सचिन पायलट का विद्रोह तो वास्तव में राहुल के ख़िलाफ़ है!

श्रवण गर्ग
मंगलवार, 14 जुलाई 2020 (22:24 IST)
राहुल गांधी केवल सवाल पूछते हैं! प्रधानमंत्री से, भाजपा से; पर अपनी ही पार्टी के लोगों के द्वारा खड़े किए जाने वाले प्रश्नों के जवाब नहीं देते। राहुल न तो कांग्रेस के अब अध्यक्ष हैं और न ही संसद में कांग्रेस दल के नेता। वे इसके बावजूद भी सवाल पूछते रहते हैं और प्रधानमंत्री से उत्तर की मांग भी करते रहते हैं।
 
कई बार तो वे पार्टी में ही अपने स्वयं के द्वारा खड़े किए जाने वाले सवालों के जवाब भी नहीं देते और उन्हें अधर में ही लटकता हुआ छोड़ देते हैं। मसलन, लोकसभा चुनावों में पार्टी के सफ़ाये के लिए उन्होंने नाम लेकर जिन प्रमुख नेताओं के पुत्र-मोह को दोष दिया था उनमें एक राजस्थान के और दूसरे मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री भी थे। क्या हुआ उसके बाद? अशोक गेहलोत भी बने रहे और कमलनाथ भी। जो पहले चले गए वे ज्योतिरादित्य सिंधिया थे और अब जो लगभग जा ही चुके हैं वे सचिन पायलट हैं।
 
इसे अतिरंजित प्रचार माना जा सकता है कि सचिन की समस्या केवल गेहलोत को ही लेकर है। उनकी समस्या शायद राहुल गांधी को लेकर ज़्यादा बड़ी है। राहुल का कम्फ़र्ट लेवल या तो अपनी टीम के उन युवा साथियों के साथ है जिनकी कि कोई राजनीतिक महत्वाकांक्षाएं नहीं हैं या फिर उन सीनियर नेताओं से है जो कहीं और नहीं जा सकते। क्या ऐसे भी किसी ड्रामे की कल्पना की जा सकती थी जिसमें सचिन की छह महीने से चल रही कथित ‘साज़िश’ से नाराज़ होकर गहलोत घोषणा करते कि वे अपने समर्थकों के साथ पार्टी छोड़ रहे हैं? वैसी स्थिति में क्या भाजपा गेहलोत को अपने साथ लेने को तैयार हो जाती?
 
हक़ीक़त यह है कि जिन विधायकों का इस समय गहलोत को समर्थन प्राप्त है उनमें अधिकांश कांग्रेस पार्टी के साथ हैं और जो छोड़कर जा रहे हैं वे सचिन के विधायक हैं। यही स्थिति मध्यप्रदेश में भी थी। जो छोड़कर भाजपा में गए उनकी गिनती आज भी सिंधिया खेमे के लोगों के रूप में होती है, ख़ालिस भाजपा कार्यकर्ताओं की तरह नहीं।
सवाल यह भी है कि कांग्रेस पार्टी को अगर ऐसे ही चलना है तो फिर राहुल गांधी किसकी ताक़त के बल पर नरेंद्र मोदी सरकार को चुनौती देना चाह रहे हैं? वे अगर भाजपा पर देश में प्रजातंत्र को ख़त्म करने का आरोप लगाते हैं तो उन्हें इस बात का दोष भी अपने सिर पर ढोना पड़ेगा कि अब जिन गिने-चुने राज्यों में कांग्रेस की जो सरकारें बची हैं वे उन्हें भी हाथों से फिसलने दे रहे हैं। नए लोग आ नहीं रहे हैं और जो जा रहे हैं उनके लिए शोक की कोई बैठकें नहीं आयोजित हो रही हैं। असंतुष्ट नेताओं में सचिन और सिंधिया के साथ-साथ मिलिंद देवड़ा, जितिन प्रसाद, प्रियंका चतुर्वेदी और संजय झा की भी गिनती की जा सकती है।
 
गोवा तब कैसे हाथ से निकल गया उसकी चर्चा न करें तो भी देखते ही देखते मध्यप्रदेश चला गया, अब राजस्थान संकट में है। महाराष्ट्र को फ़िलहाल कोरोना बचाए हुए है। छत्तीसगढ़ सरकार को गिराने का काम ज़ोरों पर है। संकट राजस्थान का हो या मध्यप्रदेश का, यह सब बाहर से पारदर्शी दिखने वाली पर अंदर से पूरी तरह साउंड-प्रूफ़ उस दीवार की उपज है जो गांधी परिवार और असंतुष्ट युवा नेताओं के बीच तैनात है। इस राजनीतिक भूकम्प-रोधी दीवार को भेदकर पार्टी का कोई बड़े से बड़ा संकट और ऊंची से ऊंची आवाज़ भी पार नहीं कर पाती है।
 
पिछले साल लोकसभा के चुनाव परिणाम आने के बाद कश्मीर में पीडीपी की नेता महबूबा मुफ़्ती ने ट्वीट करते हुए ‘शुभकामना’ संदेश तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को भेजा था पर ‘कामना’ संदेश कांग्रेस के लिए था कि उसके पास भी एक ‘अमित शाह’ होना चाहिए। सवाल यह है कि गांधी परिवार या कांग्रेस में किसी अमित शाह को बर्दाश्त करने की गुंजाइश अभी बची है क्या? और राहुल गांधी इसलिए मोदी नहीं बन सकते हैं कि वे अपने अतीत और परिवार को लेकर सार्वजनिक रूप से उस तरह से गर्व करने में संकोच कर जाते हैं जिसे वर्तमान प्रधानमंत्री न सिर्फ़ सहजता से कर लेते हैं बल्कि उसे अपनी विजय का हथियार भी बना लेते हैं।
 
अर्नब गोस्वामी द्वारा पिछले लोकसभा चुनावों के समय अपने चैनल के लिए लिया गया वह चर्चित इंटरव्यू याद किया जा सकता है जिसमें राहुल गांधी ने कहा था : 'मैंने अपना परिवार नहीं चुना। मैंने नहीं कहा कि मुझे इसी परिवार में पैदा होना है। अब दो ही विकल्प हैं : या तो मैं सब कुछ छोड़कर हट जाऊं या फिर कुछ बदलने की कोशिश करूं।’ राहुल गांधी दोनों विकल्पों में से किसी एक पर भी काम नहीं कर पाए।
 
कई लोग सवाल कर रहे हैं कि एक ऐसे समय जबकि कांग्रेस पार्टी चारों तरफ़ से घोर संकट में है, क्या सचिन पायलट इस तरह से विद्रोह करके उसे और कमज़ोर नहीं कर रहे हैं? इसका जवाब निश्चित ही एक बड़ी ‘हां’ में ही होना चाहिए पर साथ में यह जोड़ते हुए कि इस नए धक्के के बाद अगर पार्टी नेतृत्व जाग जाता है तो उसे एक बड़ी उपलब्धि माना जाना चाहिए। हो सकता है इसके कारण वह भविष्य में हो सकने वाले दूसरे बहुत सारे नुक़सान से बच जाए। किसे पता सचिन यह विद्रोह वास्तव में कांग्रेस पार्टी को बचाने के लिए ही कर रहे हों! (इस लेख में व्यक्त विचार/विश्लेषण लेखक के निजी हैं। इसमें शामिल तथ्य तथा विचार/विश्लेषण 'वेबदुनिया' के नहीं हैं और 'वेबदुनिया' इसकी कोई ज़िम्मेदारी नहीं लेती है।)

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