प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की वेटिकन में पोप फ्रांसिस के साथ मुलाकात और बातचीत कई मायनों में जितनी महत्वपूर्ण थी, उतनी उस पर चर्चा नहीं हुई। वस्तुतः भारत में इसका जितना और जिस तरीके से विश्लेषण होना चाहिए वह नहीं हो पाया है।
पोप की दो प्रकार की भूमिका रही है। एक, विश्व के सबसे ज्यादा धर्म को मानने वाले कैथोलिकों के शीर्ष धार्मिक नेता हैं। और दूसरे, वेटिकन को एक संप्रभु राष्ट्र राज्य का दर्जा प्राप्त है, इसलिए वे एक देश के प्रमुख भी हैं।
भारत ने 1948 में ही वेटिकन को देश के रूप में मान्यता दी थी। इसलिए भारत और वेटिकन एवं पोप के साथ संबंध नया नहीं है। जिन लोगों ने मोदी और पोप की मुलाकात की लाइव तस्वीरें देखी होंगी वे मुस्कुराते हाथ मिलाने के लिए बढ़ते और गला लगाते भंगिमा को भूल नहीं पाएंगे।
नरेंद्र मोदी विदेशी नेताओं से गले मिलते हैं और उनकी या तस्वीरें मीडिया की सुर्खियां बनती है। पोप से इतने सहज ढंग से हंसते हुए गले मिलना इस मायने में महत्वपूर्ण है, क्योंकि नरेंद्र मोदी की छवि भारत और विश्व में एक बड़े समूह ने कट्टर हिंदू नेता की बनाई है। उनके बारे में प्रचार यह किया जाता है कि दूसरे धर्मावलंबियों को महत्व नहीं देते या उनके विरुद्ध सरकार कार्रवाई करती है। इसलिए भारत एवं विश्व के छोटे हलकों में पोप के साथ उनकी मुलाकात पर आश्चर्य व्यक्त किया गया।
कइयों के लिए तो यह भी आश्चर्य का विषय था कि दोनों की मुलाकात का समय केवल 20 मिनट था लेकिन वह एक घंटे तक चली। जो प्रेस वक्तव्य आया उसके अनुसार इसमें कोई विवादास्पद मुद्दा नहीं उठा। विश्व के कल्याण से संबंधित जलवायु परिवर्तन महामारी, आर्थिक विकास आदि विषय में बातचीत के बीच रहे। मोदी ने पोप को भारत आने का निमंत्रण दिया और उन्होंने स्वीकार भी कर लिया। इस तरह 1999 के बाद भारत आने वाले पहले होंगे।
उनके आगमन से भारत वेटिकन- पोप के संबंध ज्यादा बेहतर होने की कल्पना की जा सकती है। पोप फ्रांसिस के पहले पोक पॉल-4 1964 में एक बार तथा पोप जॉन न पॉल द्वितीय 1986 एवं 1999 में यानी दो बार भारत आए थे।
इस तरह पोप फ्रांसिस के रूप में पोप की चौथी भारत यात्रा होगी। भारत में लगभग दो करोड़ कैथोलिक ईसाई हैं और यह संख्या छोटी नहीं है। एशिया में कैथोलिक ईसाइयों की आबादी के मामले में फिलीपींस का नंबर पहला है तो भारत दूसरे स्थान पर है।
इसाई समुदाय के लोग को किस दृष्टि से देखते हैं यह बताने की आवश्यकता नहीं। मोदी वेटिकन में पोप से मिलने वाले पहले नेता नहीं है। इसके पहले 1955 में तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू वेटिकन में पोप पायस12 से मिले थे। उस समय पुर्तगालियों के विरुद्ध गोवा मुक्ति का आंदोलन चरम पर था। नेहरू पर पुर्तगाल की ओर से ईसाइयों के विरुद्ध कार्रवाई का आरोप लगाया गया।
नेहरू ने जो वक्तव्य दिया उसके पोप संतुष्ट हुए और दुनिया के कैथोलिक ईसाई भी। उन्होंने स्पष्ट कहा कि पुर्तगाल की लड़ाई से ईसाइयों का कोई लेना देना नहीं है, देश के दूसरे क्षेत्र में भी ईसाई रहते हैं और सबको पूरी धार्मिक स्वतंत्रता है। यही बात भारत के संदर्भ में पहले भी सच थी आज भी है।
उसके बाद इंदिरा गांधी 1981 तथा इंद्र कुमार गुजराल 1997 में एवं अटल बिहारी वाजपेयी साल 2000 में पोप से मिले थे। 2005 में पोप जॉन पॉल द्वितीय का निधन होने के बाद तत्कालीन उपराष्ट्रपति भैरोसिंह शेखावत अंत्येष्टि में भाग लेने गए थे। हालांकि तब यूपीए सरकार थी एवं शेखावास भारत सरकार के प्रतिनिधि थे, पर थे तो भाजपा के ही नेता।
निस्संदेह, इतिहास के लंबे कालखंड में पोप और चर्चों के कार्यों का अध्याय अच्छा नहीं रहा। आम नागरिक तो छोड़िए राजाओं तक को सजा देने का अधिकार इन्होंने अपने हाथों रख लिया था। यूरोप के कई क्रांतियों के पीछे कैथोलिक चर्च की निरंकुश, अतिवादी, अंधविश्वास फैलाने वाली, जनता के अधिकारों को अस्वीकार करने वाली नीतियों के विरुद्ध रहा। फ्रांस की क्रांति केवल लुई 14 वें के खिलाफ नहीं थी, कैथोलिक चर्चों के विरुद्ध भी जनता के अंदर उतना ही गुस्सा था।
यूरोप में जिसे पुनर्जागरण काल कहते हैं वह भी एक प्रकार से कैथोलिक नियंत्रित राज्य, समाज व धर्म के बंदिशों से बाहर आना था। वैज्ञानिक दृष्टि से खोज और अध्ययन करने वाले चर्च मान्यताओं और नीतियों को ही तो चुनौती दे रहे थे। इसलिए इतिहासकारों के एक बड़े समूह ने लंबे कालखंड को डार्क एज यानी अंधकार युग की संज्ञा दी है। आप सोच सकते हैं कि पृथ्वी गोल है या अपनी गति से घूमती है इतना भी चर्च स्वीकार करने को तैयार नहीं था तो कैसे स्थिति रही होगी। यूरोप में दार्शनिकों के लंबी श्रृंखला है जिन्होंने पोप और चर्च के विरुद्ध सोच और विचारों से अभियान चला दिया।
वॉल्तेयर, रूसो, विक्टर ह्युगो, जैसे दार्शनिक इसी श्रेणी के थे। रूसो, मारॅटेस्क्यू और वॉल्तेयर जैसे दार्शनिकों के विचारों की फ्रांस की क्रांति में बहुत बड़ी भूमिका थी। धीरे- धीरे पोप ने पुरानी मान्यताओं और नीतियों में संशोधन परिवर्तन करते हुए वैज्ञानिक अध्ययनों खोज विचारों तथा मानवीय अधिकारों की मांगों को स्वीकार करना आरंभ किया। इससे पोप की प्रतिष्ठा विश्व भर में बड़ी। पोप फ्रांसिस तथा इनके पूर्व पोप जॉन पॉल द्वितीय ने मानवाधिकारों के नाम पर ऐसी कई बातों को स्वीकार किया जिसकी पहले कल्पना तक नहीं थी। आज पोप विश्व में सर्वाधिक प्रतिष्ठित धर्म एवं राज्य प्रमुख माने जाते हैं।
विश्व के सभी प्रमुख ईसाई देश उनका सम्मान करते हैं तथा वेटिकन से निकली आवाज को पूरा महत्व देते हैं। इस नाते भी विचार करें तो मोदी और पोप की यह मुलाकात काफी महत्वपूर्ण जाएगी।\यह कहना आसान है कि मोदी ने इसके माध्यम से अपने राजनीतिक लक्ष्य को भी सादने की कोशिश की है। मसलन, गोवा, केरल तथा पूर्वोत्तर में राजनीति करने के लिए कैथोलिक ईसाइयों का साथ आना जरूरी है। भाजपा आगामी विधानसभा चुनाव में गोवा में पुनर्वापसी चाहती है तो केरल में राजनीति की मुख्यधारा में आना। संभव है मुलाकात के पीछे राजनीतिक सोच भी हो। केरल के कई बड़े नेता पोप से मुलाकात कर चुके हैं।
इसमें वर्तमान मुख्यमंत्री पी विजयन भी शामिल हैं। कुछ केरल के एक बड़े कार्डिनल ने मुलाकात का स्वागत भी किया है। जिन हलकों में मोदी की पोप से मुलाकात को लेकर थोड़ा नाक भौं सिकोड़ा गया उनके कारण राजनीतिक ज्यादा हैं। हो सकता है भाजपा को इसका कुछ चुनावी लाभ मिले। ऐसा नहीं भी हो सकता है। किंतु इस दृष्टि से मोदी मुलाकात तथा पोप की भावी यात्रा को देखना इसके व्यापक आयामों को संकुचित कर देता है। भारत बहुपंथी देश है। हार पंथ और मजहब को उनकी मान्यताओं के अनुसार धार्मिक क्रियाकलापों के लिए शत प्रतिशत स्वतंत्रता देने वाला भारत विश्व के सभ्य देशों में गिना जाता है।
इस सफल मुलाकात के बाद पोप की भावी यात्रा सफलतापूर्वक संपन्न हो गई तो आर्थिक और सामरिक दृष्टि से विश्व में महाशक्ति की ओर अग्रसर भारत का कद बढ़ेगा ही, इसके प्रति विश्व भर के ईसाई समुदाय का भावनात्मक लगाव भी थोड़ा मजबूत होगा। बताने की आवश्यकता नहीं कि इनमें विश्व के प्रमुख देश भी शामिल हैं।
मोदी के सत्ता में आने के बाद छोटी-छोटी घटनाओं को बड़ा बनाकर ऐसे पेश किया गया मानो यहां ईसाइयों के लिए दुर्दिन आ गए हो। इस दुष्प्रचार में भारत के साथ विश्व के अनेक संगठन तथा व्यक्ति शामिल हैं। अमेरिका जैसे देश से जारी होने वाले धार्मिक स्वतंत्रता की वार्षिक रिपोर्ट में भी इसकी आलोचना है।
कई देशों की मीडिया से संसद तक में आवाज उठी। भाजपा की राज्य सरकारों द्वारा धर्म परिवर्तन विरुद्ध बने और बनाये जा रहे कानूनों की भी विश्व भर के ईसाई संगठन आलोचना करते हैं। भले मोदी और पोप के बीच बातचीत का यह मुद्दा नहीं रहा हो लेकिन भारत ने राजनीयिक स्तर पर निश्चित रूप से वेटिकन को सच्चाई से अवगत कराया होगा। तो यह मानने में हर्ज नहीं है कि मोदी पोप मुलाकात से विरोधी दुष्प्रचार और आलोचना के स्वर धीमै और कमजोर होंगे।
यह भारत के हित में है। 1999 में पोप की यात्रा के दौरान भी भाजपा नेतृत्व वाली सरकार थी पर उस समय संघ परिवार के संगठनों सहित कई हिंदू संगठनों और व्यक्तियों ने विरोध किया था। भारत में धर्म परिवर्तन एक बड़ा मुद्दा है। वेटिकन धर्म परिवर्तन को मान्यता देता है। अलग-अलग क्षेत्रों में और कई बार देश स्तर पर भी धर्म परिवर्तन की घटनाओं पर विरोध हम देखते रहे हैं।
अभी तक इन संगठनों की ओर से किसी तरह की विरोधी प्रतिक्रिया नहीं आई है। इसका मतलब यह है कि पोप फ्रांसिस की यात्रा बिना बड़े विरोध और बाधा के संपन्न हो जाएगी। धर्म परिवर्तन का विरोध करने में कोई हर्ज नहीं है लेकिन राजकीय यात्रा में मेहमान के साथ जिस तरह का सम्मानजनक व्यवहार होना चाहिए वही व्यवहार होगा ऐसी उम्मीद की जा सकती है। हां इसमें सरकार की ओर से बुद्धिमत्ता पूर्वक यह संदेश अवश्य निकलना चाहिए की पॉप का सम्मान करते हुए भी भारत लोभ, लालच या बल से धर्म परिवर्तन के विरुद्ध है।
(आलेख में व्यक्त विचार लेखक के निजी अनुभव हैं, वेबदुनिया का इससे कोई संबंध नहीं है।)