मुझे ‘बोन्साई’ से नफरत है घृणा की हद तक। हम गमलों में बरगद व उसके जैसे कई पेड़ उगा रहे। मनमानी से उनकी जड़ों को काट रहे, तारों से मोड़ रहे, उन्हें उन्नत कर रहे, वो फल-फूल तक दे डालते हैं बेचारे, मासूम, लचर, बेबस पर बस नहीं जी पाते तो अपना नैसर्गिक जीवन। प्रकृति से कट कर, अपने अस्तित्व को खत्म कर नकारते हुए।
बंधने का दर्द क्या होता है, जकड़ने की तकलीफ को बयां न कर पाने का कष्ट, जमीं पर स्वच्छंद फैलने और आसमानों को बाहों में भर लेने की चाह के दमन की पीड़ा कभी खुद को ऐसा महसूस कर के देखिये। ऐसे ही हो चला है ये परिवार, समाज, देश। सब एक- दूसरे को ‘बोन्साई’ करने में लगे हुए हैं। रिश्तों से लेकर राष्ट्र तक। बिना प्रयास किये केवल आप नीचे गिर सकते हैं ऊपर नहीं उठ सकते यही गुरुत्वाकर्षण का नियम है और जीवन का भी। बस इसी प्रयास का आभाव निरंतर आत्म हंता बना रहा है।
‘कोई दिखाई न दे पर शामिल जरुर होता है, ख़ुदकुशी में भी कातिल जरुर होता है’
कातिल के रूप में हम सभी शामिल हैं। देश, समाज, कानून, शिक्षा, रोजगार, परिवार और थोथी मान्यताएं। इन सबसे बढ़ कर दिखावा, सफलता के बदलते मापदंड। सभी को ये ज्ञान है कि 'मृत्यु सत्य तभी है जब वो आपको अपनी आगोश में ले, न कि आप उसे अपनी आगोश में'
बावजूद इसके आत्महत्या से होने वाली मौतों में भारत का आनुपातिक योगदान बढ़ता जा रहा है। यहां का आंकड़ा महामारी की शक्ल अख्तियार किए हुए है। राष्ट्रीय स्तर पर हुए सैंपल सर्वे में ये बात सामने आई है, जिसको अंतिम रूप से 31 मार्च 2018 को तय की गई कमेटी में रखा गया।
अनुमान लगाया गया कि आत्महत्या की दर में 95 फीसद की बढ़ोत्तरी हुई है। इसके पीछे लैंगिक भेदभाव, यौन उत्पीड़न, यौन हिंसा के साथ सामाजिक जोखिम से पैदा अवसाद होना सामने आया है। उनकी आकांक्षा को नजरंदाज करना भी एक कारण है। गंभीर बात ये है कि बुजुर्गों में आत्महत्या के बारे में बहुत कुछ जाना ही नहीं जाता है, जबकि ये आंकड़ा लगातार बढ़ रहा है। डेटा मुहैया कराने में भारत भी गंभीर नहीं दिखता, जबकि आबादी के हिसाब से यह दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा देश है। ताजा आंकड़े या फिर पुराने आंकड़ों को लेकर कोई हिसाब किताब साफ ही नहीं है।
ऐसे में रोकथाम कैसे होगी, ये सवाल है। बहरहाल, भारत के हालात इस मामले में बहुत खराब हैं। पूरी दुनिया में शीर्ष 20 देशों में शुमार था और अब 21वें नंबर पर है। यहां से बेहतर स्थिति पड़ोसी देशों की है। डब्ल्यूएचओ की 2018 की रिपोर्ट के मुताबिक आत्महत्या की दर में श्रीलंका 29वें, भूटान 57वें, नेपाल 81वें, म्यांमार 94वें, चीन 69वें, बांग्लादेश 120वें और पाकिस्तान 169वें पायदान पर हैं। नेपाल और बांग्लादेश की स्थिति जस की तस है। भारत ने मामूली सुधार किया है। जबकि बाकी पड़ोसी देशों में हालात खराब हुए हैं। चीन इस मामले में बहुत खराब स्थिति में आया है, 103 से सीधे 69वें पायदान पर।
डब्ल्यूएचओ के मेंटल हेल्थ एटलस, 2017 मुताबिक, बहुत कम देशों में आत्महत्या से बचाव के लिए योजना या रणनीति तैयार की गई है जबकि हर साल दुनिया भर में करीब 8 लाख आत्महत्या कर रहे हैं। रिपोर्ट बताती है कि मानसिक स्वास्थ्य को लेकर कम ध्यान दिया जाता है और पूरी दुनिया में मानसिक रूप से सेहतमंद बने रहने के लिए कोई योजना नहीं है।
‘इन डरावनी स्थितियों को कम करने के लिये एवं आत्महत्या की बढ़ती घटनाओं पर नियंत्रण पाने के लिये विश्व आत्महत्या रोकथाम दिवस प्रतिवर्ष 10 सितंबर को मनाया जाता है, जिसे विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) के सहयोग से अंतर्राष्ट्रीय एसोसिएशन फॉर आत्महत्या रोकथाम (इंटरनेशनल एसोसिएशन फॉर सुसाइड प्रवेंशन-आईएएसपी) द्वारा आयोजित किया जाता है’
यह सब आज के अति भौतिकवादी एवं सुविधावादी युग की देन है। तकनीकी विकास ने मनुष्य को सुविधाएं तो दीं लेकिन उससे उसकी मानवीयता, संतुलन छीन लिया। उसे अधिक-से-अधिक मशीन में और कम से कम मानव में तब्दील कर दिया है। एडवर्ड डेह्लबर्ग कहते हैं- ‘जब कोई महसूस करता है कि उसकी जिन्दगी बेकार है तो वह या आत्महत्या करता है या यात्रा’
प्रश्न है कि लोग दूसरा रास्ता क्यों नहीं अपनाते? आत्महत्या ही क्यों करते हैं?
औद्योगीकरण तथा नगरीकरण में वृद्धि भी इसके कारण है। भौतिक मूल्यों के बढ़ते हुए प्रभाव ने सामाजिक सामंजस्य की नई समस्याओं को जन्म दिया है। लेकिन आत्महत्या किसी भी सभ्य एवं सुसंस्कृत समाज के भाल पर एक बदनुमा दाग है, कलंक हैं। टायन्बी ने सत्य कहा है कि ‘कोई भी संस्कृति आत्महत्या से मरती है, हत्या से नहीं’
फ्रांसिस थामसन ने कहा कि
‘अपने चरित्र में सुधार करने का प्रयास करते हुए, इस बात को समझें कि क्या काम आपके बूते का है और क्या आपके बूते से बाहर है’
इसका सीधा-सा अर्थ तो यही हुआ कि आज ज्यों-ज्यों विकास के नये कीर्तिमान स्थापित हो रहे हैं, त्यों-त्यों आदर्श धूल-धुसरित हो रहे हैं और मनुष्य आत्महंता होता रहा है।
नवउदारीकृत अर्थव्यवस्था ने हमारे सामाजिक और पारिवारिक ढांचे को जिस तरह चोट पहुंचाई है उससे देश में आत्महत्या की बीमारी ने महामारी का रूप ले लिया है। एक जनहित याचिका में आईपीसी धारा 309 को खत्म करने की मांग की गई थी। इस धारा के तहत आत्महत्या की कोशिश करने वाले व्यक्ति को एक साल की कैद या जुर्माना या दोनों सजा एक साथ हो सकती है।
उल्लेखनीय बात यह भी है कि तत्कालीन केंद्र सरकार के इस प्रयास का विभिन्न दलों और गठबंधनों वाली 25 राज्य सरकारों ने भी समर्थन किया था। यानी लोगों के आत्महत्या की राह आसान बनाने के सवाल पर देश में राजनीतिक स्तर पर आम सहमति है। चूंकि संविधान की समवर्ती सूची के तहत कानून-व्यवस्था का विषय राज्यों के अधिकार क्षेत्र में आता है, लिहाजा केंद्रीय गृह मंत्रालय ने इस बारे में सभी राज्य सरकारों से भी राय मांगी थी, जिस पर सिर्फ बिहार, मध्यप्रदेश और सिक्किम ने ही असहमति जताई थी, जबकि जम्मू-कश्मीर ने कहा था कि आईपीसी उसके यहां लागू नहीं होता।
आत्महत्या की कोशिश को अपराध न मानने वाली हमारी सरकारों की यह मानसिकता एक तरह से इस बात का सबूत है कि ‘हमारी समूची राजनीति किस कदर निर्मम और जनद्रोही हो चुकी है’
यशपाल ने अपनी कृति ‘झूठा सच’ में कहा है -‘जनता के प्रतिनिधित्व का अवसर स्वार्थी आदमियों के हाथ जाने देना राष्ट्रीय आत्महत्या है’ कितना सच और वर्तमान की व्याख्या करता हुआ है।
राष्ट्रीय अपराध रिकॉड्र्स ब्यूरो (एनसीआरबी) के तुलनात्मक आंकड़े भी बताते हैं कि भारत में आत्महत्या की दर विश्व आत्महत्या दर के मुकाबले बढ़ी है। आज भारत मे 37.8 फीसद आत्महत्या करने वाले लोग 30 वर्ष से भी कम उम्र के है। दूसरी ओर 44 वर्ष तक के लोगों में आत्महत्या की दर 71 फीसद तक बढ़ी है।
महात्मा गांधी ने अपनी आत्मकथा में स्वीकार किया-‘आत्म हत्या का विचार करना सरल है, आत्महत्या करना सरल नहीं’ ये गांधी के सपनों का रामराज्य देश भारत है जहां आत्महत्या का दंश अपने विकराल रूप के साथ फैला जा रहा है। आत्म हत्या का आवेश आंसुओं की शक्ति ले कर ही चढ़ता है। इंतजाम होने चाहिए कि आंसुओं को रोका जाए इससे पहले कि ये सैलाब बन दुनिया, सृष्टि, संस्कृति का नामो निशान मिटा दें। जहां आत्म-सृजन नहीं वहीं आत्म-घात है। अपनों को सृजनात्मक बनने दीजिये... बनाइये।
सिखाइए उन्हें कि-
मिली जो देह उसका घात करना, महा पातक वपु का पात करना।
सहो कांटे कि डर यह फूल होवे, सहो यह दुःख कि विधि अनुकूल होवे।
आत्महत्या पाप है, जघन्यतम अपराध भी और उससे भी बढ़ कर ईश्वर का अपमान।
(नोट: इस लेख में व्यक्त विचार लेखक की निजी अभिव्यक्ति है। वेबदुनिया का इससे कोई संबंध नहीं है।