पुराने शहर की यादों में बसी कहानी : घूंसा

ब्रजेश कानूनगो
जब घर छोड़ा था तब सारे बाल काले थे। लगभग बीस बरस का अंतराल कम नहीं होता। जिस प्रकार मेरी देह और जुल्फों में बदलाव आया था, वैसा ही कुछ अपने शहर को देखने पर महसूस हो रहा था। बरसों बाद मैं अपने शहर में पैदल भटक रहा था।


बहुत ढूंढने के बाद भी मुझे अपने बचपन का वह प्यारा कस्बा कहीं नजर नहीं आ रहा था। सब कुछ जैसे बदल सा गया था। कई मॉल खुल गए थे, शहर का औद्योगीकरण भी हो गया था। आई टी पार्क स्थापित होने की तैयारियां शुरू हो गईं थी। नई-नई कॉलोनियां दिखाई दे रहीं थीं। पुराने रहवासियों ने अपने बड़े मकानों में या तो किराएदारों के लिए चालें बनवा ली थीं या फिर उन्हें छोटे-मोटे बाजार में बदल डाला था। नगर पालिका परिषद नगर निगम में बदल चुकी थी। महानगर निगम बनने में शायद कुछ ही समय बचा होगा ऐसा स्पष्ट दिखाई दे रहा था,  नगर की सीमा वहां तक बढ़ गई थी, जहां पहले गांव और लहलहाते खेत हुआ करते थे।  'फिकर नाट पान भंडार 'या 'क्या चाहिए मिठाई के लिए सीधे चले आइए' जैसे बोर्डों के स्थान पर 'गुप्ता कंस्ट्रक्शन' अथवा 'कृष्ण कॉलोनी' जैसे बड़े-बड़े बोर्ड लटके नजर आ रहे थे।
 
पत्नी का आग्रह था कि बिटिया का विवाह अपने शहर से ही किया जाए। रिश्तेदार और परिचित सब इधर ही हैं, उधर हैदराबाद तो कोई आने से रहा। अपना घर है ही यहां। छोटा भाई यहीं रहता है। अगर अपनों के बीच कार्यक्रम होता है तो बहुत अच्छा रहेगा। और हम यहां आ गए थे, अपने शहर।
 
शहर जरूर बदल गया था, मगर हमारा घर वैसा ही आज तक था, जैसा हम छोड़कर गए थे। मैंने महसूस किया था वे सब घर वैसे ही थे जहां संपत्ति का बंटवारा नहीं हुआ था। हालांकि ऐसे घरों की संख्या कम ही थी। हम बाहर थे, भाई यहां नौकरी में था। स्थानीय नौकरी थी, इसलिए ट्रांसफर आदि का झमेला नहीं था। अगर बंटवारा हो जाता तो अभी तक हमारे घर में भी चार दुकानें निकल आतीं। भला पांच-छः हजार की मासिक आमदनी कौन छोड़ता है इस जमाने में? फिर बढ़ता शहर था यह, लेकिन हम ऐसा नहीं कर पाए थे। दुनियादार लोग भले ही मूर्ख समझते रहे, लेकिन शायद हमने बंटवारे की बजाए घाटा उठाते हुए रिश्तों की रक्षा करने को अधिक महत्त्व दे डाला था। मुझे मालूम था, शहर में फैली यह महामारी अब हमारे घर को भी नहीं छोड़ेगी। लेकिन इतना अवश्य कहा जा सकता था, कि यह सब बिटिया के विवाह के बाद ही होगा।
 
हमारे घर के अलावा नहीं बदला था, तो मेरा स्कूल-आनंद भवन प्राथमिक पाठशाला। स्कूल का यह भवन आज चालीस बरस बाद भी वैसा ही नजर आ रहा था– जैसा पहले नजर आता था। भवन को अब गोबर और पीली मिट्टी से तो नहीं लीपा जाता होगा, लेकिन देखकर लगता था कि गुरुकुल परंपरा का पालन हमारे वक्त की तरह ही हो रहा है। जब टाटपट्टी बिछाने पर धूल उड़ती थी, ज्ञान गंगा में नहाने से पहले बच्चे धूल गंगा में स्नान कर लेते थे। अब भी ऐसा ही दिखाई देता था। अब तो हमारे स्कूल में कुछ गरीब बस्ती के बच्चों को ही जाते देख रहा था, जबकि उस समय शाला में हर वर्ग और हर स्तर के परिवार के बच्चे साथ-साथ बैठकर पढ़ा करते थे। सेठ धर्मदास का सुपुत्र टाट पट्टी पर बैठकर पढ़ता था, तो ठेलागाड़ी चलाने वाले निसार का बेटा अब्दुल भी हमारे पास बैठता था। पुरोहित वृंदावनलाल का बेटा वंशी भी उसी स्कूल में पढ़ता था। वहीं मैं भी नंगे पैर, कपड़े का बना बस्ता लटकाए, स्कूल की ओर दौड़ पड़ता था। स्कूल प्रवेश के समय पिताजी के एक चांटे के प्रसाद के कारण कभी स्कूल न जाने का विचार मन में नहीं आया। बस्ते का बोझ दौड़ने में कभी बाधक नहीं बना, उस समय बहुत सारी पुस्तकें कंधे पर लादकर भी नहीं ले जाना पड़ती थीं। मेरा बस्ता मेरी मां द्वारा हर वर्ष नया सिल कर दिया जाता था। पिताजी का पुराना पैंट पूरी तरह घिसकर जब रिटायर्ड हो जाता तब उसकी तीन चीजें बनती थी- बाजार से सब्जियां ,सामान वगैरह लाने के लिए एक थैला, दादी मां के लिए ठंड में पहनने के लिए पूरी आस्तिनों वाला पोलका और मेरे लिए एक बस्ता, जिसे पाकर मैं बहुत खुश हो जाता था।
 
हर शनिवार को हमारे स्कूल में 'बाल सभा' होती थी। बाल सभा होने के पहले साप्ताहिक टेस्ट होता था, जो लड़के फेल हो जाते थे, उन्हें उस दिन कक्षा की लिपाई करनी होती थी और जो पास हो जाते थे वे 'बाल सभा' में कविताएं, कहानियां और चुटकुलों का आनंद उठाते थे। अब्दुल और वंशी को कभी बालसभा में रूचि नहीं रही, वे अक्सर कक्षा की लिपाई ही करते थे। 'बाल सभा' समाप्त होती, तो सब बच्चे रविवार की छुट्टी के आकर्षण में दौड़ते हुए स्कूल से बाहर निकलते। नीली आंखों वाला बद्री प्रसाद मुझसे पूछता- 'कल क्या है?' मैं खुशी से चहकता –'कल छुट्टी है।' तब बद्रीप्रसाद तुक मिलाते हुए मुझे चिढ़ाता- 'तेरी दादी बुड्ढी है।' मुझे बहुत दुःख होता।घर पहुंचकर रोता और दादी को यह बात बताता तो वे मुस्करा देतीं। उनके कुल तीन दांत थे, वे भी अपनी पकड़ छोड़ बैठे थे। वे मुस्करातीं तो उनमें से एक दांत लटककर और बाहर निकल आता। वे इस रूप में मुझे और भी ममतामयी लगतीं थीं। वे कहतीं- 'बद्री ठीक ही तो कहता है, मैं बुढ़ि‍या ही तो हूं..' मैं उनकी गोद में सर रखकर सब कुछ भूल जाता।
 
कक्षा में बद्रीप्रसाद और मैं पास-पास ही बैठते थे। बद्री मुझसे ढाई गुना मोटा था। बद्री के पिताजी शहर के जाने-माने पहलवान थे। उनके साथ बद्री भी कसरत वगैरह किया करता था। बद्री की नीली आंखें उसके कसरती बदन में चार चांद लगाती थीं। बद्री हमेशा दूसरे सहपाठियों से मेरी रक्षा किया करता था। वह मेरा बहुत अच्छा मित्र था, लेकिन एक छोटी सी घटना ने हमारी मित्रता पर पानी फेर दिया। मास्टरजी ने हमें कुछ शब्दार्थ याद करके लाने को कहा थाअ  वे एक के बाद एक बच्चे से अर्थ पूछते जा रहे थे। जो बच्चा गलत जवाब देता, उसे सजा मिलती। उसे पास बैठे सहपाठी का घूंसा खाना पड़ता था। हालांकि मास्टरजी इसे धौल जमाना ही कहते थे, लेकिन बच्चे पड़ोसी की पिटाई बड़े जोरदार ढंग से ही किया करते थे। बल्कि हरेक को इंतजार रहता था, कि कब अपना पड़ोसी गलती करे। जब एक बार मेरी बारी आई तो मास्टर जी ने पूछा- 'बताओ रघुवीर 'शक्तिशाली' यानी क्या?' और मैं बगलें झांकने लगा। पास में ही बद्री पहलवान बैठे थे। इशारा होते ही मुझे लगा कि मेरी पीठ से कोई वजनदार चीज टकराई है और पेट में जैसे कोई गड्ढा सा गहराता जा रहा है। आंखों के सामने सितारे उभर आए, मैं गिर पड़ा। मास्टर साहब मेरे पास आए, बद्री खुद दौड़कर पानी लाया और मुझ पर छींटे मारे। मुझे पानी पिलाया गया। मैं तो ठीक हो गया, लेकिन इसके साथ ही मास्टर जी की उस पिटाई परंपरा का भी अंत हो गया। बाद में मैंने बद्री प्रसाद से सदा के लिए बोलचाल बंद कर दी। फिर कभी हम एक दूसरे से नहीं बोले। मैं उससे दूर इस्माइल के पास बैठने लग गया।
 
बचपन की यादों में डूबा मैं, हमारे स्कूल से लगे बाजार में जहां खड़ा था, उसके ठीक सामने बर्तनों की दूकान थी। मेहमानों को बिदाई में उपहार स्वरूप स्टील की प्लेंटे देने की योजना थी। मैं दूकान में चढ़ गया। 'भैया जरा स्टील की प्लेंटे दिखाना'- मैंने कहा। 'जरूर देखिए साहब', दुकानदार ने पलटकर कहा। हमारी आंखें मिली, दुकानदार की शक्ल मेरी जानी-पहचानी सी लग रही थी। बरबस मेरा हाथ मेरी पीठ की तरफ गया। दुकानदार ने मुझे पहचान लिया था -'तुम रघुवीर ही हो ना'? वह काउंटर छोड़कर बाहर आ गया था और मेरे गले में उसकी बाहें हार बनकर अपने शहर में मेरा स्वागत कर रहीं थीं। आंसुओं से धुंधलाती दृष्टि के बावजूद मैं बद्री की नीली आंखों में झिलमिलाता हुआ अपना प्यारा शहर स्पष्ट देख रहा था।
 
 
Show comments
सभी देखें

जरुर पढ़ें

पार्टनर के लिए 20 बेहतरीन रोमांटिक गुड मॉर्निंग लव शायरी और कोट्स

भारत में कैसे आता है मॉनसून? समझिए बारिश का पूरा विज्ञान

बरखा की बूंदों में भीगी ये शायरी पढ़ कर दिल हो जाएगा तरोताजा

हेयर ट्रांसप्लांट ने लील ली 2 जिंदगियां, जानिए कितनी सेफ है ये सर्जरी, संभावित खतरे और किन लोगों को नहीं करवाना चाहिए ट्रांसप्लांट

प्री-मॉनसून और मॉनसून में क्या होता है अंतर, आसान भाषा में समझिए

सभी देखें

नवीनतम

अपनी बेटी को दें वेदों से प्रेरित सुंदर नाम, जानें उनके गहरे अर्थ

घर के चिराग को दें वेदों से प्रभावित नाम, दीजिए बेटे के जीवन को एक सार्थक शुरुआत

प्रधानमंत्री का संदेश आतंकवाद के विरुद्ध मानक

मोहब्बत, जिंदगी और सियासत पर राहत इंदौरी के 20 दमदार और मोटिवेशनल शेर

कितनी है कर्नल सोफिया कुरैशी की सैलरी, जानिए भारतीय सेना में इस पोस्ट का वेतनमान

अगला लेख