Select Your Language

Notifications

webdunia
webdunia
webdunia
webdunia
Advertiesment

मुंबई की बत्‍ती गुल ‘टीआरपी’ है, गांव की बि‍जली कटौती ‘हलवा’ है क्‍या?

हमें फॉलो करें मुंबई की बत्‍ती गुल ‘टीआरपी’ है, गांव की बि‍जली कटौती ‘हलवा’ है क्‍या?
webdunia

नवीन रांगियाल

मुंबई में सोमवार को बि‍जली गुल हो गई। इस खबर की हैडलाइंस देश के सभी प्रमुख न्‍यूज चैनल पर थी। महाराष्‍ट्र के मुख्‍यमंत्री से लेकर ऊर्जा मंत्री तक के बाइट और बयान मीडिया में छाए रहे। कई घंटों के लिए मुंबई की लाइफलाइन कही जाने वाली लोकल ट्रेन बंद रही। स्‍कूल-कॉलेज की परीक्षाएं स्‍थगि‍त कर दी गई।

ये सारी बातें क्‍यों बताई जा रही हैं। क्‍योंकि इसे मीडि‍या का सिलेक्‍ट‍िव एजेंडा कहा जाता है। मुंबई में दो घंटे के लिए बि‍जली क्‍या गई, यह दिनभर राष्‍ट्रीय खबर बनी रही।

आपको बता दें, मुंबई में लाइट गई तो खबर बनी। कृषि‍ प्रधान भारत के ज्‍यादातर गांवों में लाइट आती है तो गांव में खुशि‍यों के साथ यह खबर सुनाई जाती है, लेकिन गांवों में बिजली गुल होने या बि‍जली कटौती की खबर कभी भूल से भी किसी न्‍यूज चैनल पर नजर नहीं आती है। आखि‍र क्‍यों... यह सवाल किस से पूछा जाए? क्‍योंकि मुंबई की बत्‍ती गुल में टीआरपी है, गांवों की बि‍जली कटौती की खबर में न्‍यूज चैनल की टीआरपी नहीं है। शायद गांवों के मुद्दें सिर्फ हलवा है।

जाहिर है टीवी चैनल मुद्दों पर नहीं टीआरपी पर पत्रकारिता करते हैं। सिलेक्‍टि‍व टीआरपी पर। ऐसा नहीं है कि मुंबई की बत्‍ती गुल की खबर दिखाई नहीं जाना चाहिए, लेकिन जिस तरह और जिस जोर-शोर से उसे दिखाया गया वो अति‍रेक है।

ठीक इसके उलट महाराष्‍ट्र के ही हजारों ग्रामीण इलाकों में किसान अपनी फसलों में पानी देने के लिए घंटों तक बि‍जली आने का इंतजार करता रहता है, कमोबेश यही स्‍थि‍ति‍ मध्‍यप्रदेश, छत्‍तीसगढ और उत्‍तर प्रदेश में भी है। 4 से 6 घंटों की बि‍जली कटौती आम बात है। इंटीरियर गांवों में तो घोषित रूप से राज्‍य सरकारों द्वारा ऐसी कटौती की जा रही है।

ऐसी कटौती में ज्‍यादातर किसानों की पीयत की फसलें समय पर पानी नहीं मिलने पर बर्बाद हो जाती हैं और किसान अपना माथा पकड़कर ना-उम्‍मीदी के खेतों में बैठे रहता है।

मीडि‍या का यह दोहरा रवैया सिर्फ इसी को लेकर नहीं है। चाहे वो किसी हत्‍या का मुद्दा हो, आत्‍महत्‍या का या बलात्‍कार और गैंग रेप का। जहां टीआरपी होगी, वहां मीडि‍या होगा।

हाथरस का मामला लीजिए। यहां टीआरपी थी, लेकिन बलरामपुर और बुलंदशहर के बलात्‍कार के मामलों में उसे कोई दुख नजर नहीं आया, क्‍योंकि इसमें राजनीति और बयानों की सनसनी नहीं थी।

साफ है आज की पत्रकारिता और मीडि‍या मुद्दों को नहीं, टीआरपी और सनसनी को चुनती है। कोई हैरत भी नहीं, हर कोई अपने आप को दौड़ में आगे रखना चाहता है, सबसे पहले दिखाना चाहता है, लेकिन दुखद यह है कि इस दौड़ और होड़ में उन लोगों, किसानों, महिलाओं और क्षेत्रों के मुद्दें खो जाते हैं, डूब जाते हैं जो यह समझते हैं कि मीडि‍या उनकी आवाज बनेगा।

कहा यह भी गया था कि मीडिया उन लोगों की आवाज है, जि‍नकी अपनी कोई आवाज नहीं होती, जिनके मुद्दे कोई उठाता नहीं। लेकिन अब ऐसा नहीं है। मीडि‍या अब सिर्फ उसी की आवाज उठाता है जो पहले से फेसबुक, ट्व‍िटर जैसे सोशल मीडि‍या पर है जो खुद ही बुलंदी के साथ अपनी बात पूरी दुनिया के सामने रखना जानता है।

यह मीडि‍या के भटकने और गलत दिशा चुनने की शुरुआत है। निष्‍पक्षता, बेबाकी और न्‍याय के साथ पत्रकारिता के व्‍यवसाय को अब जोड़ना बेमानी हो गया है। इसमें क्षेत्रवाद, भाषावाद, वर्ग और अमीर-गरीब की खाई पैदा हो गई है। इस खाई की गहराई बढ़ती ही जा रही है। कहीं खाई इतनी गहरी न हो जाए कि उसमें पत्रकारिता नाम की एक अदद उम्‍मीद डूबकर मर जाए! 

(इस लेख में व्यक्त विचार/विश्लेषण लेखक के निजी हैं। इसमें शामिल तथ्य तथा विचार/विश्लेषण 'वेबदुनिया' के नहीं हैं और 'वेबदुनिया' इसकी कोई ज़िम्मेदारी नहीं लेती है।)

Share this Story:

Follow Webdunia Hindi

अगला लेख

क्‍या ‘कोरोना’ पूरी ‘दुनिया को कंट्रोल’ करने के लिए रची गई ‘साजिश’ है?