बहस तो भाजपा के भविष्य को लेकर होना चाहिए?

श्रवण गर्ग
हिन्दी भाषी तीन राज्यों में कांग्रेस को शिकस्त देने के तत्काल बाद प्रधानमंत्री के ‘मार्गदर्शन’ में जिस तरह मुख्यमंत्रियों की नियुक्तियों कीं गईं और स्थापित पार्टी-नेताओं को निस्तेज साबित कर हाशियों पर पटका गया, विपक्षी दलों के इंडिया गठबंधन के लिए गंभीर चेतावनी है। विपक्षी गठबंधन की छह दिसंबर की बैठक का कुछ नेताओं द्वारा कथित तौर पर ‘बहिष्कार’ करने की खबरों के बाद से कुछ राजनीतिक समीक्षक चिंता ज़ाहिर करने लगे थे कि एकता के प्रयासों में दरार पड़ गई है। 
 
कांग्रेस की पराजय पर हो रही आलोचना में दो तरह की अटकलें तलाशी जा सकतीं हैं : पहली यह कि तीन दिसंबर के नतीजों के बाद से मोदी ज़्यादा ताकतवर हो गए हैं। दूसरी यह कि प्रधानमंत्री द्वारा करार दिया गया ‘घमंडिया गठबंधन’ ज़्यादा दिन चलने वाला नहीं है।
 
‘इंडिया’ गठबंधन को अग्रिम श्रद्धांजलि देने को उत्सुक आलोचकों का समूह इसके लिए राहुल गांधी की बलि लेना चाहता है।आलोचकों में बड़ी संख्या उन लोगों की है जो ऐतिहासिक ‘भारत जोड़ो यात्रा’ के दौरान राहुल की शान में क़सीदे पढ़ रहे थे और कर्नाटक जीत में देशव्यापी परिवर्तन की सूनामी ढूँढ़ रहे थे। 
 
दो साल पहले पश्चिम बंगाल में हुए चुनावों में तृणमूल की विजय के बाद पंजाब में ‘आप’ और हिमाचल, कर्नाटक, तेलंगाना में कांग्रेस की जीत पर आलोचकों के बीच सुगबुगाहट भी नहीं हुई कि लोकसभा चुनावों में भाजपा को किसी संकट का सामना भी करना पड़ सकता है।
 
हक़ीक़त यह है कि 2014 और 2019 की तुलना में न सिर्फ़ एनडीए कमज़ोर ही हुआ है, इस बात का अनुमान लगाना भी कठिन हो रहा है कि सत्ता में वापसी के लिए भाजपा 272 सीटों के बहुमत का आँकड़ा किन राज्यों से जुटाने वाली है? आश्चर्यजनक रूप से 2024 के लिए भाजपा का नारा तो यह है कि ‘अब की बार 400 पार’। ऐसा है तो फिर उसके 2029 के लिए नारे की कल्पना भी अभी से की जा सकती है!
 
सवाल यह है कि भाजपा को 2019 में मिली 303 सीटों में शामिल महाराष्ट्र, बिहार और कर्नाटक से प्राप्त 65 सीटों का सहारा क्या क़ायम रहेगा? भाजपा ने पिछला चुनाव उद्धव की शिवसेना और नीतीश के जद(यू) के साथ लड़ा था। वर्तमान में दोनों साथ नहीं हैं। कर्नाटक में अब सरकार कांग्रेस की है।
 
महुआ मोइत्रा के ख़िलाफ़ कार्रवाई के बाद भाजपा पश्चिम बंगाल में 2019 की अपनी 18 सीटों में से कितनी बचा पाएगी? उसकी तेलंगाना की चार, हिमाचल की चार और झारखंड की ग्यारह सीटों का भविष्य क्या होगा जहां अब विपक्ष की सरकारें हैं? जिन तीन राज्यों (मध्यप्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़) में भाजपा की हाल में जीत हुई है वहाँ की 65 में से 61 सीटें तो उसके पास पहले से हैं। विधानसभा परिणामों से आहत कांग्रेस क्या उनमें कोई सेंध नहीं लगा पाएगी?
 
पूछा जाना चाहिए कि भाजपा अगर 2024 को लेकर चिंतित नहीं है तो इतनी बड़ी संख्या में सांसदों को विधानसभा चुनाव क्यों लड़वाए गए और संसद से इस्तीफ़े क्यों करवाए गए? इस मुद्दे पर चुप्पी क्यों है कि केंद्रीय मंत्री और सांसद विधानसभा चुनाव हार गए? पूरे देश ने देखा कि तीन दिसंबर को नतीजे प्राप्त हो जाने के सात दिन बाद पहले मुख्यमंत्री के नाम की घोषणा दस दिसंबर को छत्तीसगढ़ के लिए की गई। कोई तो कारण रहा होगा?
 
प्रथम दृष्टया तो यही समझ में आता है कि भाजपा राज्यों के स्थापित क्षत्रपों ने पार्टी आलाकमान की सत्ता को चुनौती देना प्रारंभ कर दिया है। 11 दिसंबर को मध्य प्रदेश के नए मुख्यमंत्री के नाम की नाटकीय अन्दाज़ में घोषणा के पहले और बाद में भी शिवराज सिंह भोपाल में और उसके अगले दिन जयपुर में वसुंधरा राजे जिस अन्दाज़ में पेश आईं उसमें आने वाले दिनों की टोह ली जा सकती है!
 
छुपी बात नहीं कि जिस एक व्यक्ति को मध्यप्रदेश में भाजपा की जीत का श्रेय जाता है उसकी न सिर्फ़ चुनाव प्रचार के दौरान घोर उपेक्षा की गई, उसके उत्तराधिकारी के चयन में भी दूरी और गोपनीयता बनाकर रखी गई। शिवराज प्रतीक्षा करते रह गए होंगे कि कम से कम एक बुलावा तो दिल्ली से आएगा! ऐसा तो कुछ नहीं हुआ बल्कि उनके मंत्रिमंडल के ही एक सदस्य का नाम मुख्यमंत्री पद के लिए प्रस्तावित करने की ज़िम्मेदारी उन्हें सौंप दी गई।
 
अब लाड़ली बहनें शिवराज सिंह से लिपट-लिपटकर विलाप कर रहीं हैं : ‘हमने तो आपको चुना है!’ उन्हें कौन जवाब देगा? मोहन यादव तो नहीं दे पाएँगे! पार्टी शायद मानकर चल रही है कि शिवराज सिंह और वसुंधरा राजे आदि नेताओं का राज्यों में काम पूरा हो गया है और उनकी ज़रूरत नहीं बची है! केवल प्रधानमंत्री के तिलिस्म के दम पर ही पार्टी लोकसभा में बहुमत का आँकड़ा पार करना चाहती है!
 
वे तमाम आलोचक जो इंडिया गठबंधन में मतभेदों की दरारें तलाश रहे हैं इस सचाई की तह में भी जा सकते हैं कि क्या प्रधानमंत्री का जादुई तिलिस्म अब कमज़ोर पड़ने लगा है? क्या मतदाताओं ने उनके कहे को नज़रअंदाज़ करना प्रारंभ कर दिया है? इसका संकेत प्रधानमंत्री द्वारा बाड़मेर के बायतु में दिए गए चुनावी भाषण से प्राप्त परिणामों में तलाशा जा सकता है!
 
बायतु के अपने बहुचर्चित भाषण में मोदी ने मतदाताओं का आह्वान किया था कि वे कमल के बटन को ऐसे दबाएँ जैसे (कांग्रेस को) फाँसी दे रहे हों। इशारा साफ़ था। परिणामों में क्या हुआ? भाजपा उम्मीदवार तीसरे नंबर पर रहा। बायतु में जीत कांग्रेस की हुई। ऐसे ही नतीजे राजस्थान के तारानगर, पीलीबंगा, हनुमानगढ़, सूरतगढ़, झुंझूनू आदि स्थानों की सभाओं के बाद निकले। हनुमानगढ़ में निर्दलीय की और बाक़ी सभी जगह कांग्रेस की जीत हुई।
 
इंडिया गठबंधन में पड़ी कथित दरारों का संबंध भाजपा से मुक़ाबले को लेकर नहीं बल्कि सीटों के सम्मानजनक बँटवारे से है। न ही कोई दल गठबंधन को छोड़कर गया है। पूछा जा सकता है कि तीन महत्वपूर्ण राज्यों में इतनी बड़ी जीत के बाद एनडीए के साथ कितने दल और जुड़ गए? कोई भी क्यों नहीं जुड़ा?
 
मध्यप्रदेश और राजस्थान में पहले टिकटों के बंटवारे फिर मुख्यमंत्री-चयन को लेकर जो अंदरूनी संघर्ष प्रकट हुआ उसे अगर नज़रअंदाज़ नहीं करना हो तो असली बहस तो भाजपा और एनडीए के भविष्य को लेकर होना चाहिए! शिवराज सिंह ने तो भोपाल में संकेत दे दिए हैं : मर जाऊँगा पर काम माँगने दिल्ली नहीं जाऊँगा। देखना यह है कि भजनलाल शर्मा द्वारा शपथ ले लेने के बाद वसुंधरा राजे जयपुर में क्या करने वाली हैं? लोकसभा चुनावों के लिए भाजपा के पास भी ज़्यादा वक्त नहीं बचा है!
(इस लेख में व्यक्त विचार/ विश्लेषण लेखक के निजी हैं। इसमें शामिल तथ्य तथा विचार/ विश्लेषण वेबदुनिया के नहीं हैं और वेबदुनिया इसकी कोई जिम्मेदारी नहीं लेती है।)

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