राम नाईक : सक्रियता के ढाई साल

डॉ. दिलीप अग्निहोत्री
उत्तर प्रदेश के राज्यपाल राम नाईक ने अपने कार्यकाल का आधा सफर पूरा किया। इस दौरान वे अपनी चिरपरिचित शैली में लगातार सक्रिय बने रहे। जवाबदेही और पारदर्शिता के साथ अपने संवैधानिक दायित्वों का निर्वाह करते रहे। इसी के साथ रिपोर्ट कार्ड जारी करने कि अपनी परंपरा भी बनाए रखी। छह महीने पहले उन्होंने राजभवन में राम नाईक के नाम से पत्रिका जारी की थी।
 
उन्होंने  उसके बाद  की अवधि का रिपोर्ट कार्ड जारी किया। राम नाईक का यह अंदाज अब सभी लोग जानते हैं, खासतौर पर सार्वजानिक जीवन के लोगों के लिए यह मिसाल भी है। वे तीन बार विधायक और पांच बार लोकसभा सदस्य निर्वाचित हुए, केन्द्र में मंत्री बने, विपक्ष में रहे, सभी दायित्वों में रिपोर्ट कार्ड करना नहीं भूलते थे। एक समय था जब उनके पास कोई दायित्व नहीं था,  तब भी उन्‍होंने सार्वजनिक जीवन पर रिपोर्ट कार्ड जारी किया। राज्यपाल के रूप में भी इस परंपरा को छोड़ा नहीं।
 
यह एक मनोवैज्ञानिक तथ्य है। जो व्यक्ति अपना रिपोर्ट कार्ड जारी करता है। वह अपने नियत दायित्वों के निर्वाह के प्रति भी जागरूक रहता है। यह बात राम नाईक के रिपोर्ट कार्ड से प्रभावित होती है। राज्यपाल प्रदेश का संवैधानिक प्रमुख होता है। प्रदेश शासन का वास्तविक संचालन मुख्यमंत्री व उसके मंत्रिमंडल के माध्यम से होता है। इस आधार पर राज्यपाल की भूमिका सीमित मानी जाती है। 
 
इस रूप में वह राष्ट्रपति, मंत्रिमंडल, विधायिका आदि से संबंधित औपचारिक दायित्वों का निर्वाह करता है किंतु राम नाईक ने इस दायरे में रहते हुए भी  यह दिखा दिया है कि राज्यपाल की भूमिका कम नहीं होती। संविधान में उल्लेखित शब्दों के साथ-साथ संविधान की भावना भी महत्वपूर्ण होती है। यह बात न्यायिक समीक्षा से प्रमाणित है। 
 
राम नाईक ने संविधान के शब्दों के साथ उसकी भावना को भी उतनी ही अहमियत दी। इसके निर्वाह में ही वह जागरूक व सक्रिय राज्यपाल दिखाई देते हैं। उच्च पदों पर आसीन व्यक्ति ईमानदारी से  अपने कार्यों के निर्वाह  की  शपथ लेते हैं। राज्यपाल इस मसले पर भी नियमित  ढंग  से  चल  सकता  है, लेकिन  राम नाईक  ने कई मामलों को अंजाम  तक पहुचाने में  अपने  प्रयासों में कसर  नहीं छोड़ी।
 
एक बसपा विधायक की  विधानसभा से सदस्यता रद्द होने के प्रकरण  का वह उल्लेख करते हैं। यह उत्तर प्रदेश  में अपने ढंग  का शायद  पहला उदाहरण है। जब एक नागरिक के द्वारा लगाए गए भ्रष्टाचार के आरोप पर  लोकायुक्त ने जांच की।  रसड़ा विधानसभा क्षेत्र के विधायक उमाशंकर सिंह  के प्रकरण पर इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने  28 मई, 2015 में भारत निर्वाचन आयोग को अंतिम निर्णय लेने हेतु अभिमत  देने को कहा। 
 
राज्यपाल  निर्वाचन आयोग के फैसले की प्रतिक्षा करते रहते हैं, तब भी उनका औपचारिक  दायित्व पूरा माना जा सकता  है। यह संविधान की भावना के अनुरूप नहीं होता। सक्रिय राज्यपाल ही ऐसा कर सकता है। राम नाईक ने निर्वाचन आयोग को पांच बार रिमाइंडर भेजे, दूरभाष पर बात की, तब जाकर 10 जनवरी, 2017 को भारत निर्वाचन आयोग से अभिमत प्राप्त हुआ। इसके चार दिन बाद ही राज्यपाल ने  उनकी सदस्यता 6 मार्च, 2012 से रद्द करने का फैसला लिया। 
 
वस्तुतः यह  एक विधायक  तक सीमित  मामला नहीं था। ऐसे प्रकरणों के दूरगामी प्रभाव होते हैं। भ्रष्ट लोगों को  संदेश मिलता है। एक सामान्य नागरिक की शिकायत  भी प्रजातंत्र में महत्व रखती है। यही तो संविधान निर्माता चाहते हैं। राम नाईक  ऐसी सक्रियता  न दिखाते  तो  इस विधानसभा में आरोपी विधायक अपना कार्यकाल  पूरा  कर सकते हैं। इस मामले में समय ये ज्यादा महत्वपूर्ण संदेश था। 
 
इसी प्रकार लोकायुक्त  के  प्रतिवेदन पर सरकार  की  निष्क्रियता को  भी राज्यपाल  ने गंभीरता से लिया। बतौर संवैधानिक  प्रमुख वह जितना  कर सकते थे, उसमें कसर नहीं छोड़ी। राम नाईक कहते भी हैं कि लोकायुक्त की जांच रिपोर्ट पर कार्यवाई न हो तो इस  संस्था का औचित्य ही समाप्त हो जाता है। इससे भ्रष्ट तत्वों का मनोबल भी बढ़ता है।
 
उत्तर प्रदेश लोकायुक्त  तथा उपलोकायुक्त  अधिनियम की धारा 12(7) के अंतर्गत 53 विशेष प्रतिवेदन उपलब्ध कराए गए। इनमें से मात्र दो विशेष प्रतिवेदनों पर राज्य सरकार द्वारा स्पष्टीकरण ज्ञापन उपलब्ध कराए गए। शेष 51 के संबंध में न तो स्पष्टीकरण ज्ञापन प्राप्त हुए, न ही विधान मंडल में इन्हें प्रस्तुत किए  जाने की सूचना प्राप्त हुई। राज्यपाल ने इस संबंध में मुख्यमंत्री को दो पत्र प्रेषित किए। सरकारी जमीनों पर अवैध कब्जों पर राज्य सरकार से श्वेत पत्र जारी करने को लिखा। इसी प्रकार राज्यपाल ने गाजियाबाद विकास प्राधिकरण के ऑडिट संबंधी मामलों में गंभीरता दिखाई। 
 
महालेखाकार (आर्थिक एवं राजस्व सेक्टर ऑडिट) उत्तर प्रदेश द्वारा 6 मई व 1 जून को पत्र प्रेषित किया गया था। इसमें अवगत कराया गया था कि राज्य सरकार द्वारा गाजियाबाद विकास  प्राधिकरण के व्यय एवं प्राप्तियों का ऑडिट किए जाने हेतु स्वीकृति प्रदान नहीं की जा रही है। इस संबंध में राज्यपाल ने मुख्यमंत्री को तीन  पत्र  लिखे। कोई कार्रवाई न होने पर राष्ट्रपति, केन्द्रीय गृहमंत्री, केन्द्रीय वित्तमंत्री को भी राम नाईक ने पत्र लिखे। 
 
जाहिर है कि आरोपियों को सजा दिलाने के प्रति राज्य सरकार ने  उदासीनता  दिखाई, लेकिन  राज्यपाल स्वयं इस  तरह का कोई  निष्कर्ष नहीं निकालते। वे जितना कर सकते थे। उन्होंने उसमें कसर नहीं छोड़ी। अब तो चुनाव हैं, ऐसे में फैसला मतदाताओं को करना है। राम नाईक  अधिक से अधिक मतदान का आह्वान अवश्य करते हैं। राज्यपाल  ने छह महीने  में इक्कीस विधेयकों पर अनुमोदन प्रदान किया। दो विधेयक समवर्ती सूची से संबंधित थे, इन्हें राष्ट्रपति को संदर्भित किया गया। इसमें एटा विश्वविधालय विधेयक की आपत्तियां राज्य सरकार ने दूर की है। 
 
अतः विधेयक की वापसी का राज्य सरकार ने राष्ट्रपति से अनुरोध किया है। उत्तर प्रदेश क्षेत्रीय पंचायत एवं जिला पंचायत (संशोधन) विधेयक 2016 विचाराधीन रहा है। अध्यादेश जारी  होने पर इसे राष्ट्रपति को संदर्भित किया गया। दो अन्य विधेयक प्रस्तावित  किए गए। राज्यपाल ने दया याचिकाओं पर नियम के साथ-साथ मानवता से फैसले लिए 188 बंदी रिहा हुए, इनमें से एक कैदी 105 वर्ष का है। राज्यपाल द्वारा राष्ट्रपति को मासिक प्रतिवेदन समय पर भेजे जाते रहे। 
 
विश्वविधालयों में बड़े सुधार हुए, तीन नए कुलपति नामित हुए। दस विश्वविधालयों के दीक्षांत समारोह  हो चुके। शेष चौदह के मार्च तक होंगे। राज्यपाल ग्यारह संस्थाओं के पदेन अध्यक्ष होते है। राम नाईक के प्रयासों से इनमें अभूतपूर्व सक्रियता दिखाई देने लगी  है। उनकी पुस्तक 'चरैवेति' भी चर्चा में रही।
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