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अबॉर्शन का अधिकार दुष्कर्म की शिकार लड़कियों के लिए राहत की बात

स्मृति आदित्य
सुप्रीम कोर्ट ने अबॉर्शन यानी गर्भपात पर एक बड़ा फैसला लिया है। इस फैसले के अनुसार अविवाहित महिला को 24 हफ्तों तक गर्भपात का अधिकार है। अदालत ने फैसले में कहा कि विवाहित हो या अविवाहित सभी महिलाओं को 24 हफ्तों तक गर्भपात का अधिकार है।
 
इस खबर के साथ ही खबरों की सतह पर तैर कर आती है चंडीगढ़ की 12 वर्ष की वह किशोरी जिसके साथ दुष्कर्म हुआ था। इस सदमे से वह उबर भी न सकी थी और वह गर्भवती हो गई। नन्ही सी उम्र में अनचाहे गर्भ ने उसे अजीब सी हालात में धकेल दिया लेकिन संघर्ष अभी थमा नहीं था। उसने गर्भपात की इजाजत मांगी लेकिन कोर्ट ने यह अपील नामंजूर कर दी थी, क्योंकि लड़की को गर्भवती हुए 34 हफ्ते से ज्यादा वक्त गुजर चुका था। ऐसी हालत में अबॉर्शन की इजाजत नहीं दी जा सकती। 
 
अबॉर्शन कराने की इजाजत न मिलने के बाद किशोरी ने पोस्ट ग्रैजुएट इंस्टीट्यूट ऑफ मेडिकल एजुकेशन एंड रिसर्च में एक बच्चे को जन्म दिया। इसके बाद की वह बात दिल चीर देने वाली थी कि वह मार्मिक गुहार लगाती रही कि कोई उसके बच्चे को गोद ले लें। क्योंकि उम्र और मानसिक स्थिति उसे इस बात की अनुमति नहीं देती कि वह एक बच्चे का पालन-पोषण कर सके।  
 
लड़की की इस मांग पर कोर्ट ने सेंट्रल एडॉप्टेशन रिसोर्स अथॉरिटी के अधिकारी से पूछा पर तब यह दुविधा थी कि असहमति से बने संबंध की वजह से पैदा हुए बच्चे के गोद लिए जाने के कई जटिल पहलू हैं जिन पर पहले ध्यान देना होगा। 
 
इस संदर्भ में तब एक सवाल सबके सामने था कि तलब किससे किया जाए? प्रकृति से, समाज से, कानून से, सरकार से, प्रशासन से, महिला आयोग से या अपने आप से? विकृति के हदें लांघती मानसिकता से या नैतिकता के स्तर पर दिन-दिन जर्जर होते इस देश के युवाओं से? 
 
यह कैसा कानून है, कैसी व्यवस्था है, कैसा न्याय है? जहां बलात्कार का आरोपी मा‍त्र कुछ साल सजा काटकर बरी है और कई बार तो सजा मिलने के इंतजार में बेफिक्र है और एक बच्ची है जो सामाजिक न्याय के अभाव में उस दंश को भोगने को विवश है जिसके लिए वह सीधे तौर पर जिम्मेदार नहीं है। उसका मात्र इतना ही दोष है कि वह स्त्री है। देर से ही सही कोर्ट का यह फैसला राहत देता नजर आ रहा है।  
 
मां, मातृत्व और शिशु का भीना अहसास हर स्त्री के लिए वरदान है और यही वरदान उस बच्ची के लिए अभिशाप बन गया था जिसके साथ छल से ये शब्द जोड़ दिए गए थे। एक पूरी की पूरी गहन गंभीर जिम्मेदारी। दोषी हर रूप में स्वतंत्र लेकिन दंड उन दो नि‍रीह प्राणी को मिला जिनका कोई दोष नहीं।
बच्ची का बचपन छीन गया और बच्चे का बचपन शुरू होने से पहले ही प्रश्नचिन्ह बन गया। बच्ची सारी उम्र बच्चे से जुड़े शर्मनाक हादसे को भूल नहीं सकी और बच्चा उत्तर देने की उम्र में आने से पहले ही सैकड़ों सवालों के घेरे में रहा। 
 
ना असमय बनी मां अपने बच्चे को दुलार कर पाई ना ही बच्चे का नैसर्गिक अधिकार उसे जन्म से मिल पाया। एक तरफ नियती की छलना थी, दूसरी तरफ समाज की वर्जना, एक तरफ नन्हा जीव अपनी अबोध कच्ची आंखों से दुनिया को टकटक देख रहा था और दूसरी तरफ वह नाजुक-सी मां जो इस दुनिया का घिनौना रूप देख रही थी। 
 
पहाड़ सी जिंदगी दोनों के सामने थी और असमंजस के बादल हर तरफ से मंडरा रहे थे टकरा रहे थे...परिस्थिति की भयावहता को सोच कर आंसू की बरसात भी खुल कर बरस नहीं सकी। 
 
ऐसी कितनी ही बालिकाएं भेंट चढ़ी हैं उस नियम के जो यह कहता था कि गर्भपात नहीं हो सकता। सोच, संवेदना और सहनशीलता के स्तर पर स्थिति की कल्पना भी मुश्किल है। क्या हम सोच पा रहे हैं कि कोमल सी भागने-दौड़ने की आयु में उस बच्ची ने पहले एक विकृति को झेला..फिर गर्भ के नौ माह के दौरान उसे सहेजा जिसके लिए उसका मानस और शरीर जरा तैयार नहीं था। फिर उस बच्चे के आते ही न्यायालय के समक्ष यह गुहार लगाना कि कोई उसके शिशु को गोद ले लें। वाकई पीड़ादायक और मर्मांतक था यह वाकया... 
 
 तब कानून ने बच्चे को दुनिया में न आने देने की गुहार नहीं सुनी...क्योंकि उसके चिकित्सकीय कारण थे लेकिन बच्चे को गोद देने की उसकी मांग पर भी उसका फैसला अपेक्षित नहीं रहा। 
 
अदालत से बच्ची की मार्मिक अपील के साथ बहुत स्वर शामिल थे कि कम से कम मामले के मानवीय पहलू नजरअंदाज न करें.. पर ऐसा कुछ हुआ नहीं..हमारे देश की जनता की स्मरण शक्ति बहुत कमजोर है, शायद ही किसी को चंडीगढ़ की वह कन्या याद हो....जो पहले चाहती थी कि गर्भपात की इजाजत मिल जाए फिर उसने चाहा कि कोई बच्चा गोद ले ले....इतने साल बाद वह बच्ची कहां है, किस अवस्था में है कोई नहीं जानता पर अदालत के इस फैसले से ऐसी अबोध कन्याओं को सहारा मिलेगा.... इस कानून की आड़ में स्वच्छंदता को पंख न मिले, इस पर चर्चा बाद में....फिलहाल अदालत की संवेदनशीलता से मानवीय संदेश समाज में जाएगा... ऐसी हम उम्मीद करें।  

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