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आया राम, गया राम सिद्धांत के विपरीत है एक देश, एक चुनाव

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गिरीश पांडेय

One nation, one election: एक देश, एक चुनाव। मैं निजी रूप से इसका विरोधी हूं। मेरे जैसे और भी होंगे। निठल्ले तो हरगिज ही इसे स्वीकार नहीं करेंगे। क्योंकि, चुनाव लोकतंत्र का सबसे बड़ा उत्सव है और हम एक उत्सव प्रेमी देश के बाशिंदे हैं। लिहाजा साल भर देश के किसी न किसी हिस्से में चुनाव का यह उत्सव जारी ही रहना चाहिए।
 
एक साथ चुनाव हुए तो सर्वाधिक नुकसान झूठ का होगा : एक साथ चुनाव होने से सालाना चलने वाला चुनावी उत्सव बेमजा हो जाएगा। और भी ढेर सारे नुकसान संभव हैं। मसलन, चुनाव ही एक ऐसा अवसर है जब सर्वाधिक झूठ बोला जाता है। एक साथ चुनाव होने पर झूठ के इस विस्तार पर लगाम लगेगी। जिनके मुंह में खुजली है वे बेचारे क्या करेंगे। आदतन जिन बेचारों की हर चुनाव से पहले दल बदलने की आदत है, उनके बारे में भी सोचना चाहिए। यह राजनीति में बेहद मजबूती से स्थापित हो चुके, 'आया राम, गया राम' सिद्धांत के विपरीत है।
 
रोजगार के संकट के दौर में बेरोजगारी भी बढ़ेगी : एक साथ चुनाव होने पर वोटों के कथित सौदागर एक लंबे अर्से के लिए बेरोजगार हो जाएंगे। बेरोजगार तो वो बेचारे भी हो जाएंगे जिनको चुनाव के दौरान दारू-मुर्गा के साथ कुछ नकदी भी मिल जाती है। बेरोजगारी की समस्या को देखते हुए भी, इस मुद्दे पर एक बार फिर से सोचने की जरूरत है। 
 
चाय, पान की दुकानों तथा सार्वजनिक परिवहन में चुनाव को लेकर होने वाली बहसों और कभी-कभी इस दौरान होने वाले दंगल के दुर्लभ दृश्यों से भी हम वंचित हो जाएंगे। बड़ी-बड़ी गाड़ियों से लेकर खादी, झंडा, बैनर, पोस्टर, डीजल, पेट्रोल की बिक्री प्रभावित होने से संबंधित उद्योगों और देश की अर्थव्यवस्था पर बुरा असर पड़ेगा। यह देश को दुनिया की तीसरी बड़ी अर्थव्यवस्था बनाने में बैरियर का काम करेगा। यही नहीं, नई पीढ़ी को यह जानकर अफसोस होगा कि हमारे बुजुर्गों ने खुद तो साल भर चुनावी जश्न का मजा लिया और हमें इससे वंचित कर दिया। (यह लेखक के अपने विचार हैं, वेबदुनिया का इनसे सहमत होना जरूरी नहीं है)

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