल रही है। उनके तीन प्रमुख चेहरे मुख्यमंत्री उम्मीदवार इशुदान गढ़वी, पार्टी अध्यक्ष गोपाल इटालिया तथा बड़े नेता अल्पेश कथिरिया तक चुनाव हार गए। हिमाचल में उनके सारे उम्मीदवारों की जमानत जब्त हो गई। 
 
दिल्ली एमसीडी में भी उसका वोट भाजपा से केवल 3% ज्यादा है और उनकी विजय उस तरह एक तरफा नहीं हुई, जैसी 2017 में भाजपा की हुई थी। यह 3% की खाई कभी भी पाटी जा सकती है। भाजपा का मत काटने की क्षमता आप ने अभी तक नहीं दिखाई है, क्योंकि दिल्ली एमसीडी में भी भाजपा का मत 36% से बढ़कर 39% हुआ है।

यह तथ्य है जिसे अरविंद केजरीवाल एवं उनके साथियों को याद रखना चाहिए। अगर वे इसकी समीक्षा करें तो पता चलेगा कि लोगों को मुफ्त का लालच देने की नीतियों में केवल एक वर्ग का ही आकर्षण है। यानी उसे ज्यादा गंभीर और जिम्मेवार पार्टी होने का परिचय देना होगा, तभी उसकी व्यापक स्वीकार्यता हो सकती है। 
 
(इस लेख में व्यक्त विचार/विश्लेषण लेखक के निजी हैं। 'वेबदुनिया' इसकी कोई ज़िम्मेदारी नहीं लेती है।)


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