डॉ.
एआईएमआईएम (ऑल इंडिया मजलिस ए एतिहाद उल मुसलमीन) के नेता असदुद्दीन ओवैसी ने एक बार फिर राममंदिर के विरुद्ध स्वर मुखर करने का असफल प्रयत्न किया है।
ओवैसी परतंत्र भारत में बनी उस राजनीतिक पार्टी के वर्तमान अध्यक्ष हैं जो धर्म की एकांकी छद्म राजनीति पर टिकी है, जिसमें भारतीयता अथवा संपूर्ण भारतीय समाज के लिए कोई स्थान नहीं है, जो भारतीय संविधान की मूल भावना ‘हम भारत के लोग’ के स्थान पर अलिखित समूह बोध ‘हम भारत के मुसलमान’ की संकीर्ण मानसिकता से ग्रस्त है और स्वयं को सभी भारतीय मुस्लिम नागरिकों की स्वयंभू प्रतिनिधि समझती है।
वस्तुतः यह मुस्लिम लीग की पाकिस्तान बनवा लेने वाली अलगाववादी-विभाजनकारी मानसिकता की विषवल्लरी है जो स्वतंत्र भारत में तुष्टीकरण का खाद-पानी प्राप्त कर भारतीय समाज को विघटित और विषाक्त करने के लिए पुनः सक्रिय है।
इस दल के नेताओं के उत्तेजक बयान इसी ओर संकेत करते हैं। साल 2014 से पूर्व तक भारतीय राजनीति से जीवनशक्ति अर्जित करने वाली इस दल की कूट योजनाएं केंद्र में भाजपा की प्रतिष्ठा के साथ ही बाधित हुई हैं। इसलिए इस दल के नेतृत्व में बौखलाहट स्वाभाविक है। केंद्र में कांग्रेसी सरकारों का प्रायः समर्थन करने वाला यह दल भाजपा सरकार के प्रत्येक कार्य पर उंगली उठाता रहा है।
कश्मीर में आतंकवादी संगठनों पर लगाम कसने, धारा 370 हटाने, पाकिस्तान के विरुद्ध सर्जिकल एवं एयर स्ट्राइक होने, राम मंदिर के पक्ष में उच्चतम न्यायालय का निर्णय आने से लेकर अब राममंदिर की नींव रखे जाने तक ओवैसी निरंतर केंद्र सरकार पर प्रहार कर रहे हैं।
यहां तक कि जब लगभग सभी मुस्लिम संगठनों ने उच्चतम न्यायालय के निर्णय को पूरे अथवा आधे-अधूरे मन से स्वीकार कर विवाद समाप्त कर दिया है और देश के बहुसंख्यक समाज के साथ चलने का मन बना लिया है तब भी ओवैसी उच्च न्यायालय के निर्णय पर असंतोष और अविश्वास प्रकट करते हुए आग लगाने के कुटिल प्रयत्नों में व्यस्त हैं।
न्यायालय, संविधान और सरकार ओवैसी और उनके समर्थकों को तब ही तक मान्य हैं जब तक इन संस्थाओं के कार्य उनके मनोनुकूल हों। अपनी दुरभिलाषाओं और स्वार्थों के विरुद्ध कोई भी कार्य अथवा निर्णय उन्हें कभी स्वीकार्य नहीं। यह पृथक्तावादी मानसिकता देश की एकता, अखंडता और सांप्रदायिक-समरसता के विरुद्ध है। यह अलग बात है कि उनकी यही मानसिकता कट्टर मुस्लिमों के बीच उनकी लोकप्रियता का आधार है; उनकी शक्ति है और उनके भारतीय राजनीति में बने रहने का सुगम राजपथ है।
भारतवर्ष में अमीर खुसरो और जायसी से लेकर नजीर अकबराबादी एवं अकबर इलाहाबादी तक, हुमायूं और दाराशिकोह से लेकर आज की राजनीति में सक्रिय अनेक मुस्लिम नेताओं तक ऐसे मुस्लिम बंधुओं की कोई कमी नहीं है जो भारतीय समाज में रच बस कर जीना जानते हैं; जीना चाहते हैं किंतु देश के दुर्भाग्य से मध्यकाल से लेकर आज तक इस देश की राजनीति में हिंदुओं ने उदारवादी मुस्लिमों के स्थान पर कट्टर कठमुल्लाओं को ही सिर पर बैठाया।
उदारवादी दाराशिकोह के स्थान पर कट्टरपंथी औरंगजेब को सत्ता दिलाई। अकबर इलाहाबादी जैसे उदार शायर को हाशिए पर धकेल कर पाकिस्तान के विचार को आधार देने वाले इकबाल को महत्व दिया। कट्टरता के पोषण की यही भयानक भूल भारतीय-समाज में जब-तब सांप्रदायिक दंगों की आग भड़काती है और कश्मीर घाटी से हिंदुओं को पलायन पर विवश करती है। कितने दुख और आश्चर्य का विषय है कि राज्य और केंद्र की सरकारें देखती रह जाती हैं और हत्या, बलात्कार लूट-पाट करके कश्मीरी पंडितों को उनके मूल स्थान से विस्थापित करने वालों के विरुद्ध एक भी अभियोग कहीं दर्ज नहीं होता; एक भी अपराधी को सजा नहीं मिलती। देश की धर्मनिरपेक्ष संवैधानिक सरकार और विश्व के बड़े-बड़े मानवाधिकारवादी संगठन मूक दृष्टा बने रहते हैं। आखिर क्यों? यह प्रश्न आज भी अनुत्तरित है।
एक विवादित ढांचा ढहाए जाने पर श्रीमान असदुद्दीन ओवैसी को अपार कष्ट होता है किंतु भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश में किसी मंदिर, गुरुद्वारे, चर्च आदि के तोड़े जाने पर वे कभी कोई आपत्ति दर्ज नहीं कराते। आखिर क्यों ? कल्पना कीजिए जब एक विवादित ढांचा ढह जाने पर ओवैसी और दाऊद जैसों को इतनी पीड़ा पहुंचती है तो बिगत 800 वर्षों में इस देश के 3000 से अधिक मंदिरों को ढहाए जाने और उन पर मस्जिदें खड़ी किए जाने से धर्मप्राण हिंदू कितनी पीड़ा हृदय में दबाएं हैं। राजा जयचन्द, मानसिंह और जयसिंह जैसी मानसिकता वाले लोगों को भले ही कोई कष्ट न हो किन्तु महाराणाप्रताप, शिवाजी और गुरू गोविन्द सिंह जैसे वलिदानी एवं संघर्षशील वीरों के वंशज तो निश्चित रूप से पीड़ित हैं।
सामान्यतः मंदिर अथवा मस्जिद में कोई भेद नहीं। दोनों ईश्वर की आराधना के ही स्थल हैं किंतु जब किसी मंदिर को विजेता भाव से ढहाकर, उसमें स्थापित-पूजित मूर्तियों को तोड़कर अस्मिता और आस्था पर आघात किया जाता है तब वह स्वाभिमान को आहत कर कसक बनकर बार-बार उभरता है और बलपूर्वक अधिकृत की गई संपदा की पुनः प्राप्ति तक अनंत संघर्ष की प्रेरणा देता है। राममंदिर की संघर्ष-कथा इसी विजय की गौरवशाली बलिदान-गाथा है।
इतिहास के लिखित और पुरातात्विक तथ्यों से तर्क-कुतर्क का अनंत विवाद खड़ा किया जा सकता है किंतु इस निर्दय सत्य को अस्वीकृत नहीं किया जा सकता कि सशस्त्र सैन्य-बल के सहारे भारत में इस्लाम का विस्तार करने वालों ने यहां के मंदिर ध्वस्त किए; मूर्तियां तोड़ीं।
महमूद गजनबी द्वारा सोमनाथ का ध्वंस किए जाने के 1000 वर्ष बाद आज भी पाकिस्तान और बांग्लादेश में मंदिर-गुरुद्वारे तोड़े जाते हैं। भारत में धर्मनिरपेक्ष शासन की छाया में भी सांप्रदायिक दंगों के समय मूर्तियों और मंदिरों पर आक्रमण होते हैं। अतः अतीत और वर्तमान के इन कटु अनुभवों के आलोक और विवादित ढांचे के नीचे खुदाई में मिले मंदिर के अवशेषों-मूर्तियों से यह स्पष्ट हो जाता है कि वह विवादित ढांचा मंदिर के स्थान पर स्थित था और मंदिर की सामग्री से निर्मित भी था। उच्चतम न्यायालय ने भी अनेक साक्ष्यों के आधार पर इसीलिए मंदिर-निर्माण के पक्ष में निर्णय दिया है किन्तु ओवैसी इन तथ्यों पर विचार कर वस्तुस्थिति को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं हैं और किसी नये संघर्ष की जमीन तैयार करने में व्यस्त हैं। उनका यह व्यवहार भारतीय समाज के लिए दुर्भाग्यपूर्ण है।
ओवैसी बार-बार कहते हैं कि वे सदा याद रखेंगे कि राममंदिर वाली भूमि पर 400 वर्ष से मस्जिद थी जिसे गिराकर मंदिर बनाया जा रहा है। वे यह बात अपनी आने वाली पीढ़ियों को भी बताएंगे ताकि इस संघर्ष को अनंत काल तक जीवित रखा जा सके। अब जातीय-स्मृति कि यह विरासत यदि हिंदुओं ने भी अपनी स्मृति में पीढ़ी-दर-पीढ़ी सुरक्षित रखकर अगर उच्चतम न्यायालय से अपनी भूमि वापस प्राप्त कर ली है तो इसमें बुराई ही क्या है?
रामजन्मभूमि-निर्णय के उपरांत विवाद शांत हुआ है।
एक बार फिर सांप्रदायिक सद्भाव का अवसर बना है किंतु यदि इस्लामिक कट्टरता पुनः रस में विष घोलने का पाप करेगी तो परिणाम निश्चय ही भयावह होंगे। अब यह समझ लेना अत्यावश्यक है कि आज की परिस्थितियां मध्यकाल से भिन्न हैं। अब कोई गजनबी, कोई बाबर अथवा औरंगजेब सशस्त्र सैन्यबल के सहारे किसी धर्मस्थल का ध्वंस नहीं कर सकता। किसी की चुराई या छीनी हुई वस्तु को यदि उसका वास्तविक स्वामी उसे किसी प्रकार पुनः प्राप्त कर ले तो चोर-लुटेरे को मलाल नहीं होना चाहिए। उसे यह विचार करके संतोष रखना चाहिए कि वह वस्तु तो उसकी थी ही नहीं। जिसकी थी उसके पास वापस चली गई। इसमें दुख कैसा?
(लेखक शासकीय नर्मदा स्नातकोत्तर महाविद्यालय होशंगाबाद में हिंदी के विभागाध्यक्ष हैं।)
(इस लेख में अभिव्यक्त विचार लेखक की निजी अनुभूति है, वेबदुनिया का इससे कोई संबंध नहीं है।)